आर्थिक
रूप से संपन्न लोगों को जब गैस सिलेडर पर सब्सिडी नहीं दी जा रही है,तो
फिर आरक्षण क्यों दिया जा रहा है? इसे देश के विकास में बाधक कितने चुनाव
के बाद माना जाएगा। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से इंदिरा साहनी मामले में तय
की गई आरक्षण की सीमा अब खत्म हो सकती है। उच्चतम न्यायालय क्रीमी लेयर का
कोटा कम करता तो आरक्षण का लाभ औरों को भी मिलता।
0 रमेश कुमार ‘रिपु’
सुप्रीेम
कोर्ट ने आरक्षण मुद्दे पर जो फैसला सुनाया है,उससे सवालों के बैंक खुल
गए। वैसे यह आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के लिए रेवड़ी ही है। यानी मोदी
सरकार की नये वोट बैंक की तलाश पूरी हो गई। अब आरक्षण का कोटा पचास फीसदी
से बढ़कर साठ प्रतिशत हो गया। कायदे से सुप्रीम कोर्ट को क्रीमी लेयर को
मिलने वाले आरक्षण कोटे को घटाकर दस फीसदी का लाभ आर्थिक रूप से पिछड़े लोगो
को देना चाहिए था। इसलिए कि अब इन्हें आरक्षण की जरूरत नहीं है। यदि ऐसा
नहीं किया गया,तो देश से आरक्षण कभी खत्म नहीं होगा और आने वाले समय मे
आरक्षण का कोटा सौ फीसदी तक जा सकता है। जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी ने अपने
फैसले में जायज बात कहीं,‘‘आजादी के 75 साल के बाद हमें समाज के व्यापक हित
में आरक्षण की व्यवस्था पर फिर से विचार करने की जरूरत है।’’
प्रमोशन
में आरक्षण के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने अपनी कोई राय जाहिर नहीं किया
है। यानी यह मोदी सरकार के पाले में है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से यह न
सोचें, कि यह आरक्षण केवल सवर्ण के लिए है। इसलिए कि कई राज्यों में जो
जाति ओबीसी में है,वही दूसरे राज्य में सवर्ण है। जैसे बघेल जाति
मध्यप्रदेश में सवर्ण है,लेकिन छत्तीसगढ़ राज्य में ओबीसी। यानी आर्थिक रूप
से पिछड़ी जाति में मुस्लिम,ईसाई आदि कई जातियाँ आएंगी। मुस्लिमों के आर्थिक
रूप से पिछड़े होने की कई रिपोर्ट है,जो उनके आरक्षण का आधार बन सकती है।
सुप्रीम
कोर्ट के फैसले से अब आर्थिक रूप से पिछड़ापन आरक्षण का आधार बन गया। अभी
तक सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ों के लिए आरक्षण की व्यवस्था थी। मोदी
कहते हैं,सबका साथ,सबका विकास,यानी सबको रेवड़ी दो। ताकि सत्ता का प्याला
हाथ से न छिटके। बीजेपी को उम्मीद है,कि हिमाचल और गुजरात चुनाव में आरक्षण
के इस फैसले से लाभ मिलेगा। वहीं विपक्ष का कहना है, कि मोदी सरकार वाकई
में दस फीसदी का लाभ जरूरत मदों को देना ही चाहती है,तो उससे पहले जातिगत
जनगणना जरूरी था। इससे नागरिकों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति का पता चलता।
उन लोगों की पहचान हो जाती,जिन्हें वाकई में लाभ मिलना चाहिए। इस फैसले से
ऐसा नहीं लगता, कि मोदी सरकार बहुत गंभीर थी दस फीसदी के आरक्षण को लेकर।
यदि ऐसा होता तो वह रोहिणी आयोग की उन बातों को भी तरजीह देती,जिसमें बताया
गया था,ओबीसी को मिलने वाले आरक्षण के तहत नब्बे फीसदी से ज्यादा
नौकरियांँ इस समूह की 25 फीसदी जातियों को ही मिलती है। आयोग के मुताबिक
983 ऐसी उप जातियाँ हैं,जिन्हें आज तक नौकरी नहीं मिली। इस मामले पर सरकार
को विचार करना चाहिए। वैसे सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से मोदी सरकार की
नीतिगत फैसले और विचारधारा को मजबूती मिली।
अब
राज्य सरकारें अपने राज्य में आरक्षण मनमाने तरीके से बढ़ाएंगे। इससे
आर्थिक और कानूनी आराजकता बढ़ने की आशंका है। क्यों कि पचास फीसदी आरक्षण की
सीमा रेखा पहले भी कई राज्यों में खत्म हो गई है। महाराष्ट्र में
64,हरियाणा में 60,बिहार 60,तेलंगाना 50 फीसदी से अधिक,गुजरात 50,10 फीसदी
ईडब्लयूएस कोटा शामिल,राजस्थान 64, तमिलनाडु 69,झारखंड 50, और मध्यप्रदेश
73 फीसदी। जिन राज्यों में आरक्षण पचास फीसदी से ज्यादा है,वहाँ जातीय
विभाजन होगा। समानता के अधिकार का नियम आरक्षण का अधिकार बन जाएगा। यह
विकास की राह में रोड़ा बनेगा। तमिलनाडु में सन् 1993 के आरक्षण अधिनियम के
अनुसार शिक्षा संस्थानों में प्रवेश और नौकरियों में 69 फीसदी आरक्षण दिया
जाता है । वहीं जनवरी 2000 में आन्ध्र प्रदेश के राज्यपाल ने अनुसूचित
क्षेत्र में स्कूली शिक्षकों की भर्ती के लिए अनुसूचित जनजाति के
उम्मीदवारों को सौ फीसदी आरक्षण देने का फैसला किया था। जिसे अदालत ने
असंवैधानिक कहा था। छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश ने आरक्षण की सीमाएं तोड़ दी
है।
छत्तीसगढ़ और
मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री ओबीसी से आते हैं। छत्तीसगढ़ में कुल आरक्षण की
सीमा 82 फीसदी हो गया है। यानी यहांँ ओपन वर्ग वाले सिर्फ 18 फीसदी लोग ही
शिक्षा संस्थानों में प्रवेश पा सकते हैं। और सरकारी नौकरियों में जा सकते
हैं। हालांकि बिलासपुर हाईकोर्ट ने इसे असंवैधानिक माना है। मध्यप्रदेश में
दस फीसदी कोटा शामिल है,कुल 73 फीसदी आरक्षण होने पर जबलपुर हाई कोर्ट ने
इस पर रोक लगा दी है। राजस्थान सरकार ने पांँच फीसदी गुर्जरों को आरक्षण
देना चाहती है,लेकिन हाई कोर्ट ने रोक लगा दी है। महाराष्ट्र में मराठाओं
को आरक्षण देने की बात उठी। यानी देश में आरक्षण की सीमाएं धीरे-धीरे राज्य
सरकारें बढ़ा रही हैं। एक दिन सौ फीसदी हो जाएगा। संघ प्रमुख मोहन भागवत
गलत नहीं कहते हैं,आरक्षण पर पुर्नविचार किया जाना चाहिए।
सवाल
यह है कि आर्थिक रूप से संपन्न लोगों को जब गैस सिलेडर पर सब्सिडी नहीं दी
जा रही है,तो फिर आरक्षण क्यों दिया जा रहा है? इसे देश के विकास में बाधक
कितने चुनाव के बाद माना जाएगा। दरअसल राजनीति से जाति कभी जायेेगी नहीं।
आरक्षण के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सवालों के बैंक बंद
नहीं हुए। आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को दस फीसदी आरक्षण देेने सेे सरकार
की नये वोट बैक की तलाश पूरी हो गई। लेकिन इस फैसले से इंदिरा साहनी मामले
में तय की गई आरक्षण की सीमा रेखा मिट जाएगी। उच्चतम न्यायालय क्रीमी लेयर
का कोटा कम करता तो आरक्षण का लाभ औरों को भी मिलता।
सुप्रीम
कोर्ट का आरक्षण पर जो नया फैसला आया है,उससे नया विवाद आकार ले लिया है।
सरकार इनकम टैक्स में ढाई लाख की छूट देती है। लेकिन आरक्षण के लिए आठ लाख
रुपये आय की सीमा तय किया है। जो कि ज्यादा है। इस दायरे में देश की नब्बे
फीसदी आबादी आ जाएगी। आर्थिक मापदंड पर सवाल उठ रहे हैं। वहीं अभी तक दी जा
रही है आरक्षण की व्यवस्था में ओबीसी 27 फीसदी,एससी 15 और एस.टी. 7.5
फीसदी है। और दस फीसदी ईडब्लयूएस के लोगों को आरक्षण मिला है। राज्य में हर
सरकार ओबीसी का कोटा बढ़ाने की बात कर रही है। बीजेपी का सबसे बड़ा वोट बैंक
ओबीसी है। जाहिर सी बात है,ओबीसी का कोटा बढ़ाए जाने पर दस फीसदी वाले इसका
विरोध करेंगे और वो भी चाहेंगे कि उनका भी कोटा बढ़ाया जाए।
दरअसल
राजनीति से जाति जा नहीं रही है। इसीलिए पंचायत चुनाव,नगर निगम
चुनाव,विधान सभा और लोकसभा चुनाव में भी जाति के आधार पर सीटें तय की गई
हैं। यानी जिस देश में संसद ही आरक्षित हो,वहांँ जातिगत आरक्षण को खत्म कर
आर्थिक आरक्षण की बात होगी,सोचना भी बेमानी है।
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