Monday, June 17, 2024

रंग बदलता संघ

"मोदी जिनके दम पर प्रधान मंत्री बने हैं,अब वो इनकी चौकीदारी करेंगे,ताकि ये उनके सेक्यूलर काम काज को चोटिल न कर सकें।वहीं संघ प्रमुख मोहन भागवत ने गुजरात लाॅबी को निशाने पर लेते हुए सीख दी कि अहंकार से संगठन और पार्टी नहीं चलती। मर्यादा जरूरी है। बीजेपी हमें अपना रंग न दिखाए। संघ है तो बीजेपी है। बगैर संघ के बीजेपी ढाई घर चलने का सपना छोड़ दे। वरना, उसकी स्थिति मौजूदा चुनाव से भी बदतर हो जाएगी।"
0 रमेश कुमार ‘रिपु’ इन दिनों देश के सियासी कैनवास पर एक नयी तस्वीर देखी जा रही है। संघ और बीजेपी के बीच तल्खी तस्वीर। यह तस्वीर अचानक नहीं बनी। तस्वीर की रेखाएं चुनाव से पहले ही बननी शुरू हो गयी थी। केवल इंतज़ार किया जा रहा था,कि सत्ता की तस्वीर कौन सी बनने जा रही है। सत्ताई तस्वीर 2014 और 2019 जैसी होगी,या फिर कुछ अलग हटकर। मोदी ने संसद में कहा था,अबकि बार चार सौ पार। कुछ हफ्ते पहले कहा था, कि मुझे परमात्मा ने भेजा है। अब कह सकते हैं,कि चुनाव परिणाम के बाद उनके पैर जमीन पर आ गए होंगे। विपक्ष को खत्म करने की सत्ताई साजिश मोहन भागवत को रास नहीं आ रही थी। मगर चुप रहे। मोदी ने चुनाव में भाषा का संस्कार भूल कर जिस तरीके से विपक्ष पर हमला बोले ,वो संघ के संस्कार की भाषा नहीं है। जबकि प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी स्वयं संघ की पृष्ठभूमि से हैं। चौथे चरण के चुनाव के बाद बीजेपी और संघ के बीच टकराव की तलवार जे.पी.नड्डा ने यह कहकर खींच दी,कि अब बीजेपी बड़ी पार्टी हो गयी है। उसे संघ की जरूरत नहीं है। एक झटके में नड्डा ने संघ को राजनीति का पाठ पढ़ा दिये। नड्डा के बयान से भाजपा में आए नेता भ्रमित हो गए। संघ कार्यकर्ता हाथ पर हाथ धरे रह गए। और किसी ने नड्डा के बयान पर कुछ कहा नहीं। सफाई भी नहीं दी। मोहन भागवत भी जानते हैं,जे.पी.नड्डा से यह बात किसने कहलवाया है। बावजूद इसके संघ प्रमुख चुप रहे। वो यह मान कर चल रहे थे,कि सामाजिक और सांस्कृतिक जमीन को मोदी को समझेंगे। लेकिन ऐसा पूरे चुनाव में नहीं में दिखा। उसका परिणाम यह रहा,कि मोदी की गारंटी का असर कई राज्यों में नहीं दिखा। वो स्चयं बहुत कम वोटों से चुनाव जीते। जबकि उससे अधिक वोटों से गैर राजनीतिक व्यक्ति किशोरी लाल अमेठी में एक लाख 67 हजार से अधिक वोटों से चुनाव जीते। अहंकारी नहीं होते सेवक - चुनाव के बाद संघ प्रमुख मोहन के तेवर और बयान चर्चा में हैं। उन्होंने कहा,सच्चा सेवक मर्यादा का पालन करता है। उसमें अहंकार नहीं होता, कि मैंने यह काम किया है। जो ऐसा नहीं करता है,सिर्फ उसे ही सच्चा सेवक कहा जा सकता है। इसे अलोचना नहीं सकारात्मक सलाह ही कहा जाएगा। यदि मोदी तीसरे कार्यकाल में इसे नहीं भूलेंगे तो बेहतर प्रधान मंत्री साबित हो सकते हैं। वैसेे पूरा चुनाव मोदी केंद्रित था। मोदी का परिवार से लेकर मोदी की गारंटी तक के प्रचार के तरीके के आगे मोदी का चेहरा दिखा। बस अड्डे से लेकर पेट्रोल पंपों तक मोदी का विज्ञापन दिखता था। अहंकार की सीमा इतनी लांधी की रामलला की प्राण प्रतिष्ठा साधु,संत महात्मा को करना चाहिए, स्वयं की। वैसे दूसरे कार्यकाल में ऐसा लगा,कि मोदी अपने आप को नेता कम, मसीहा ज्यादा समझने लगे हैं। मोहन भागवत के बयान के कई अर्थ निकाले जा रहे हैं। उन्होंने कहा, मणिपुर में हो रही हिंसा को रोका जाना चाहिए। संघ का मुख्यपत्र आर्गनाइजर ने भी बीजेपी और पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की आलोचना करते हुए लिखा,लोकसभा चुनाव के नतीजे बीजेपी के अति आत्मविश्वासी नेताओं और कार्यकर्ताओं के लिए आइना है। अयोघ्या हारे अपने अहंकार की वजह से। मोदी ने कई अच्छे काम किये हैं। लेकिन हिन्दू -मुसलमानों के बीच दरार पैदा की। लेकिन गोरक्षा के नाम पर जो हत्याएं हुई,मुस्लिम मांस व्यापारियों,पशु पालक,किसानों की,उसकी निंदा प्रधान मंत्री मोदी ने नहीं की। अमितशाह ने धमकी भरा भाषण दिये। उन्होंने कहा, कि बांग्लादेश से अवैध तरीके से आए लोग दीमक की तरह फैल गए है।दूसरे भाषण में कहा, नागरिकता के लिए रजिस्टर बनेगा। उन मुसलमानों को देश से निकाला जाएगा जिनके पास नागरिकता साबित करने के लिए दस्तावेज नहीं होगा। संघ का ज्ञान - अटल बिहारी वाजपेयी ने सी.एम. नरेंद्र मोदी का राजधर्म का पाठ पढ़ाया था,तो इस बार संघ प्रमुख ने मर्यादा और सच्चे सेवक का ज्ञान देने का काम किया है। पी.एम. मोदी जो खुद संघ के इतने करीब रहे हैं,उनको लेकर इस प्रकार की बयानबाजी के पीछे आखिर कौन सी वजह है। या फिर किस मकसद से ऐसा कहा गया। सियासी गलियारों में ऐसे सवाल केरल में 31 जुलाई को होने वाली संघ की बैठक तक टहल कदमी करते रहेंगे। मोहन भागवत के बयान जब तक समझा जाता,संघ के कार्यकर्ता इन्द्रेश का बयान आग में घी डालने का काम किया है। जिस पार्टी ने भगवान राम की भक्ति की लेकिन अहंकारी हो गई,उसे 241 पर रोक दिया गया। जिनकी राम में कोई आस्था नहीं थी,उन्हें 234 पर रोक दिया गया। गोरखपुर में योगी आदित्यनाथ से मोहन भागवत की मुलाकात से गुजरात लाॅबी के कान खड़े हो गए हैं। ऐसा होना स्वभाविक है। इसलिए कि अमित शाह, योगी आदित्यनाथ को यू.पी.के मुख्यमंत्री पद से हटाना चाहते हैं। यूपी में हार का ठिकरा वो योगी पर फोड़ना चाहते हैं। अमितशाह के अति करीबी ओ.पी. राजभान,उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य,बृजेश पाठक और दिनेश योगी को तवज्जो देते नहीं। संघ मानता है,उप मुख्यमंत्री की जरूरत नहीं है। मौजूदा चुनाव में यू.पी.में योगी का नहीं गुजरात लाॅबी का था। अमितशाह ने 25 टिकट बांटे थे।बिसात अमितशाह ने बिछाया था। योगी को सजा क्यो मिले?दिल्ली योगी की बात सुनने को तैयार नहीं है। जबकि योगी गुलदस्ता लेकर नड्डा के घर गए।अमितशाह,राजनाथ और शिवराज के पास भी। संघ प्रमुख के मुखर होने पर अब बीजेपी का कोर कार्यकर्ता बोल रहा है। योगी आदित्यनाथ से पूछ कर टिकट नहीं दिया गया है। बीजेपी को सीट कम मिलने पर इसके लिए दोषी वो हैं,जिन्होंने टिकट बांटे। संघ की चिंता जायज - संघ को चिंता है। दस साल में बीजेपी का जो वोट बैंक बनकर तैयार हुआ है वो हरियाणा,महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव में बिखर न जाए। उसे संजोना है। यदि इन तीन राज्यों मे बीजेपी हार गयी तो बहुत देर हो जाएगी। फिर बिहार भी हाथ से निकल सकता है। संघ नहीं चाहता,कि राज्य दर राज्य बीजेपी गंवा दे। संघ यही मान रहा है,कि यूपी में बीजेपी की हार की मूल वजह अमितशाह हैं। मौजूदा हालात से जाहिर है,कि जिस तरह अमितशाह यू.पी. में योगी आदित्यनाथ के काम काज पर दखल दे रहे हैं,उस स्थिति में यू.पी. में चुनाव हुए तो अखिलेश को कुछ ज्यादा नहीं करना पड़ेगा। यू.पी. की 80 सीट मायने रखता है। संघ मान रहा है,कि योगी पर नकेल लगाने से यूपी हाथ से निकल जाएगा। वैसे विदर्भ और नागपुर ही नहीं, पूरे महाराष्ट्र में बीजेपी को वोट नहीं मिला। सवाल यह है, कि इसकी गारंटी कौन लेगा। कांग्रेस को 13 सीट मिली। महाराष्ट्र में बीजेपी को 14 और एनडीए को 25 सीट का नुकसान हुआ। संघ को लगता है,एक नया सियासी चक्रव्यूह रचने का वक़्त आ गया है। संसदीय दल की बैठक में राज्य के मुख्यमंत्रियों की क्या जरूरत है? गुजरात लाॅबी को इस बात का अदेशा था,कि संसदीय दल की बैठक में यदि अपने लिए संघ से निकले सांसद नया नेता न चुन लिए तो मोदी नेहरू की बराबरी नहीं कर पाएंगे।केरल में 31 जुलाई को संघ की बैठक है। जाहिर है,वहां गुजरात लाॅबी की गतिविधियां और बीजेपी की कार्यशैली सहित अनेक सवालों पर चर्चा होगी। हो सकता है,कि वहां नीतिन गडकरी को पी.एम. बनाए जाने की बात उठे। और योगी को 2029 का चेहरा बनाने की बात हो सकती है। संघ को घृणा थी राजनीति से - इतिहास के पन्ने बताते हैं,कि भारतीय समाज की कायाकल्प के लिए संघ की स्थापना हुई थी। अपने आरंभिक दिनों में संघ मानता था,कि राजनीति घृणित चीज़ है।इसलिए संघ ने अपना सारा ध्यान चरित्र निर्माण की ओर केन्द्रित रखा। समय-समय पर संघ में बदलाव होते रहे। सन् 2013 का साल संगठन में बुनियादी बदलाव का गवाह बना। अमरावती की एक बैठक में संगठन ने तय किया,कि वो बीजेपी को सियासी सत्ता दिलाने अपनी शखाओं और स्वयं सेवकों के व्यापक नेट वर्क का चुनाव में इस्तेमाल करेगा। इस बदलाव के पीछे दो मकसद था। राजनैतिक सत्ता के पाने के साथ हिन्दू समाज को संगठित करना। अपातकाल के बाद हुए चुनाव को अपवाद मानें तो संघ ने कभी किसी राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा नहीं लिया।लेकिन समय-समय पर बीजेपी और जनसंघ के भीतर पदों पर लोग तैनात किये जाते रहे हैं। बीजेपी आहिस्ता-आहिस्ता कामयाब होती गयी। और बीजेपी ने ही संघ को राजनीतिक दायरे के भीतर लाने का काम किया। संघ की मात्र इतनी भूमिका रही,कि अपने लोगों को बीजेपी के अंदर रखवाने की। सन् 2004 और 2009 की चुनावी हार के बाद संघ दखल देते हुए बीजेपी नेतृत्व परिवर्तन की वकालत की। सन् 2013 में संघ के सह सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले ने कहा,‘‘ भारत में सामजिक,राजनीतिक और सांस्कृतिक बदलाव तभी आ सकता है,जब बीजेपी सभी राज्यों की सत्ता पर काबिज हो। धीरे-धीरे बीजेपी दो दर्जन के करीब राज्यों में अपनी सरकार बना ली। बहरहाल मोदी जिनके दम पर प्रधान मंत्री बने हैं,अब वो इनकी चौकीदारी करेंगे,ताकि ये उनके सेक्यूलर काम काज को चोटिल न कर सकें। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने गुजरात लाॅबी को निशाने पर लेते हुए सीख दी कि अहंकार से संगठन और पार्टी नहीं चलती। मर्यादा जरूरी है। बीजेपी हमें अपना रंग न दिखाए। संघ है,तो बीजेपी है। बगैर संघ के बीजेपी ढाई घर चलने का सपना छोड़ दे। वरना,उसकी स्थिति मौजूदा चुनाव से भी बदतर हो जाएगी।