Friday, July 26, 2019

अंडे के फंडे में घिरी सरकार

   
क्या भूपेश सरकार हिन्दुत्व की छवि के खिलाफ है या फिर ब्राम्हण विरोधी है?यदि ऐसा नही है तो फिर स्कूलों और आंगन बाड़ी केन्द्रों में बगैर राय शुमारी के अंडा परोसने का आदेश क्यों जारी किया? ब्राम्हण,जैन,अग्रवाल,महेश्वरी,और कबीर पंथी आदि समाज के लोग अंडा को छूना भी पाप समझते हैं। ऐसे में उनके बच्चों की थाली में अंडा परोसने के पीछे कौन सा राजनीतिक कारण है?

0 रमेश कुमार ’’रिपु’’
                 
जाहिर सी बात है कि भूपेश सरकार संडे हो या मंडे,खूब खाओ अंडे के इश्तिहार से प्रभावित होकर प्रदेश में 44 फीसदी कुपोषण को दूर करने के लिए स्कूली बच्चों और आंगन बाड़ी केन्द्रों में गर्भवती महिलाओं को अंडा वितरण का आदेश दिया।लेकिन ब्राम्हण,जैन,अग्रवाल,महेश्वरी,मारवाड़ी,कबीरपंथी आदि समाज के लोगों को अपने बच्चों की थाली में अंडा परोसा जाना, उनके गले नहीं उतरा और वो सरकार के निर्णय के खिलाफ सड़कों पर उतर आये। हर जिले में अंडा वितरण का विरोध सरकार के लिए मुसीबत बन गया। विपक्ष इस मुद्दे को लपक लिया। भूपेश सरकार पर ब्राम्हण विरोधी छवि का लेबल पहले से ही लगा हुआ है,ऊपर से स्कूलों में अंडा वितरण के आदेश ने सोने में सुहागा का काम कर दिया।
प्रदेश कांग्रेस के मीडिया प्रभारी शैलेष त्रिवेदी कहते हैं,’’कुपोषण की स्थिति में सुधार के लिए रमन सरकार ने जो काम किये वो पर्याप्त नहीं थे। अनुसूचित जनजाति के बच्चों में कुपोषण की यह दर 38 फीसदी से अधिक है। प्रदेश में 75 फीसदी से अधिक आबादी अंडे का सेवन करती है। प्रदेश में कुछ संस्था और जाति के लोग अंडा वितरण का विरोध कर रहे हैं जबकि देश के 15 से अधिक राज्यों में मध्यान्ह भोजन और आंगनबाड़ी केंद्रों में कई सालों से अंडे का वितरण किया जा रहा है। जाहिर सी बात है कि भूपेश सरकार की मंशा गलत नहीं है’’। वहीं ज्यादातर लोगों का कहना है कि तरीका गलता है।

  क्या भूपेश सरकार हिन्दुत्व की छवि के खिलाफ है या फिर ब्राम्हण विरोधी है? यदि ऐसा नहीं है तो फिर स्कूलों और आंगन बाड़ी केन्द्रों में बगैर राय शुमारी के अंडा परोसने का आदेश क्यों जारी किया? ब्राम्हण,जैन,अग्रवाल,महेश्वरी,मारवाड़ी और कबीरपंथी आदि समाज के लोग अंडा को छूना भी पाप समझते हैं। ऐसे में उनके बच्चों की थाली में अंडा परोसने के पीछे कौन सा राजनीतिक कारण है? इस सवाल पर शिक्षा मंत्री प्रेमसाय सिंह कहते हैं,’’अंडा मांसाहार है या शाकाहार, इसे लेकर भ्रम काफी पहले टूट चुका हैं। जो बच्चे अंडा खाना चाहेंगे, उन्हें अंडा दिया जाएगा और जो बच्चे अंडा नहीं चाहेंगे, उन्हें दूध,केला या उतनी ही कैलोरी का अन्य प्रोटीनयुक्त पदार्थ दिया जाएगा। स्कूलों में अंडा बंटेगा या नहीं, इसका फैसला शाला विकास समिति तय करेगी। जहां की समिति अंडा परोसने के पक्ष में होगी वहां स्कूलों में अंडा दिया जाएगा। जहां समिति नहीं चाहेगी, वहां बच्चों के घर अंडा पहुंचाने की व्यवस्था की जाएगी, लेकिन बच्चों को अंडा अवश्य दिया जाएगा’’।

अंडा वितरण से इन्द्र नाराज
सरकार को घेरने विपक्ष को मौका चाहिए। उसने बच्चों की थाली में अंडा परोसने की योजना को हिन्दुत्व से जोड़ दिया। हिन्दुत्व की छवि खराब करने की साजिश करार दे दिया। और भाजपा ने मानसून सत्र में स्कूलों में अंडा परोसने के फैसले के खिलाफ काम रोको प्रस्ताव प्रस्तुत किया। गौरतलब है कि काम रोको प्रस्ताव तब लाया जाता है, जब वास्तव में कोई बड़ी घटना घटित हो। अंडा वितरण भाजपा के लिए बड़ी घटना है। पूर्व मंत्री बृजमोहन अग्रवाल ने सदन में आरोप लगाया कि सरकार कुछ व्यापारियों को लाभ पहुंचाने के मकसद से बच्चों की थाली में अंडा परोसना चाहती है। सरकार की यह योजना बच्चों कोें मांसाहार बना देगी। कबीरपंथी,ब्राम्हण जैन, अग्रवाल, वैष्णव, मारवाड़ी, माहेश्वरी समाज के लोग ज्ञान के मंदिर में अंडा वितरण किए जाने के खिलाफ हैं। सावन महीने में सरकार के अंडा बांटने के फैसले नेे इंद्रदेव को नाराज कर दिया, इसलिए पानी नहीं गिर रहा है। प्रदेश के 18 जिलों में सूखे की स्थिति है’’। इस पर आबकारी मंत्री कवासी लखमा ने कहा, छत्तीसगढ़ में जब पन्द्रह साल तक भाजपा की सरकार थीं, तब तो मुर्गी पालन और मछली पालन पर खूब जोर दिया गया। तब बृजमोहन ने इस्तीफा क्यों नहीं दिया।
अंडा वितरण पर सर्वे हो
वहीं अंडा परोसे जाने के फैसले के खिलाफ आंदोलन करने वाले कबीरपंथियों के गुरु प्रकाश मुनि का कहना है कि ज्ञान के मंदिर में अंडा नहीं परोसा जाना चाहिए। सरकार को स्कूल और आंगनबाड़ी केंद्रों में अंडा वितरण करने से पहले एक सर्वे करा लेती। जो बच्चे अंडा खाना चाहते हैं, सरकार उनके परिजनों को अंडा दें ताकि, वे अपने बच्चों को घर पर ही अंडा खिला सकें। बहुत से धार्मिक संगठन अंडा वितरण योजना को धर्म और आस्था के खिलाफ भी मान रहे हैं। कबीर धाम समिति के जिला अध्यक्ष ईश्वरीय साहू ने कहा सरकार की यह नीति बहुत गलत है। पूर्व काल में सद्गुरु कबीर साहब नें गाँव गाँव घूमकर मांसाहार बंद करने एवं शाकाहार का प्रचार किया है। नशा मुक्ति के लिए भी उन्होंने प्रयास किये हैं। जिन्हें आज शासन भूल गया है।
घर पहुंचायेगी अंडा सरकार
छत्तीसगढ़ में अंडे पर उबलती सियासत के बीच मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के निर्देश के बाद राज्य सरकार ने स्पष्टीकरण में कहा कि जिन स्कूलों में मिड डे मील में अंडा दिए जाने को लेकर सहमति नहीं बनेगी, वहां बच्चों को अंडा घर पहुंचाकर दिया जाएगा। स्कूल शिक्षा विभाग के प्रमुख सचिव गौरव द्विवेदी ने राज्य के सभी कलेक्टरों को पत्र लिखकर कहा है कि शाला विकास समिति और पालकों की बैठक में ऐसे छात्र,छात्राओं को चिन्हांकित किया जाये जो मिड डे मील में अंडा नहीं लेना चाहते।
अंडा का विकल्प
जिन स्कूलों में अंडे का वितरण किया जाएगा। वहां के शाकाहारी बच्चों के लिए प्रोटीनयुक्त खाद्य पदार्थ सुगंधित सोया, सुगंधित दूध, प्रोटीन क्रंच, फोर्टिफाइड बिस्किट, फोर्टिफाइड सोयाबीन, सोया मूंगफल्ली चिकी, सोया पापड़, फोर्टिफाइड दाल जैसे विकल्प रखे जाएं। 15 जनवरी 2019 को राज्य शासन ने स्कूली बच्चों में प्रोटीन और कैलोरी की पूर्ति के लिए मिड डे मील में सप्ताह में दो दिन अंडा, दूध या समतुल्य न्यूट्रिशन दिए जाने का निर्णय लिया था।
सरकार आंख दिखा रही
जेसीसी (जनता छत्तीसगढ़ कांग्रेस) विधायक धर्मजीत सिंह ने विधानसभा में अंडा वितरण का मामला शून्यकाल में उठाते हुए कहा, स्कूली बच्चों को अंडा दिया जाना जरूरी नहीं है। वर्ग संघर्ष की स्थिति बनने न दिया जाए। जिद्द से राजनीति नहीं होती। कबीर और गुरु घासीदास की धरती को बचाना चाहिए। सरकार आज अंडा खाने कह रही है, कल को बीफ खाने का निर्देश जारी कर देगी। चैकाने वाली बात है कि चुनाव में कांग्रेसी जाते है तो कबीरपंथी समाज के सामने घुटने टेकते हैं और अब जब अंडा देने का समाज विरोध कर रहा है तो आंखें दिखा रहे हैं। पीसीसी अध्यक्ष मोहन मरकाम ने कहा सरकार ने अंडे का विकल्प रखा है। जिन्हें अंडा नहीं खाना है, उनके लिए दूध की व्यवस्था की गई है। बीजेपी विधायक शिवरतन शर्मा ने कहा राज्य में 35 लाख कबीरपंथी निवासरत हैं। इस समाज मे अंडा.मांसाहार प्रतिबंधित है। समाज की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए उनकी मांगों को सुना जाना चाहिए।
कई संगठन चाहते हैं अंडा बंटे
सरकार के आंकड़े बताते हैं कि राज्य में 38 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं। जबकि अनुसूचित जनजाति के बच्चों में कुपोषण की दर सर्वाधिक 44 फीसदी है। आदिवासी बहुल इलाकों में बच्चों को अंडा दिए जाने की मांग की जाती रही है। राज्य सरकार भी कुपोषण खत्म करने के लिहाज से अंडा वितरित किए जाने के फैसले को वापस नहीं लेना चाहती। वहीं आधा सैकड़ा संगठनों ने मिड डे मील में अंडा दिए जाने के सरकार के फैसले पर अपना समर्थन किया है।
सरकार चिंतन करेःरमन
मिड डे मिल में अंडा दिये जाने का भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डॉ रमन सिंह ने विरोध करते हुए कहा, सरकार को इस फैसले पर चिंतन करने की जरूरत है। क्यांे कि ये धार्मिक आस्था और वैचारिक बात है। ये ऐसे लोग हैं जो कबीर पंथ को मानते है जो किसी जाति या धर्म से नही हैं, ये उचित नही है। 
क्या है अंडे में
अंडों को खिलाने के ऊपर चल रहे विवाद के चलते पीपल फॉर एनीमल मेनका गांधी की संस्था रायपुर इकाई की कस्तूरी बलाल ने बताया की बहुत सारे लोग यह नहीं जानते कि भारतीय पोल्ट्री में पाई जाने वाली मुर्गियां व अंडे बहुत ही निम्न गुणवत्ता के होते हैं। मुर्गियों को जिस जगह रखा जाता है वह बहुत ही गंदी रहती हैं। वहां पर ना पर्याप्त हवा होती है ना सूर्य की रोशनी। मुर्गियों को लगातार लाइट के उजाले में रखा जाता है। जिसके कि ज्यादा अंडे दे सकें। मुर्गियों को खाने में मरी मुर्गियों का मांस,रसायन में मिलाकर दिया जाता है, साथ में एंटीबायोटिक दिए जाते हैं। यह मुर्गियां अपने ही मल की गंदगी पर बैठती है। जिससे उन्हें घाव हो जाते हैं। अमूमन विभिन्न प्रकार के कीड़े लग जाते हैं। इन मुर्गियों में ब्रोंकाइटिस, इनफ्लुएंजा न्यू कैटल डिजीजए ैंसउवदमससं एक प्रकार का बैक्टीरिया जिससे टाइफाइड तथा पानी जनित रोग होते हैं, पाया जाता है। कम पोशक आहार देने से मुर्गियों के अंडों के शैल अंडे का बाहरी हिस्सा कमजोर हो जाते हैं। जिससे बाहर पाए जाने वाले बैक्टीरिया अंडे के अंदर चले जाते हैं। मुर्गियों को दी जाने वाली एंटीबायोटिक की कुछ मात्रा भी अंडो के अंदर चली जाती है। इनका असर अंडे के गर्म करने पर भी खत्म नहीं होता। लगातार ऐसे अंडों को खाने से मानव में उन एंटीबायोटिक्स के लिए रेजिस्टेंस डिवेलप हो जाता है, जो अंडों के खाने के कारण मानव शरीर के अंदर पहुंच जाते हैं। विभिन्न रिसर्च में ऐसी मुर्गियों के अंडों में विभिन्न प्रकार के पेस्टिसाइड जैसे डीडीटीएचसीएच भारी मेटल जैसे लेड, केडीलियम पाए गए हैं। मानव शरीर पर इनका असर दूरगामी होता है। धीरे.धीरे यह मानव के किसी भी अंग को जैसे किडनी इत्यादि को नुकसान पहुंचाती हैं। बच्चों का रेजिस्टेंस कम होता है। अतः उन्हें नुकसान पहुंचने की ज्यादा संभावना रहती है।
 









Wednesday, July 17, 2019

सबसे बड़ा बौद्ध स्थल सिरपुर

                     
 छत्तीसगढ़ में  नालंदा से भी बड़ा बौद्ध स्थल सिरपुर है। क्यों कि नालंदा में चार बौद्ध विहार मिले हैं,जबकि सिरपुर में दस बौद्ध विहार पाए गए। दस हजार बौद्ध भिक्षुकों को पढ़ाने के पुख्ता प्रमाण के अलावा बौद्ध स्तूप भी हैं। पाण्डुवंशीय शासकों के काल में सिरपुर ही कोसल की राजधानी थी। यहां ब्राम्हण,बौद्ध और जैन तीनों धर्म के लोग थे,यानी सर्वधर्म समभाव की भावना थी। ईटो से बना लक्ष्मण मंदिर अद्भुत है। वहीं पश्चिममुखी विशाल शिवमंदिर के एक ही जगतपीठ पर पांच गर्भगृह निर्मित है जो कि देश में सबसे अद्वितीय और ऊंची है।

 0 रमेश कुमार ‘‘रिपु‘‘
                      सिरपुर का अतीत,सांस्कृतिक समृद्धि और वास्तुकला वक्त की कब्र में दफ्न था। इसके अतीत की परतें अनावृत हुई तो कई चैकाने वाले तथ्यों से सामना हुआ। चैकाने वाली बात यह थी कि पाण्डुवंशीय शासकों के काल में सिरपुर ही दक्षिण कोसल की राजधानी थी। यहां ब्राम्हण,बौद्ध और जैन तीनों धर्म से संबंधित मूर्तियांें का निर्माण हुआ। यानी सर्वधर्म समभाव की भावना थी। अभी तक यह माना जाता रहा है कि नालंदा,तक्षशिला और पाटिल पुत्र ही शिक्षा के स्तंभ है। नालंदा का बौद्ध विहार ही सबसे बड़ा है,लेकिन यह सच नहीं है। नालंदा में चार बौद्ध विहार मिले हैं, जबकि सिरपुर में दस बौद्ध विहार पाए गए। इनमें छह,छह फिट की बुद्ध की मूर्तियां मिली हैं। सिरपुर के बौद्ध विहार दो मंजिलें हैं जबकि,नालंदा के विहार एक मंजिला ही हैं। यहां 10000 बौद्ध भिक्षुकों को पढ़ाने के पुख्ता प्रमाण मिले हैं। सिरपुर का बौद्ध मठ नालंदा से अधिक विकसित था। चीनी यात्री व्हेनसांग के अनुसार दक्षिण दिशा में कुछ दूरी पर एक प्राचीन संघाराम था। जिसके करीब एक स्तूप था। इसे राजा अशोक ने बनवाया था। सम्राट अशोक के समय के धर्मलेख सरगुजा के रामगढ़ की सीताबोंगरा और जोगीन्मारा गुफाओं में भी पाए गए हैं। मेघदूत में कालिदास द्वारा वर्णित रामगिरि इसी रायगढ़ को माना जाता है। नागार्जुन बोधिसत्व का इस संघाराम में निवास था। वैसे बौद्ध विद्वान नागार्जुन के सिरपुर आने के संबंध में इतिहासकारों में एक मत नहीं है। व्हेनसांग के अनुसार यहां सौ संघाराम थे। खैर अभी तक खुदाई में इतने नहीं मिले हैं,लेकिन संभावना है कि खुदाई हुई तो मिल सकते हंै। सिरपुर के बौद्ध विहारों में जातक और पंचतंत्र की कथाओं का अंकन है। सिरपुर में बुद्ध के चैमासा बिताने के प्रमाण हैं। भगवान बुद्ध के समय गया से लाया गया वटवृक्ष अभी भी बाजार क्षेत्र में है।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 85 किलोमीटर दूर जंगलों के बीच बसा सिरपुर गांव को पुरातात्विक पहचान न मिलती,यदि सागर विश्वविद्यालय और मध्यप्रदेश शासन पुरातत्व विभाग की ओर से एम.जी.दीक्षित के संयुक्त निर्देशन में 1953 से 1956 तक उत्खनन ना किया गया होता तो, टीले में जो राज दबे हुए थे,वे दबे ही रहते। दो बौद्ध बिहार अनावृत हुए। जिसमें एक का नाम आनंद प्रभुकुटी विहार और दूसरे का नाम स्वस्तिक विहार रखा गया। उत्खनन में कई एतिहासिक धरोहर की चीजें मिलीं। सिलबट्टा, बर्तन, जंजीर, दीपक,पूजा के पात्र,कांच की चूड़ियां,मिट्टी की मुहरें,खिलौने, आभूषण बनाने के अनेक उपकरण आदि। तीन सिक्के भी मिले। एक सिक्का शरभपुरी शासक प्रसन्न मात्र का,दूसरा कलचुरी शासक रत्नदेव के समय का और तीसरा सिक्का चीनी राजा काई युवान(713-741 ईस्वी) के समय का है। 
पांचवी शताब्दी में बसा सिरपुर
सिरपुर की प्राचीनता का सर्वप्रथम परिचय शरभपुरीय शासक प्रवरराज और महासुदेवराज के ताम्रपत्रों से होता है। जिनमें श्रीपुर से भूमिदान दिया गया था। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि पांण्डुवंशीय शासकों के काल में सिरपुर राजनीतिक,सांस्कृतिक,अध्यात्मिक और कला केन्द्र के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। ऐतिहासिक जनश्रुति है कि भद्रावती के सोमवंशी पाण्डव नरेशों ने भद्रावती को छोड़कर सिरपुर बसाया था। ये राजा पहले बौद्ध थे,बाद में शैवमत के अनुयायी बन गए। सिरपुर को पांचवी शताब्दी में बसाया गया था। ख्ुादाई से पता चलता है कि इसके पुरातात्विक स्मारक,समृद्ध परंपरा और सांस्कृतिक विरासत बेजोड़ थी। छठवीं सदी से 10 वीं सदी तक यह बौद्ध धर्म का प्रमुख तीर्थ स्थल था। ऐसी मान्यता है कि 12 वीं सदी में आए विनाशकारी भूकम्प में कोसल तबाह हो गया था।
बौद्ध सम्प्रदाय सिरपुर पहुंचा कैसे
सवाल यह है कि यहां बौद्ध सम्प्रदाय के लोग बसे कैसे। नागार्जुन की उपस्थिति के संबंध में एक मत नहीं है। चीनी इतिहासकार व्हेनसांग के अनुसार सिरपुर में महात्मा बुद्ध के समय से बौद्ध धर्म का इतिहास मिलता था। पांण्डुवंश के प्रारंभिक शासक भवदेव रणकेसरी बौद्ध धर्म के उपासक थे। महाशिवगुप्त बालार्जुन शैवमतावलंबी थे। ऐसी मान्यता है कि महाशिवगुप्त बालार्जुन धर्म सहिष्णु राजा थे। इसलिए उनके राज्य में शैव,वैष्णव और बौद्ध धर्म अस्तित्व में थे। बालार्जुन का हर संम्प्रदाय के प्रति झुकाव था। इसलिए उन्होंने बौद्ध विहारों के प्रति अपनी उदारता दिखाते हुए ना केवल धन दान में दिए बल्कि, संरक्षण भी दिए थे। इसलिए यहां बौद्ध सम्प्रदाय विकसित और प्रचारित हुआ। उस समय यहां 100 संघाराम थे तथा महायान संप्रदाय के दस हजार भिक्षु निवास करते थे। 
तीवर देव सबसे बड़ा बौद्ध विहार
दक्षिण कोसल में अब तक के सबसे बड़े विहार के रूप में तीवर देव बौद्ध विहार है। जो कि 2002-03 के उत्खनन मे मिला। तीवर देव महाविहार विशाल और भव्य है। इसकी शिल्पकला अद्भुत है। यह बौद्ध विहार लगभग 902 वर्ग मीटर में फैला है। इसे दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम विहार के मध्य में 16 अलंकृत प्रस्तर स्तंभों वाला मंण्डप है। इन स्तंभों पर ध्यान में लीन बुद्ध,मोर,चक्र,सिंह आदि का शिल्पांकन है। यह विहार भी अन्य विहारों की तरह है। चारों ओर भिक्षुओं की कोठरियां है,मध्य में आंगन है। गर्भगृह है। गर्भगृह के सामने वाले मंण्डप के चारों ओर गलियारा है। इस विहार में जल निकासी के लिए प्रस्तर निर्मित भूमिगत नालियों के अवशेष मिले हैं। इस विहार के प्रवेश द्वार का शिल्पांकन बहुत ही अलंकृत है। हाथियों के मैथुन मुद्रा में प्रदर्शित किया गया है। जबकि अन्य बौद्ध विहारों में ऐसा नहीं है। इसके अलावा आलिंगनबद्ध प्रणय प्रदर्शित करती युगल मूर्तियां भी आकर्षण का केन्द्र है। मगरमच्छ एवं वानर की कथा को उकेरा गया है। कुम्हार द्वारा चाक पर मिट्टी के बर्तन बनाने का दृश्य व्यवसाय एवं उसके महत्व को उल्लेखित करते हैं। 
ईटों का बौद्ध विहार
सिरपुर में सभी बौद्ध विहार ईटों से निर्मित हैं। कह सकते है कि आज के एक नम्बर के ईंटे से अच्र्छे इंटे प्रयोग में लाए गए थे। विहारों की तल योजना में गुप्तकालीन मंदिर तथा आवासीय भवन का निर्माण किया गया है। विहार में भिक्षुओं के ध्यान,निवास,स्नान के अलावा अध्यापन की सुविधाएं थी। खुदाई में 43 रिहायसी कमरों के अवशेष मिले हैं। प्रत्येक विहार के सामने बरामदा और सभागृह है। पीछे की ओर भिक्षुओं के निवास स्थल है। कुछ कमरें बडे़ हैं,जिसमें तीन भिक्षु रह सकते हैं। कुछ बहुत ही छोटेे हैं,जिसमें एक ही व्यक्ति रह सकता है। महाशिवगुप्त बालार्जुन के शासन काल में आनंद प्रभु नामक बौद्ध भिक्षु ने विहार का निर्माण कराया था। आनंद प्रभु कुटी विहार में 16 स्थूल प्रस्तर स्तंभ हैं। सभा मंडल,छज्जा और प्रतिमाएं इसी पर आधारित हैं। बुद्ध की एक प्रतिमा है जो बंद कमरे में है। इस प्रतिमा के दक्षिण दिशा में पद्मपाणि की पूर्ण आकार की प्रतिमा है। देव मंदिर के दक्षिण में गंगा की और वाम में यमुना की प्रतिमा है। मठ के बरामदे में 14 कोठरियां है। सभी में आले है। एक आला दरवाजे की सांकल के लिए,दूसरा दीपक के लिए, तीसरा ताले के लिए और चैथा वहां निवास करने वाले भिक्षुओं के सामान रखने के लिए था। यह मठ दो मंजिला है। हर मठ में एक सीढ़ी है। जिससे ऊपर जाया जा सकता है। यहां एक प्रवेश द्वार है। इससे लगा कमरा कोषागार लगता है। इसलिए कि कोषागार में जाने के लिए समीप ही एक कमरे की दीवार के आधार के साथ खिड़कीनुमा पल्ला होने का संकेत मिलता है। अन्न भंडार और कोषागर की व्यवस्था हर मठ में देखने को मिलती है। सामूहिक अध्ययन के लिए एक बड़ा कमरा है। छोटे, छोटे कमरे और कुछ थोड़ा बड़े हैं। ईटों से बना मठ बाहर से देखेने पर नहीं लगता कि अंदर कई कक्ष होंगे।
एक सच ऐसा भी
खुदाई में तीन अन्य छोटे मठ भी मिले हैं। इनमें एक भिक्षुणी मठ था। इसमें बड़ी संख्या में सीपी तथा कांच की चूड़ियां मिली है। इस मठ में एक नक्काशीदार छोटे स्तूप व एक चमकता हुआ वज्र मिला है। मिली मुद्राओं पर बौद्ध धर्म से संबंधित सूक्तियां अंकित है। बुद्ध के अलावा अन्य मूर्तियांे में सातवीं शताब्दी के अक्षरों में बौद्ध बीजमंत्र उत्कीर्ण है। गंधेश्वर मंदिर में मिली बुद्ध की प्रतिमा में आठवीं शताब्दी के अक्षरों में बौद्धमंत्र उत्कीर्ण है। बताया जाता है कि आनंद प्रभु कुटि विहार का उपयोग बौद्ध भिक्षु-भिक्षुणियों द्वारा आवास हेतु किया जाता था। इसके बाद इस विहार का उपयोग शैव धर्मानुयायियों के द्वारा किया गया। इन शैव धर्मावलम्बियों ने या तो बौद्ध धर्मानुयायियों को विहार से निर्वासित कर दिया या इनकी खाली कोठरियों पर कब्जा कर लिया होगा। शैव धार्मवलम्बियों ने बौद्ध विहार में रखी बुद्ध की प्रतिमा भी नहीं हटाए, इसके पीछे मान्यता है कि बुद्ध विष्णु के दशावतारों में एक है।
गठिया पत्थर की मूर्तियां
सिरपुर की सभी मूर्तियां गठिया पत्थर की बनी हुई है। यहां सभी स्थानों के शिल्प चित्रण में हंस और मयूर   है। ज्यादातर मूर्तियों में दैहिक सौन्दर्य में लयात्मकता,केामलता और रसात्मकता की झलक दिखती है।   लेकिन एक बात चैंकाती है कि शिव पार्वती और गणेश की प्रतिमा के साथ महिषासुरमर्दिनी की मूर्तियांे के साथ गंगा की मूर्तियां है। बौद्ध विहारों से बुद्ध की प्रतिमा को हटाया नहीं गया। ऐसा माना जाता है कि बुद्ध की प्रतिमा के द्वार पर गंगा की प्रतिमा की उपस्थिति का संबंध हिन्दू धर्म के साथ साथ बौद्ध धर्म से भी है। इसलिए बौद्ध विहार के पास ही शिव की प्रतिमाएं विराजी रहीं।
चैत्य मेहराब से अलंकृत लक्ष्मण मंदिर  पुरातत्व के जानकार कौशलेश तिवारी कहते हैं,‘‘ईटों से निर्मित लक्ष्मण मंदिर देश में अद्वितीय है। इस मंदिर का निर्माण काल ईस्वी 650 के करीब का है। इसे महाशिवगुप्त बालार्जुन की माता वासटा अपने पति हर्षगुप्त जो वैष्णव धर्मानुयानी थी,हर्षगुप्त की मौत के बाद शैव धर्म अपना ली,उनकी पुण्य अभिवृद्धि के लिए लक्ष्मण मंदिर का निर्माण कराया था। लक्ष्मण मंदिर का शिखर कई ढलाव वाला है। यह शिखर चैत्य मेहराब रचना से अलंकृत है। जिनके बीच में स्तंभ के समान सीधे दंड बने हुए है। इसके ऊपर कुडु से अलंकृत कपोतों की रचना है। सभी शिखर एक के ऊपर एक बने हुए है। चैत्य मेहराबों की दो पत्तियों से सुसज्जित हैं। जो छोटे होते गए हैं। मंदिर के प्रवेश द्वार पर शेषशायी विष्णु हैं, उभयद्वार शाखा पर विष्णु के प्रमुख अवतार,कृष्णलीला के दृश्य,मिथुन दृश्य और वैष्णव द्वारपालों का अंकन है। इस मंदिर की बनावट की खासियत यह है कि शिखर को सजाने के लिए चैत्य गवाक्षों की अर्द्ध पंक्त्यिों से की गई है। इसके क्षैतिज पट्टियों पर कगूरों और लघु चैत्य पर ताखों की सजावट है। शिखर का कलश नष्ट हो गया है। खुदाई से मिली मूर्तियों को लक्ष्मण मंदिर के पास बने संग्रहालय में रखी हुई हैं। बहरहाल सिरपुर की खुदाई बंद है,यदि पुनः होती है तो कई अद्भुत और अकल्पनीय साक्ष्यों से सामना हो सकता है।











चढ़ने लगी खुशियों की धूप

         
आधी दुनिया ने दुनिया बदलने की ठानी तो कचरे के ढेर की जगह अब फूलों का उद्यान बन गया। नक्सल प्रभावित गांवों के लोगों ने प्रशासन से सड़कें मांगी। नहीं मिली तो पहाड़ का सीना चीरकर अपने लिए सड़कें बना ली। माओवादियों की सोच बदली तो लाल गलियारे का फैलाव रूका। धीरे धीरे बस्तर करवट बदलने लगा। विकास की सुगंध फैली तो गांव की अटारी में खुशियों की धूप भी चढ़ने लगी है।

0 रमेश कुमार ‘‘रिपु‘‘
                   छत्तीसगढ़ का जिला अंबिकापुर बदल गया है। सिर्फ शहर ही नहीं बदला है बल्कि, यहां की आबो हवा भी बदल गई। किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि चंद महिलाएं अंबिकापुर की पहचान बदल देंगी। कुछ जागरूक महिलाओं ने एक ऐसे काम का बीड़ा उठाया जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। अंबिकापुर के प्रवेश द्वार पर करीब 15 एकड़ की जमीन पर कचरे का पहाड़ था जो बढ़ता ही जा रहा था। इसी के साथ दुर्गंध भी। लेकिन कोई उसे हटाने की बात नहीं करता था। सत्यमेय जयते टी.वी सीरियल ने महिलाओं की सोच ही बदल दी। निकल पड़ी कुछ महिलाओं की टोली। कचरा सड़कों पर न फेंके,हमें सौंप दें,हम रोज आपसे कचरा ले लेंगी। उन्हें आइडिया मिला टी.वी से कि यदि कचरे में शामिल प्लास्टिक,लोहा,कागज,इलेक्ट्रानिक सामान आदि की छटनी कर उन्हें बेचा जाए तो आमदनी भी हो सकती है,साथ ही शहर भी स्वच्छ रहेगा। फलों के छिलके,बचे हुए भोजन आदि को अलग कर पशुओं कों दे तो उनका पेट भी भरेगा और गाय,भैंस दूध भी देंगी। जागरूक महिलाओं ने सबसे पहले इसकी शुरूआत कुछ वार्डो में की। चमत्कारी परिणाम आने पर हर वार्ड में महिलाओं ने ठोस अपशिष्ठ प्रबंधन केन्द्र खोल दिया। इतना ही नहीं अब 15 एकड़ की जमीन पर कचरे की ढेर की जगह एक सुन्दर उद्यान है। फूलों की महक लोगों को लुभा रही है।
महिलाओं और शासन के सम्मलित प्रयासों का ही यह कमाल है कि आज वार्ड का हर पार्षद अपनी निधि से हर घर में दो, दो डस्टबीन उपलब्ध करा दिया है। एक नीला और दूसरा लाल। नीला सूखे कचरे के लिए और लाल ऐसे कचरे के लिए जिसमें सड़न की संभावना है। महिला समूहों के काम को सम्मान मिल रहा है। और सभी कह रहे हैं कचरे से सोना निकल रहा है और लोकसुराज की तस्वीर महिलाओं ने गढ़ दिया। इसे सेनेटरी पार्क कहा जाता है। स्वच्छ अंबिकापुर मिशन सहकारी मर्यादित समिति ने एक फेडरेशन बनाया है। 39 समूह है। जिसमें 410 सदस्य हैं। इसकी अध्यक्ष श्रीमती शशिकला सिन्हा कहती हैं,‘‘पूर्व कलेक्टर रितु जी ने सत्य मेव जयते के श्रीनिवासन सर को यहां बुलाकर उनसे महिलाओं को प्रशिक्षण दिलाया। बात 2015 की है।उसके बाद से ही स्वच्छ अंबिकापुर की दिशा में महिलाओं ने आगे हाथ बढ़ाया। महिलाएं जब घर को व्यवस्थित कर सकती हैं तो फिर अपने शहर को क्यों नहीं। बस इसी सोच को मुकम्मल करने की हमने ठानी। अब इसे कोई भी गंदा शहर नहीं कहता‘‘। समिति की सचिव नीलम बखला कहती हैं,‘‘नगर निगम से हमें कचरा एकत्र करने का रिक्शा मिला है। हर रिक्शे के साथ तीन चार महिलाएं होती हैं। पूरे शहर में अलग अलग सेंटर बनाए गए हैं। घर घर जाकर कचरा एकत्र करने के बाद उसे छांटा जाता है। उसमें से प्लास्टिक,लोहा आदि अलग किया जाता है। ताकि कचरे का निष्पादन ठीक से किया जा सके’’।
और जिन्दगी गुलाबी हो गई
अंबिकापुर की गीता कभी सपने में भी नहीं सोची थी कि एक दिन उसकी जिन्दगी भी गुलाबी हो जाएगी। इसलिए कि दो बच्चों की गीता के पति की अचानक मौत हो जाने से उसकी किस्मत में आंसू के सिवा कुछ रह ही नहीं गया था। हर दिन एक ही ख्याल इस बद्तर जिन्दगी से तो मर जाना ही अच्छा है। लेकिन बच्चों का भविष्य संवारने की उत्कंठा से वह चल पड़ी। लोगों ने उसका उत्साह बढ़ाया और वह मनिहारी का सामान साइकिल पर लेकर निकल पड़ी। रोटी का इंतजाम होने लगा। सिलाई आती थी,एक दुकान खोल ली। एक दिन वह भी जल गई। फिर गीता सड़कों पर। हिम्मत नहीं हारी। उसे पता चला कि यदि कोई महिला फोरव्हीलर चलाना चाहती है तो सरकार प्रशिक्षिण देती है। गीता ने सोचा सीखने में क्या बुराई है। वह ड्राइवरी सीख ली। प्रशिक्षण के दौरान ही उसे पता चला कि प्रशिक्षित महिला वाहन फायनेंस कराना चाहे तो सरकार मदद करती है। गीता ने आटो फाइनेंस करा लिया और गुलाबी जैकेट पहनकर आटो के साथ रेलवे स्टेशन जा पहुंची। इस समय गुलाबी जैकेट पहनें 22 महिलाएं आटो चला रही हैं। तारा प्रजापति भी गुलाबी जैकेट में और उनके पति खाकी जैकेट में। कई महिलाएं टेªक्टर भी चला रही हैं। वे अपने हुनर का इस्तेमाल खेती में कर रही हैं। कलेक्ट्रेड में तीन महिलाओं ने सायकल स्टैंड का ठेका ले लिया है। नग्मा कहती हैं,अच्छा लगता है जब लोगों से सुनती हॅू कि ठेकेदारी में भी महिलाएं सफल हो गई हैं। कलेक्ट्रेड में वाहन पार्किग का ठेका श्रीमती अंजुम बानों के पास है।
जहां चाह,वहां राह
नक्सल प्रभावित बस्तर के जगदलुपर मुख्यालय से 70 किलोमीटर दूर लोहंडीगुड़ा जनपद के तहत ककनार से होकर पुसपाल और कोरली गांव पहुंच विहीन इलाके में आते हैं। लोहंडीगुड़ा विकासखंड नक्सल प्रभावित इलाका होने के चलते अतिसंवेदनशील इलाका है। यहां घाटी के नीचे दो ग्राम पंचायत ककनार और चंदेला ब्लॉक मुख्यालय से 25 किमी की दूरी पर बसे हैं। यहां पहुंचने के लिए पहाड़ी रास्ता ही एकमात्र रास्ता है। ग्राम पंचायत ककनार के पुसपाल गांव में आने,जाने के लिए पहाड़ी मार्ग के अलावा और कोई रास्ता नहीं था। प्रशासन और सरकार से कई बार मांग की गई लेकिन किसी ने भी नहीं सुनी तो ग्रामीण खुद ही जुट गए पहाड़ तोड़ने में। आजादी के इतने वर्ष के बाद भी शासन,प्रशासन यह कभी जानने की कोशिश नहीं किया कि पुसपाल और कोरली गांव के ग्रामीणों की जरूरत क्या है। ग्रामीणों के पहाड़ तोड़कर रास्ता बनाए जाने की खबर स्थानीय विधायक दीपक बैज को लगी तो वे मौके पर पहुंच कर ग्रामीणों का हौसला अफजाई किया साथ ही ग्रामीणों को बधाई देते हुए मार्ग के मुरमीकरण के लिए एक लाख रुपए देने की घोषणा की। गौरतलब है कि कुछ महीने पहले भी लोहंडीगुड़ा ब्लॉक के सैकड़ों ग्रामीणों ने भेजा और सालेपाल में भी इसी तरह पहाड़ तोड़कर सड़क बनाया था। इलाके में अब तक का ये तीसरा मामला है, ग्रामीणों ने स्वस्फूर्त इस तरह का कदम उठाया है। अब ग्रामीणों को इन्द्रवती नदी और पहाड़ियों को पार करके चंदेला एवं ककनार नहीं जाना पड़ेगा। अब वे सीधे परोदा पहुंच कर सीधी सड़क पकड़कर ब्लाक मुख्यालय लोहंडीगुड़ा पहुंच जाएंगे। लौहंडीगुड़ा जनपद के सी.ई.ओ अनिल टोम्बरे कहते हैं,ग्रामीण  सड़क बनाने की मांग को लेकर आए थे,लेकिन जहां सड़क बनाने की बात कर रहे थे,वह क्षेत्र वन विभाग का है। इसलिए समस्या आ रही थी‘‘। गांव के मोहन भगत बघेल ने बताया कि पिछले साल बारिश में गांव के चंदरू की तबियत खराब होने पर लौहंडीगुड़ा अस्पताल ले जाने के लिए निकले लेकिन पहाड़ी रास्ता होने की वजह से भारी दिक्कतें आईं। इन्द्रावती नदी उफान पर थी। गांव टापू में तब्दील हो चुका था। करीब नौ घंटे तक पेडों़ और चट्टानों के बीच रहकर गुजारना पड़ा। चंदरू दर्द से छटपटाता रहा। नदी का पानी उतरने के बाद ही अस्पताल पहुंचे। चंदरू की घटना ने हम सभी की आॅखें खोल दी। गांवों वालों ने मिलकर पहाड़ तोड़कर सड़क बनाने का निर्णय लिया। और पुसपाल और कोरली के करीब 130 परिवार सड़क बनाने के लिए जुट गया। सबने हाथ बढ़ाया और देखते ही देखते तीन किलोमीटर तक की सड़क बन गई। प्रशासन के पास जाकर गिड़गिड़ाने से मुक्ति मिल गई। प्रशासनिक अमला इसका डामरीकरण कर दे तो हमेशा के लिए रास्ता सुगम हो जाएगा।
एजूकेशन हब में तब्दील बस्तर
छत्तीसगढ़ के बस्तर में एक दशक पहले जिन्दगी आसान नहीं थी। नक्सल प्रभावित जिलों में शाम ढलते ही घरों के दरवाजे बंद हो जाया करते थे। माओवादियों के बूटों की आहट और गोलियांे की धमक से गांव हमेशा दहशतजदा रहते थे। लेकिन अब घुर नक्सली क्षेत्रों में खुशियांे की धूप चढ़ने लगी है। माओवादियों ने बस्तर के सैकड़ों स्कूलों को बम से ध्वस्त कर दिए थे। इसलिए कि बच्चे अशिक्षित रहेंगे तो उन्हें आसानी से दिगभ्रमित करके माओवादी बना सकेंगे। लेकिन रमन सरकार ने बच्चों केा शिक्षित और जागरूक करने के लिए नए स्कूल खोले। बस्तर कोे घोर नक्सली जिला नारायणपुर के गरांजी में 70 एकड़ में एजुकेशन हब, इसमें केन्द्रीय विद्यालय, माॅडल स्कूल, आदर्श बालक-बालिका स्कूल है। बीजापुर में 741 प्राइमरी,178 माध्यमिक और 27 हायर सेकंडरी स्कूल के साथ पाॅलीटेक्निक, दो काॅलेज के जरिए शिक्षा की ज्योति जल रही है। बस्तर के हर जिले में लाइवलीहुड काॅलेज खोल कर एजूकेशन हब में बस्तर को तब्दील किया। जिसका जिक्र प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी अपने भाषण में अक्सर किया करते हैं। इस समय प्रदेश के 27 जिलों में लाइवलीहुड काॅलेज है।
एक द्रोणाचार्य ऐसा भी
नक्सली क्षेत्र के युवा गुमराह होकर बंदूक उठाकर माओवादी न बन जाए इसकी चिंता अब हर घर में रहती है। गांवों वालों की तरह आर. डी. ए. के सीईओ महादेव कावरेे को भी है। बीजापुर जिले के छोटे से गांव बोरजे से निकलकर आईएएस बनने वाले महादेव कावरे अपने घर में ही 40 बच्चों का शिक्षा दे रहे हैं। इतने ही बच्चों का कॅरियर भी संवार चुके हैं। डिप्टी कलेक्टर महादेव कावरे का अब प्रमोशन हो गया है लेकिन गांवों वाले नहीं चाहते कि वे यहां से जाएं। वे बताते हैं कि गांव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ने के दौरान नक्सलियों ने सरपंच की हत्या कर दी थी। सरंपच के दोनों बच्चे भी उनके साथ ही पढ़ते थे। इस घटना ने उनकी सोच बदल दी। उन्होनें ठाना कि चाहे कुछ भी हो जाए गांवों के युवाओं और बच्चों को माओवादी नहंीं बनने दूंगा। डिप्टी कलेक्टर बनने के बाद से वे लगातार युवाओं को मार्गदर्शन देते आ रहे हैं और बच्चों को अपने ही घर में शिक्षा दे रहे है। गांवों वाले उनकी सुरक्षा के लिए रात रात भर जागते हैं ताकि माओवादी उन्हें
लाल गलियारे से की तौबा
समाज की मुख्यधारा से जुड़ने की यह इच्छा शक्ति ही है कि अब लाल गलियारे से लोग ऊब कर स्वेच्छा से माओवादी सरेंडर करने लगे हैं। बस्तर के साथ खुद को भी बदलने की धारणा की वजह से अब माओवादियों के खिलाफ पूरा बस्तर मुखर होने लगा है। उनके खिलाफ धरना,प्रदर्शन,रैली और आम सभा होने लगी हैं। सरेंडर करने वाले माओवादी स्वयं पुलिस का सहयोग कर रहे हैं। यही वजह है कि लाल गलियारे में भी अब बनने लगी है समृद्धि की सड़कें। नेशनल हाइवे 63 गीदम से बीजापुर तक 88 किलोमीटर सड़क,भोपालपट्टनम तक निर्माण हो रहा है। इन्द्रावती नदी पर 26 पिलर के जरिए बीजापुर से जगरगुंडा की ओर सड़क आ रही है। 50 किलोमीटर तक बन गई है। यह चैकाने वाली बात है कि जगरगुण्डा की ओर जा रही सड़क के निमार्ण के दौरान अरनपुर थाने से कोंडासावली तक के हिस्से में पिछले पांच छह माह में 75 आईईडी मिल चुके हैं। बस्तर की जमीन में जगह जगह माओवादी बारूद बिछा रखे हैं। बावजूद इसके सड़कें बन रही हैं। थाना तोंगपाल क्षेत्र के ग्राम कासनपाल के विद्यालय में गत दिनों दो सौ से अधिक माओवादी और उनके समर्थकों ने सरेंडर किया। माह अक्टूबर तक नौ सौ माओवादी सरेंडर कर चुके हैं,वहीं 109 नक्सली मारे जा चुके हैं। वहीं बस्तर के आई जी एस.आर.पी.कल्लुरी दावा करते हैं कि 2018 तक बस्तर को नक्सल मुक्त कर देंगे। 
बन गया सबका आदर्श रायखेड़ा
जिद करो दुनिया बदलो वाली बात को चरितार्थ किया है रायपुर से 38 किलोमीटर दूर तिल्दा तहसील का गांव रायखेड़ा। जो अब सभी गांवों के लिए आदर्श गांव बन चुका है। स्वच्छ भारत अभियान में यह गांव पूरी तरह क्लीन हुआ। 20 महिला स्वसहायता समूह और फिर पुरूषों ने भी खुले में शौच के खिलाफ ऐसी जागरूकता छेड़ी कि खुले में शौच से यह गांव मुक्त हो गया। इतना ही नहीं पूरा गांव कम्प्यूटराज हो गया है। दर्जन भर घरों में डेस्कटाॅप और इतने ही युवा लैपटाॅप पर हैं। इस गांव में पत्र व्यवहार और शिकायतें भी मेल की जा रही हैं। यह गांव अब वाई फाई जोन होने जा रहा है। दस साल पहले यह गांव अमूमन जैसे गांव होते हैं समस्या ग्रस्त, वैसा ही था। 10 हजार अबादी वाला यह गांव अब सभी समस्याओं से मुक्त है। जिला पंचायत सीईओ नीलेश कुमार के मुताबिक डेढ़ से दो साल में रायखेड़ा की तस्वीर बदल गई है। यह जिले का पूरी तरह से आदर्श गांव है। इतनी कोशिश और गांव करेंगे तो प्रशासन उन्हें इसी तरह विकसित करना चाहेगा।
 








कोई नुकसान न पहुंचा सकें।

चौरसिया से अलग है मेरा अंदाज

       प्रसिद्ध बांसुरी वादक रोनू मजूमदार से बातचीत

  चौरसिया  से अलग है मेरा अंदाज


संगीत की दुनिया में बांसुरी की मिठास तब तक नहीं घुलती,जब तक पं. नरेन्द्र नाथ मजूमदार (पं. रोनू मजूमदार) का नाम न लिया जाए। दिल के समुंदर की अनंत गहराइयों में उतर कर रोनू मजूमदार की उंगलियां जब बांसुरी के छह छिद्रों पर सात सुरों का खेल खेलती हैं तो ऐसा लगता है कि हवाएं थम गई हैं। सुर की गंगा भागीरथ की तपस्या को देखने के लिए फिजाएं घ्यानस्थ हो गई हैं। बांस के इस अदने से वाद्य पर रोनू जब सांसों का मंत्र फंूकते हैं तो,लगता है जैसे इस धरा पर स्वयं कन्हैया उतर आए हैं। जिसके तहत सुरों ने देह धारण कर ली हो राग-रागिनी गोप -गोपियां बनकर गरबा कर रही हों। जबकि बांसुरी से सुर की गंगा निकालने वाले रोनू कहते हैं कि ,‘‘ मै तो कृष्ण नहीं हॅू,उनका आशीर्वाद हूूं। संगीत जगत से जुड़ी कुछ ऐसी बातें पं. रोनू मजूमदार ने बड़ी बेबाकी से कही। उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश-
0 रमेश कुमार ‘‘रिपु‘‘

0 श्री कृष्ण की बांसुरी से लेकर रोनू मजूमदार तक की बांसुरी में क्या बदलाव आया है?
00 बांसुरी के मूल ढांचे में कोई बदलाव नहीं आया। कल भी बांस की बांसुरी से सुर निकलते थे, आज भी निकलते हैं। तान वही है,आवाज वही है और दीवाना बना देने वाली इसमें मधुरता भी है। आज भी इसमें सुनने वालों को अपनी ओर खींच लेने की कशिश है। ताकत है। यदि कुछ बदला है तो बस इसके बजाने का अंदाज। पं. हरिप्रसाद चैरसिया का अलग अंदाज है और मेरा अलग है। कुछ दूसरे अंदाज में भी बजाते हैं।
0 शंख बांसुरी क्या है और इसे बजाने का ख्याल कैसे आया।
00 बात 1988 की हैै। मास्को फेस्टिवल में पं. रविशंकर जी के आर्केस्ट्रा में हम लोग अपने साज बजा रहे थे। तब मेरे दिमाग मे शंख बांसुरी का ख्याल आया। मुझे लगा कि पंडितजी का सितार जिस आरोह-अवरोह पर जा रहा है,पंडित विश्वमोहन भट्ट अपनी वीणा से जिस गहराई को छू रहे  हैं,वहां तक बासुंरी क्यों नहीं पहुंच रही है। तब मैने बासंुरी का आकार को बड़ा करने का फैसला किया और शंख बांसुरी बनाई। 1994 में उसे बजाया और माचिस फिल्म के साथ शंख बांसुरी को ख्याति मिली।
0 क्या वजह है कि बांसुरी लोगों को मोह लेती है,इसके बावजूद इसे उतनी ख्याति नहीं मिली,जितनी कि अन्य वाद्य यंत्रों को?
00 यह बात सच है कि बांसुरी को उतनी लोकप्रियता नहीं मिल पाई है,जितनी मिलनी चाहिए थी। भारतीय परंपरा में बांसुरी पहले से जुड़ी हुई है। जितनी लोकप्रियता तबला और सितार आदि को मिली है,उतनी लोकप्रियता बांसुरी को नहीं मिल पाई है। बांसुरी अभी विकास की प्रक्रिया में है। फिर यह कलाकार की साधना पर निर्भर करता है कि वह संगीत की किस विधा में किस ऊंचाई तक जा सकता है। जब तक बिस्मिल्ला खां साहब ने शहनाई को हाथ नहीं लगाया था,वह शादी-ब्याह में बजाया जाने वाला वाद्य यंत्र था। उन्होंने उसे नई ऊंचाई दी। सितार और तबले को एक ही समय में एक से अधिक बड़े कलाकारों ने साधा और उन्हें लोकप्रियता दी। सितार पर रविशंकर, विलायात खां, निखिल बनर्जी,रईस खां और अब्दुल अलीम जाफर खां ने कमाल दिखाया, तो तबले पर अल्ला रक्खा खां,किशनजी महाराज,पं.अनोखेलाल जैसी धुरंधर प्रतिभाएं एक साथ अस्तित्व में रहीं। जो बचा,उसे जाकिर हुसैन ने कर दिखाया। बांसुरी के साथ ऐसा नहीं हुआ। यही वजह है कि बांसुरी और सरोद दुनिया में ख्याति के मामले में तीसरे क्रम पर रह गए। बांसुरी विकास की प्रक्रिया में है।
0 बांसुरी कब शास्त्रीय संगीत की धरातल पर कदम रखा?
00 बात 1932 से 1950 के बीच की है। जब पं. पन्ना लाल घोष ने पहली बार इसे शास्त्रीय संगीत में बजाया और प्रतिष्ठा दी। 1960 में उनकी असमय मृत्यु हो गई। 1965 में पं. हरिप्रसाद चौरसिया ने उनके काम को आगे बढ़ाया। मेरे गुरू पं. विजय राघव राव ने भी इस दिशा में पर्याप्त काम किए।
0 ऐसे कौन से राग हैं जिन्हें मुरली पर नहीं बजाया जा सकता।
00 निश्चय ही एैसे कुछ राग है जिन्हें मुरली पर बजाना सहज नहीं है। विहाग,मालकोंस जैसे राग को बांसुरी पर साधाना काफी कठिन है। छह छिद्रों में 12 स्वर निकालना कोई आसान काम नहीं है। इसमें जितनी रेंज है,उनती और किसी वाद्य यंत्रों में नहीं है। यह पेसिंल जितनी छोटी है तो, शंख बांसुरी जितनी बड़ी भी है। इसमें किसी भी संगीत में समा जाने की पूरी क्षमता है। जैसे सारंगी और वायलिन पर गायकी आसान नहीं है। उसी तरह बांसुरी में इन रागों को साधना आसान नहीं है।
0 कहते हैं कि श्री कृष्ण जब बांसुरी बजाते थे,तो गोप-गोपियां और जंगल के पशु पक्षी दौड़े चले आते थे। आखिर वह सम्मोहन क्यों नहीं दिखाई पड़ता है?
00 श्री कृष्ण लीलाधारी हैं। उनकी बराबरी करना या सोचना ठीक नहीं है। मै कृष्ण तो हॅू नहीं,केवल कृष्ण का प्रसाद हॅू। आज भी बांसुरी मंे वह सम्मोहन,वह ताकत है, वह कशिश है,जिसे सुनकर लोग बरबस खिंचे चले आते हैं। उसका आकर्षण खत्म हो गया है,ऐसा नहीं कह सकते। हां,यह बात अलग है कि उसे सुनने का अंदाज बदल गया है।
0 आज के संगीत और संगीतकार के संदर्भ में आप क्या कहना चाहेंगे।
00 जहां तक आज के संगीतकारों की बात है,सिर्फ अच्छी धुन बना लेना ही काफी नहीं है। संगीत निर्देशक के भीतर गीत,संगीत दोनों एक साथ बजने चाहिए। एक हिस्सा निकाल दिया जाए,तो श्रोताओं को लगे कि कुछ अधूरा है,कुछ छूट गया है। आजकल शास्त्रीय संगीत के मुकाबले ऐसा पाॅपुलर संगीत ज्यादा चलता है। शास्त्रीय संगीत सुनने के लिए श्रोताओं को मानसिक तैयारी करनी पड़ती है। ‘फोक फार्म’जीवन में ज्यादा घुला मिला है। इसलिए ज्यादा स्वीकृत है। कई बार मंच पर जमने के लिए ‘फोक‘ का ही सहारा लेना पड़ता है।
0 फास्ट फूड और फास्ट लाइफ के दौर में क्या फास्ट संगीत का जीवन में होना जरूरी है?
00 संगीत फास्ट फूड नहीं है। यह दिल से सुना और बजाया जाता है। फास्ट लाइफ में युवा वर्ग किसी चीज को बहुत गहराई से अपनाने के लिए उत्सुक नहीं है। लेकिन शास्त्रीय संगीत के प्रति उनके मन में जिज्ञासा का भाव फिर भी रहता है। यही वजह है कि वे बड़ी संख्या में संगीत सभाओं में जाते हैं। संगीतकार को जमाने के साथ कदम ताल मिलाकर चलना ही पड़ता है। रीमिक्स को मै बुरा नहीं मानता और न फ्यूजन को,बशर्ते वह सही ढंग से किया गया हो।
0 आज फ्यूजन का प्रयोग काफी बढ़ गया है,इससे क्या सगीत की आत्मा जिंदा रहेगी?
00 यदि रीमिक्स और फ्यूजन का प्रयोग समझदारी के साथ हो,तो वह किसी को बुरा नहीं लगेगा। रीमिक्स में इस बात का ध्यान रखा जाए कि जो कुछ उस समय नहीं किया जा सका था,उसका भी इसमें समावेश करके इसे एक नया अयाम दिया जाए,तो भला किसे एतराज होगा? फ्यूजन जन रूचि को ध्यान में रखकर किया जाने वाला एक सहज साधारण प्रयोग मात्र नहीं है। यदि गंभीरता पूर्वक,विवेक के साथ फ्यूजन को अहमियत दी जाए तो,संगीत को समृद्ध बनाने में सहायक सिद्ध होगा। लेकिन फ्यूजन का प्रयोग करने वाले ऐसे कितने संगीतकार है, जिन्हें माइनर काड्र्स के साथ कोमल गंधार वाले रागों की भी समझ है?जमाने के साथ कदम ताल मिला के चलने क लिए ही मैने भारतीय संगीत के साथ पाश्चात्य संगीत का विधिवत अध्ययन किया है।
0 मंच पर आप जब बांसुरी वादन की एकल प्रस्तुति करते हंैं,तो किन बातों का ध्यान रखते हैं?
00 मंच पर एकल बांसुरी वादन के समय स्वरों की मार्मिकता,रागों की प्रकृतिगत शुद्धता,समय,सिद्धांत एवं तालों के लयात्मक गुणों का पूरा ध्यान रखना पड़ता है। लेकिन जब फिल्म,रीमिक्स या फ्यूजन अलबम के लिए संगीत तैयार करना होता है तो,उस विचारधारा का संगीत के जरिए रेखांकित करने का पूरा प्रयास करता हॅू,जो कथानक का विषय होता है।
0 कार्यक्रम प्रस्तुत करते समय क्या कभी एकाग्रता भी भंग हुई है?
00 मुस्कुराते हुए.. । मत पूछिए.. कई बार ऐसे क्षण आते  है। उस समय केवल प्रभु से प्रार्थना और योग साधना काम आती है। कई श्रोता ऐसे भी होते हैं,जो कि बीच में कुछ दूसरा सुनाएं की फरमाइश कर बैठते हैं। ऐसे में बहुत मुश्किल होता है। कलाकार कुछ नई चीज सुनाना चाहता है और श्रोता है कि अपनी बात पर अड़ जाता है। उसकी पसंद का भी ध्यान रखना पड़ता है। माहौल न बिगड़े,इस बात का विशेष ध्यान रखना पड़ता है।
0 तालियों की गड़गड़ाहट के बीच कैसा महसूस करते हैं।
00 तालियों की गड़गड़ाहट ही कलाकार के लिए एक ऐसा नशा है जो,उसके भीतर उत्साह का संचार करता है और जीवन मंे बेहतर करने के लिए उद्वेलित करता है। ये भी सच है कि तालियों की गड़गड़ाहट से किसी भी कलाकार की भूख शांत नहीं होती और न ही उसकी जरूरतें पूरी होती है। बावजूद इसके जीवन में तालियों की गड़गड़ाहट भी जरूरी है।
0 आपने कई फिल्मों में संगीत दिए हैं। क्या कभी व्यावसायिक दबाव के लिए समझौता करने की भी स्थिति आई है।
00 हिन्दी फिल्मों के अतिरिक्त मराठी फिल्मों में भी संगीत दिया है। लेकिन अभी तक तो ऐसी स्थिति नहीं आई कि व्यक्तिगत स्वार्थ के चलते या फिर व्यवसायिकता के चलते किसी तरह का समझौता करना पड़ा है। किसी भाव को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाना मकसद होता है,तो मै इसे एक चुनौती के रूप में काम करता हॅू। आखिर हर व्यक्ति की तरह कलाकार की भी अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है।
0 आप अपनी बात किस तरह प्रमाणित करेंगे?
00 कलाकार को अपनी बात प्रमाणित करने के लिए कोई प्रमाण देना पड़े यह जरूरी नहीं है। इसलिए कि उसका काम ही प्रमाण है। मेरा यह सौभाग्य है कि भारत रत्न पं. रविशंकर और संगीत निर्देशक स्व. आर.डी बर्मन के साथ कई वर्षांे तक काम किया है। मै समझता हॅू कि व्यावसायिकता के बावजूद कोई भी संगीतकार शायद ही समझौता करता होगा। मुगल-ए-आजम का संगीत सुनें,तो आप पाएंगे कि इस फिल्म  का केवल गाना ही नहीं,हर धुन मुगलिया सल्तनत का प्रतिनिधित्व करती सुनाई देती है। इसी तरह सत्यजीत रे की फिल्म ’’पांचाली‘‘ का संगीत फिल्म निर्देशक की सोच को आगे बढ़ाता है। मै समझता हॅू कि किसी भी संगीत निर्देशक की सार्थकता और उसकी सफलता इसी में है कि वह उस फिल्म के निर्माता,निर्देशक,लेखक और कथानक के मर्म को समझते हुए आगे बढ़े और सहयोग करे। केवल कानों को अच्छी लगने वाली धुन बना देने भर से संगीतकार की जवाबदारी पूरी नहीं हो जाती। संगीत ऐसा हो कि सुनने वाले को लगे कि यदि इसके एक सुर को भी इधर से उधर कर दिया जाए तो उसमें मधुरता नहीं हर जाएगी।
0 क्या आपको आने वाली नई पीढ़ी में बांसुरी वादन को आगे बढ़ाने की संभावनाएं नजर आती है?
00 किसी भी कलाकार के बाद कोई भी कला मरती नहीं है। कई कलाकार है,जिनमें अकूत प्रतिभा है और जो अपने साथ बांसुरी को ऊंचाई प्रदान कर सकते हैं। यदि वह ऐसा नहीं करेंगे,तो लोग उन्हें जानेंगे कैसे? रूपक कुलकर्णी,नित्यानंद जी,हल्दीपू,राकेश चौरसिया जैसे कुछ कलाकार हैं,जो बांसुरी पर काम कर रहे हैं,जो कि संभावनाओं से भरे हुए हैं।


Sunday, July 7, 2019

संतुलन साधने की कोशिश


जनता और नौकरशाही के बीच संतुलन साधने के साथ ही दर्जनों चुनौतियां मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के सामने मुंह बाये खड़ी है। आर्थिक संकट से गुजर रही सरकार के समक्ष नक्सल समस्या,बेरोजगारी समस्या,किसानों से धान खरीदी की समस्या,हजारों गांव में बिजली नहीं, मिट्टी तेल का कोटा आधा हो जाने पर उसका हल ढूंढना और केन्द्र में बीजेपी की सरकार के साथ संतुलन भी साधना बड़ी चुनौती है।

0 रमेश कुमार ’’रिपु’’
                    छत्तीसगढ़ के गंावों को स्वालंबी बनाने और सीधे किसानों को कांग्रेस से जोड़ने के लिए मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने अपनी ड्रीम योजना नरवा,गरुवा,घुरवा और बाड़ी योजना को हर गांव तक पहुंचाना चाहते हैं। जबकि पूर्व मुख्यमंत्री डाॅ रमन सिंह ने अपने कार्यकाल में दो छत्तीसगढ़ का निर्माण किये। एक शहरी और दूसरा ग्रामीण। भूपेश बघेल इसके उलट पूरे राज्य का एक सा चेहरा बनाने की दिशा में पूरी प्रशासनिक मशीनरी को लगा दिये हैं। लेकिन चांैकाने वाली बात है कि इनकी ड्रीम योजना को ज्यादातर अधिकारी जानते नहीं हैं। जो जानते हैं वो इसे बकवास कहते हैं। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को लगता है कि उनकी इस योजना से ग्रामीण खुश हो जायेंगे। इससे किसान वोट बैंक कांग्रेस के खाते में बढे़गा। जैसा कि वे कहते है
परिवहन मंत्री मोहम्मद अकबर के गृह जिला कबीरधाम के चार विकासखंडों में 74 गोठान बनाये जाने हैं। लकिन बिरपुर गौठान पहली ही बारिश में ढह गया और डबरी (तालाब नुमा) में तब्दील हो गया। भाजपा किसान मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष पूनम चन्द्राकर कहते हैं,’’ गौठान महज फोटो सेशन के लिए किसी फिल्मी सेट की मानिंद तैयार किया गया था। जो गौठान वहां बनाया गया था, उसमें गायों के लिए कोई शेड नहीं था। बारिश का पानी भर जाने की वजह से गायेें भाग गईं। नरवा,गरुवा,घुरवा, और बाड़ी के नारे की यह सच्चाई सरकार की विफलता की परिचायक है’’। जाहिर है ऐसे में न तो गांव स्वालंबी बन सकेंगे और न ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था बेहतर हो सकेगी।
छह माह की भूपेश सरकार के समक्ष जनता को खुश करने की चुनौती है। इसलिए कि छह माह में तीन माह लोकसभा चुनाव की तैयारी में निकल गये। तीन माह में सरकार ने कांग्रेस के घोंषणा पत्र के कुछ वायदों को पूरा किया है। लेकिन अब भी कई वायदे अधर में है। 17 जून को भूपेश बघेल ने अपनी सरकार के काम काज का ब्यौरा इस तरह पेश किया, जैसे सरकार का कार्यकाल खत्म हो गया है। मीडिया के समक्ष अपने काम काज का बही खाता इस तरह पेश किया मानो जनता को याद दिलाने के लिए कि सरकार ने ये काम किये। विधान सभा चुनाव में वायदा किये थे कि कांग्रेस की सरकार बनी तो किसानों के ऋण माफ किये जायेंगे। लोकसभा चुनाव सामने था, जनता के बीच भरोसा कायम करने के लिए आधे किसानों का ऋण माफ किया। चूंकि वायदा पूरा नहंीं निभाया, इसलिए कांग्रेस बहुत अधिक भाजपा का नुकसान नहीं कर पाई।
शराब बंदी गले की हड्डी
राज्य में शराब बंदी सरकार के गले की फांस बन गई है। क्यों कि कांग्रेस के घोषणा पत्र में राज्य की करीब 96 लाख महिला मतदाताओं से शराब बंदी का वायदा किया गया था। सरकार की चुप्पी से जाहिर है कि शराब बंदी केवल वोटों की राजनीति से प्रेरित थी। यह एक ऐसा मामला है जिसे रमन सरकार भी हाथ लगाने से बचती रही। विधान सभा चुनाव करीब था, और जब रमन सरकार ने खुद शराब बेचने का फैसला किया तो, भूपेश बघेल को सियासी मुद्दा मिल गया। उन्होंने रमन सरकार के फैसले की तीखी आलोचना करते हुए शराब नीति पर सवाल खडे़ किए। इतना ही नही उन्होंने आरएसएस प्रमुख को पत्र लिख कर रमन सरकार को घेरने की कोशिश की। अब शराब बंदी को लेकर हर जिले में स्कूली बच्चों से लेकर महिलायें प्रदर्शन कर रही हैं। 4700 करोड़ रूपये का राजस्व का लक्ष्य तय करने वाली सरकार, नहीं लगता है कि राज्य में पूर्ण शराब बंदी पर मोहर लगा देगी। हालांकि सरकार ने इस पर विचार करने विधायक सत्यनारायण शर्मा की अध्यक्षता में एक कमेटी   गठित की है। लेकिन यह कमेटी भी इस दिशा में कुछ कर पायेगी, ऐसा नहीं लगता। चुनाव से पहले मुख्यमंत्री बघेल कहे थे कि पहले प्रदेश में दूध की नदियाँ बहनी चाहिए फिर शराब की बिक्री बंद होगी। उसी का नतीजा था कि कांग्रेस को 90 में 68 सीटें मिली।
अफसरशाही पर नकेल नहीं
डाॅ रमन सिंह की सरकार पर आरोप लगते रहें हैं कि नौकरशाही के शिकंजे में हैं। कांग्रेस की सरकार बनने से पहले तक बस्तर के पूर्व आईजी एस.आर. कल्लूरी भूपेश की आंखों की किरकिरी थे, लेकिन,एस आर कल्लूरी की ईओडब्लयू में पदस्थापना पर सरकार की बड़ी आलोचना हुई। कुछ दिनों बाद थोक में तबादले ने कई सवाल खड़े कर दिये। उनकी पारदर्शिता पर उंगलियां उठी। कई जिला कलेक्टरों को नई पदस्थापना के हफ्ते दो हफ्ते में पुनः नई पदस्थापना के आदेश दिये गये। राजधानी रायपुर में एस.पी. नीतू कमल पन्द्रह दिन नहीं रह पाई, उन्हें हटा दिया गया। जाहिर है कि सरकार खुद तय नहीं कर पा रही है कि नौकरशाही से कैसे काम लिया जायेगा। नौकरशाही पर नकेल लगाने में आशंकित है। अफरशाही और सरकार के बीच संतुलन बिठाकर काम करना भूपेश सरकार के लिए चुनौती है। फोन टैपिंग मामले में गंभीर आरोपों का सामना कर रहे आईपीएस मुकेश गुप्ता के मामले को लेकर सरकार उहापोह की स्थिति में है। अंतागढ़ का कांटा सरकार के पैरों मंे चुभा है,लेकिन कैसे निकलेगा सरकार भी नहीं जानती। भूपेश सरकार ने डीजीपी ए. एन. उपाध्याय को हटाकर डी.एम अवस्थी को डीजीपी बनाया तो पूर्व मुख्यमंत्री डाॅ. रमन सिंह ने एतराज किया। उन्होंने कहा इस सरकार ने डी.जी को पटवारी समझ लिया है। जब चाहे हटा दें। डीजीपी की नियुक्ति में सुप्रीम कोर्ट कीे गाइडलाइन का पालन नहीं किया गया। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट के स्पष्ट निर्देश हैं कि नई सरकार चीफ सिकरेट्री को बदल सकती है। मगर डीजीपी को नहीं। डीजीपी अगर बदलना भी है तो यूपीएससी को पहले पेनल भेजना होगा।
चर्चा में पहला जन चैपाल
सरकार बनने के बाद सी.एम भूपेश बघेल ने मुख्यमंत्री निवास में पहला जन चैपाल रखा। जिसमें प्रदेश भर से लोग अपनी समस्याओं को लेकर पहुंचे थे। लेकिन सीएम हाउस में दाखिल होने से पहले ही उनका गमछा,दुपट्टा और पगड़ी उतरवा लिया गया। कांग्रेस ने इस गलती के लिए सुरक्षाकर्मियों को जिम्मेदार ठहराया। भाजपा प्रवक्ता संजय श्रीवास्तव ने कहा कि गमछा,दुपट्टा और पगड़ी तो छत्तीसगढ़ के लोकजीवन में आत्मसम्मान के प्रतीक हैं। छत्तीसगढ़ के सम्मान की डींगे हांकने वाले मुख्यमंत्री ने अपने जन चैपाल कार्यक्रम में इसी सम्मान के साथ घिनौना खिलावाड़ सुरक्षा के नाम पर होने दिया जो मुख्यमंत्री के दोहरे राजनीतिक मापदंडों का परिचायक है।
सरकार के समक्ष चुनौती
प्रदेश सरकार के समक्ष घोषणा पत्र में किये गये वायदों को पूरा करने में आर्थिक संकट सबसे बड़ा रोड़ा है। वहीं कुछ ऐसे भी मामले हैं जो डाॅ रमन सिंह की घोषणा की वजह से सरकार के लिए कंटक है। मसलन डाॅ रमन सिंह ने चुनाव जीतने के लिए शिक्षाकर्मियो की हड़ताल को देखते हुए उनके वेतन में जबरदस्त बढ़ोतरी की घोंषणा की थी। जाहिर सी बात है कि दो साल के धान का बोनस और शिक्षाकर्मियों का वेतन,धान खरीदी की मूल्य और किसानों के कर्ज माफी को जोड़ दिया जाये तो सरकार का बजट बिगड़ जाता है। धान बेचने वाले किसानों से अब तक 11 अरब 63 करोड़ 21 लाख रुपए से अधिक का धान खरीदा जा चुका है। यही राशि किसानों को अब वापस की जानी है। इसके बाद भी अभी किसानों से सहकारी बैंकों को 285 करोड़ रुपए वसूलना शेष है। छत्तीसगढ़ के बजट में 2018-19 में 83,000 करोड़ रूपये की कुल आमदनी आंकी गई थी,जिसमें 32,000 करोड़ रूपये विभिन्न मदों से राजस्व आने हैं। वहीं आर्थिक संकट से गुजर रही भूपेश सरकार के समक्ष नक्सल उन्मूलन हेतु राज्य में तैनात केन्द्रीय सुरक्षा बलों पर होने वाले खर्च के 6400 करोड़ रूपये का भुगतान गले की हड्डी बन गया है। केन्द्र सरकार ने मिट्टी तेल का कोटा घटा दिया। प्रदेश के 4 हजार गांवों में बिजली नहीं है। मनरेगा में काम नहीं मिलने की वजह से हर साल लाखों की संख्या में प्रदेश से लोग रोजगार की तालाश में पलायन करते हंै। रोजगार नहीं मिलने पर पलायन सबसे बड़ी समस्या है। ऐसा रास्ता ढूंढना होगा ताकि पलायन रूक सके। प्रदेश में 26 लाख शिक्षित बेरोजगार हैं। कंाग्रेस ने अपने घोषणा पत्र के अनुसार सभी को ढाई हजार रूपये पेंशन हर माह देगी। जबकि सरकार के पास इसके लिए अभी अलग से बजट नहीं है। आम जनता का कहना है कि यह समस्या का स्थायी हल नहीं है। बल्कि रोजगार की व्यवस्था करना चाहिए। रमन सरकार ने 2022 तक नक्सलवाद खत्म की बात किये थे। लेकिन अब कांग्रेस की सरकार बनने के बाद सवाल यह है कि प्रदेश में 18 जिले कब नक्सल समस्या से मुक्त होंगे। इसे दूर करने के लिए सरकार को नक्सली नेताओं से बातचीत के लिए पहल करनी होगी। केवल बातचीत के रास्ते खुले हैं, कहने से समस्या का हल नहीं होगा।
कर्ज से लदी सरकार
कई जिलों को पीने का पानी मुहैया कराना,बेरोेजगारों को बेरोजगारी भत्ता देने के अलावा नौकरी की व्यवस्था करना भी सरकार के सामने चुनौती है। इसके अलावा पार्टी के अंदर की चुनौती से निपटना सबसे बड़ी समस्या है। सरकार ने राज्य के किसानों का 6100 करोड़ का कर्ज माफ किया है। अब कर्ज माफी की इस रकम को चुकाने के लिए सरकार को रिजर्व बैंक से कर्ज लेना पड़ रहा है। कर्ज की इस रकम को चुकाने के लिए राज्य सरकार अपनी प्रतिभूतियों की नीलामी कर रही है। नवगठित कैबिनेट की पहली बैठक में सरकारी काम,काज में खर्च को कम करने संबंधि प्रस्ताव पास किया गया है। तीन माह में सरकार दो बार कर्ज ले चुकी है। सरकार ने एक हजार करोड़ का कर्ज रिजर्व बैंक से दूसरी बार ली। अनुपूरक बजट मिलाकर राज्य का बजट कुल 1 लाख,5 हजार 170 करोड़ का हो गया है। दूसरी ओर कांग्रेस के घोंषणा पत्र में 2500 रूपये प्रति क्ंिवटल धान खरीदने की बात कही थी। जिसे केन्द्र सरकार ने मना कर दिया है। मुख्यमंत्री ने इस संदर्भ में प्रधान मंत्री को पत्र लिखे हैं। यदि स्वीकृति नहीं मिली तो भूपेश सरकार के सामने विषम स्थिति निर्मित हो सकती है।








,’ गौठान, घुरूवा और बाड़ी हमारे पुरखों की परम्परा रही हैं। गोठानों से पशुओं की नस्ल सुधार, जैविक खेती के साथ गांव समृद्ध बनेंगे। गायों के नस्ल सुधार के साथ ही किसानों और समूह की महिलाओं की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ करने में महत्वपूर्ण साबित होंगे’’। लेकिन विपक्ष का दावा है कि सरकार का यह गोठान  भ्रष्टाचार की नई कहानी लिखने लगा है।

Wednesday, July 3, 2019

अब भी नक्सल राज

     लाखों रूपयों के इनामी नक्सली मारे जा रहे हैं या फिर सरेंडर कर रहे हैं। दूसरी ओर राजनीतिक व्यक्तियों की हत्या कर माओवादी सरकार के सामने चुनौती खड़ी कर रहे हैं। नक्सलियों के लिए कोई फर्क नहीं पड़ा प्रदेश में भाजपा की सरकार हो या फिर कांग्रेस की। उनकी सलतनत अब भी कायम है।










0 रमेश कुमार ‘‘रिपु’’
                        नक्सलियों की सलतनत अब भी कायम है। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता राज्य में भाजपा की सरकार हो या फिर कांग्रेस की। लोकसभा चुनाव के दौरान दंतेवाड़ा के भाजपा विधायक भीमा मंडावी चुनाव प्रचार से वापस लौट रहे थे और नक्सलियों ने बारूदी विस्फोट कर 9 अप्रैल को उनकी हत्या कर दी थी। राज्य में नक्सली राजनीतिक व्यक्तियों को टारगेट कर के चल रहे हैं। इसी कड़ी में विधान सभा में सपा प्रत्याशी संतोष पुनेम को माओवादियों ने अपहरण कर   धारदार हथियार से 19 जून को इलमिडी थाना क्षेत्र के मरिमल्ला गांव के पास उनकी हत्या कर दी। संतोष पुनम ठेकेदरी के चलते नक्सलियों के निशाने पर थे। मृतक संतोष पुनम का शव लेने उनकी पत्नी और भाई गये तो नक्सलियों ने उन्हें बैरंग लौटा दिया और शव को मरिमल्ला गांव के पास फेंक दिया। नक्सली आतंक का सिलसिला यहीं नहीं थमा। नक्सलियों ने सड़क निर्माण कार्य में लगे 4 वाहन डोजर, जेसीबी, ट्रेक्टर और बोलेरो को आग के हवाले कर दिया। नक्सलियों की यह वारदात कर एक बार फिर पुलिस की सफलता पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।
पीछे हटे नहीं हैं नक्सली
नक्सली अभी तक आम ग्रामीणों को पुलिस का मुखबिर बताकर हत्या करते आये हैं। लेकिन अब पुलिस कर्मी भी उनके निशाने पर हैं। 23 जून को अपने परिवार के साथ मिरतुर निवासी सहायक आरक्षक चैतु कड़की सब्जी खरीदने आया था। नक्सलियों ने उस पर चाकू से प्राण घातक हमला किया। दिया। अस्पताल लाते वक्त रास्ते में ही उसकी मौत हो गई। ऐसी वारदातों से जाहिर है कि माओवादियों में अब कानून का डर नहीं रही गया है। लेकिन बीजापुर एसप.पी. दिव्यांग पटेल मानते है,’’ नक्सलियों के पैर उखड़ रहे हैं। वे पहले से कमजोर हुए हैं। हताशा में ऐसी वारदातें कर अपने होने का एहसास करा रहे हैं। बारिश में नक्सली घने जंगलांे में या फिर कहीं और छिप जाते है। लेकिन पुलिस की सर्चिग पूरे बारिश के महीने में चलती रहती है। बस्तर में नक्सलवाद अब अंतिम पड़ाव में है’’। नक्सली वारदातों में कमी आई है। लेकिन नक्सली पीछे हटे नहीं है। नक्सल प्रभावित जिला कोंडागांव में पिछले छह सालों के आंकड़े बताते हैं कि 332 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया। पांच दर्जन से अधिक नक्सली सबसे छोटा जिला नारायणपुर में सरेंडर किये। जिसमें 40 नक्सलियों को आरक्षक एवं अन्य पदों में नियुक्त किया गया। आठ लाख का इनामी नक्सली नक्सलवाद से नाता तोड़कर इन दिनो पर्यावारण के लिए काम कर रहा है। हजारों नक्सली समाज की मुख्यधारा से जुड़ गये हैं। बावजूद इसके नक्सलियों की आड़ में आदिवासी महिलाओं के साथ पुलिस के घिनौने वारदात के चलते बस्तर में नक्सलवाद खत्म नहीं हो रहा है। जल,जंगल और जमीन की लड़ाई इसे हवा दे रही है। ऐसी धारणा है यहां की।
13 लाख का इनामी नक्सली 
दरअसल नक्सलियों की समानांतर सरकार के चलते आम आदमियों की सांसे दहशतजदा है। पुलिस लगतार नक्सलियों पर हमला कर रही है। जून महीने के प्रथम सप्ताह पुलिस ने चार नक्सलियों को मार गिराया। पुलिस के दबाव में बीजापुर जिले के मिरतुर थाना इलाके में लंबे समय से आतंक का पर्याय बना 13 लाख का इनामी ओड़िशा राज्य के कालाहांडी में सेंट्रल कमेटी सुरक्षा प्लाटून नंबर.3 का कमांडर गुड्डू उर्फ सुरेश,जनमिलिशिया कमांडर दिलीप पुनेम समेत 4 नक्सलियों ने 19 जून को   दंतेवाड़ा एसपी डॉ अभिषेक पल्लव के सामने सरेंडर किया। नक्सली गुड्डू पर ओड़िशा सरकार ने 8 लाख और छत्तीसगढ़ सरकार ने 5 लाख का इनाम घोषित किया था। वहीं जनमिलिशिया कमांडर दिलीप पर एक लाख का इनाम था। दिलीप पुनेम भांसी क्षेत्र में सक्रिय था। हत्या रेलवे पटरी उखाड़ने जैसी घटनाओं में शामिल रहा है। गुड्डू बीजापुर जिले मंे 13 पुलिस जवानों की हत्या में भी शामिल था। 22 वाहनों में आगजनी एटपाल में एंबुश लगाकर पुलिस पार्टी पर हमला करने की घटना में शामिल था।
माओवादियों की बड़ी टीम
देखा जाए तो राज्य के 27 जिलों में 18 जिले नक्सली प्रभावित जिले है। अभी इन जिलों में नक्सली गतिविधियां तेज है, दंतेवाड़ा, कांकेर, बस्तर,बीजापुर, नारायणपुर ,राजनांदगांव, सरगुजा, जशपुर, कोरिया, धमतरी, महासमुंद, बालोद, कबीराम, रायगढ़ ,बलौदाबाजार, गरियाबदं, सूरजपुर और बलरामपुर। सरगुजा 2010 में नक्सल मुक्त घोषित किया गया था। लेकिन एक बार फिर से नक्सलियों की मूवमेंट ने सरकार को हैरानी में डाल दिया है। पुलिस अफसरों का कहना है कि लेवी वसूली और उगाही की शिकायतें मिलती है। अभी तक नक्सली झारखंड में वारदात करने के बाद यहां आ जाते थे, कुछ दिनों बाद चले जाते थे। लेकिन इस बीच देखा जा रहा है कि उनका मूवमेंट बढ़ रहा है। ऐसा माना जा रहा है कि पड़ोसी राज्यों में नक्सलियों की उपस्थिति की वजह से छत्तीसगढ़ के कई जिले उनके रडार में है। रायगढ़ में नक्सली नहीं हैं,लेकिन नक्सली अब लाल आतंक के कॉरिडोर का विस्तार करने में लग गए है। ज्यादातर वारदातें बस्तर के सातों जिलों में होती है। लेकिन नक्सलियों ने सरकार और फोर्स का ध्यान बांटने के लिए अब छोटे जिलों में वारदातों को अंजाम दे रहे हैं।
आठ लाख की इनामी थी सीमा
18 जून को धमतरी-कांकेर सीमा से लगे कट्टी गांव में एक अन्य घटना में आठ लाख की हार्ड कोर महिला नक्सली सीतानदी दलम कमांडर सीमा मंडावी को पुलिस ने मुठभेड़ में मार गिराया। पिछले दस सालों से इसका आतंक था। महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले की रहने वाली सीमा उर्फ जरीना मंडावी उम्र 45 वर्ष 2005 में माड़ इलाके में नक्सली संगठन में काम कर रही थी। माड़ के कुतुल इलाके में सक्रिय सीमा के काम को देखते नक्सलियों ने उसे महिला एलजीएस का सेक्रेटरी बनाया था। इसी दौरान सीमा का माड़ इलाके में काम कर रहे राज्य कमेटी सदस्य पुसु से प्रेम प्रसंग हो गया था। उसके खराब चाल चलन की बात भी नक्सली संगठन में जोर पकड़ने लगी थी। इसलिए 2008 में डीवीसी रैंक से डिमोशन कर उसे मैनपुर एरिया कमेटी सदस्य बना दिया गया। 2014 में छिंदखड़क स्कूल के चपरासी पर पुलिस मुखबिर होने का आरोप लगाकर की थी हत्या। 2017 में रावस सरपंच के पुत्र का अपहरण कर उसकी भी हत्या करने में शामिल रही।
नक्सल संगठन की खुलेगी पोल 
जगदलपुर,महाराष्ट्र और तेलंगाना की पुलिस ने संयुक्त ऑपरेशन के तहत 70 लाख के इनामी नक्सली नर्मदा और उसके पति किरण को गिरफ्तार किया है। इनकी गिरफ्तारी से नक्सल संगठन को एक बड़ा आघात पंहुचा है। जिसके पीछे की वजह बताई जा रही है कि नर्मदा नक्सलियों के दंडकारण्य जोन के चप्पे.चप्पे से वाकिफ है। दंडकारण्य और गढ़चिरौली के क्षेत्र में होने वाली बड़ी नक्सल घटनाओं में तैयार की जाने वाली रणनीति में इसकी अहम भूमिका रहती थी। बस्तर के डीआईजी सुंदरराज पी ने बताया कि छत्तीसगढ़ पुलिस भी पूछताछ के लिए एस.पी स्तर के अधिकारियों की टीम गठित कर महाराष्ट्र भेजेगी। जिससे उन्हें उम्मीद है कि दोनों ही बड़े नक्सलियों से कुछ अहम सुराग हाथ लग सकते हैं। नर्मदा डीकेएफजेडसी की भी सदस्य है और उसके पति किरण नक्सलियों की प्रचलित पत्रिका प्रभात के लिए लंबे समय से लिखता रहा है। जिससे पुलिस अधिकारियों को उम्मीद है कि इन दोनों के पास से छत्तीसगढ़ के नक्सल संगठन की अहम जानकारियां हो सकती हैं।
नक्सली सिस्टम में शहरी
एक तरफ नक्सलियों की सलतनत पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा है प्रदेश में किसी की भी सरकार आये या जाये। दूसरी ओर शहरी नक्सली और जंगली नक्सली को लेकर सियासी बहस ने कई सवाल खड़े कर दिये हैं। जैसा कि मुख्य मंत्री भूपेश बघेल ने बीजेपी के संकल्प पत्र में सिस्टम में शहरी नक्सली घुसने के आरोपों पर कहा कि यदि वो आज हैं तो रमन सिंह को उनके नाम सार्वजनिक करना चाहिए और प्रमाणित करना चाहिए। उन्होंने रमन सिंह से पूछा कि जब शहरी, नक्सली सिस्टम में घुसा तो 15 साल तक क्या कर रहे थे। यदि उन्हें मालूम था तो क्या कार्रवाई की। रमन सिंह पर हमला करते हुए भूपेश बघेल ने कहा कि जिस अधिकारी वी.के चैबे ने शहरी नक्सलियों के नेटवर्क को तोड़ा उसकी मौत की जांच रमन सिंह की सरकार ने नहीं कराई। इस घटना में 29 जवान शहीद हो गए और अधिकारी को गालंट्री एवार्ड दे दिया गया। भाजपा की ऐसी कार्यशैली हो सकती है लेकिन कांग्रेस की नहीं।
जाहिर है कि नक्सलियों की बढ़ती वारदातें और कुछ इनामी नक्सलियों के सरेंडर कर देने से नक्सलवाद खत्म नहीं होगा। माओवादियों के खिलाफ नरम उपाय के बजाय दोतरफा आक्रमण की रणनीति को अंजाम देना होगा। ऐसे कदम उठाए जाएं ताकि नक्सली हिंसा का सफाया किया जा सके।



स्काई वाॅक पर राजनीति

  
डाॅ रमन सिंह की स्काई वाॅक योजना को सरकार भ्रष्टाचार का स्मारक बताते हुए इसे जमीं दोज करने जा रही है। सवाल यह है कि डेढ़ किलोमीटर के स्काई वाॅक को नष्ट कर देने से सरकार और जनता को मिलेगा क्या?


0 रमेश कुमार ’’रिपु‘‘
            मुख्यमंत्री भूपेश बघेल एक बार फिर विपक्ष की नजर में किरकिरी बने हुए हैं। वजह यह है कि करीब पचास करोड़ की लगात से बन रहे स्काई वाॅक को मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने तोड़ने के संकेत दे दिये हैं। वैसे भी स्काईवाॅक परियोजना को जब तत्कालीन मुख्यमंत्री डाॅ रमन सिंह हरी झंडी दिखाये थे, उस दौरान प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस सहित कई सामजिक कार्यकत्र्ताओं ने इसके विरोध में धरना और प्रदर्शन किया था। लेकिन तात्कालीन मुख्यमंत्री रमन सिंह एवं लोकनिर्माण मंत्री राजेश मूणत ने किसी की भी मांगें नहीं मानी थी। स्काई वाॅक योजना के पीछे मंशा यह थी कि इससे पैदल चलने वाले यात्रियों को सुविधा होगी और ट्रैफिक दबाव कम होगा। निर्माण कार्य सतत जारी रहा। इस परियोजना को दिसंबर 2018 तक पूरा करना था। इस परियोजना का ठेका एक्सप्रेस वे लिमिटेड लखनऊ स्थित कंपनी को दिया गया है। प्रदेश में सरकार बदली तो एक बार फिर स्काई वाॅक का मुद्दा गरमाया। सामाजिक कार्यकर्ताओं ने मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के समक्ष स्काई वाॅक की बात रखी और उन्होंने उनकी मांगी मान ली। मेकाहारा चैक से शास्त्री चैक होते हुए जय स्तंभ चैक तक बन रहे डेढ़ किलोमीटर लंबे स्काई वॉक को तोड़कर जमींदोज करने का निर्णय लिया गया है।
स्काई वाॅक के तोड़े जाने के निर्णय को भाजपा बदलापुर की राजनीति करार दे रही है। तत्कालीन लोकनिर्माण मंत्री राजेश मूणत कहते हैं,यह हमारी सरकार का ड्रीम प्रोजेक्ट है। यदि इसे तोड़ा जायेगा तो पार्टी शांत नहीं बैठेगी। नयी सरकर पूर्व सरकार के काम काज पर बदले की भावना से ऊंगली उठा रही है। काम काज का यह तरीका जायज नहीं है’’। सवाल यह है कि इसकी उपयोगिता भविष्य में होगी कि नहीं, इस पर सरकार को आम लोगों की राय शुमारी लेनी चाहिए। महापौर प्रमोद दुबे आम लोगों से बातचीत कर उनका पक्ष जानने का प्रयास कर रहे हैं। भाजपा के प्रवक्ता एवं एनआरडीए के पूर्व चेयरमैन संजय श्रीवास्तव कहते हैं,उनकी राय शुमारी पर भरोसा नहीं किया जा सकता। वो सरकार के पक्ष की ही बात करेंगे और उसी के अनुसार ही काम करेंगे। कांग्रेस की सरकार बदले की भावना से कार्य कर रही है। डॉक्टर रमन सिंह की सरकार ने शहर में पैदल यात्रा करने वालों की सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए,इस महत्वाकांक्षी योजना की नींव रखी थी। उसे तोड़ना न केवल सरकारी धन की बर्बादी है,बल्कि इससे पदयात्रियों को शहर में मिलने सुविधाएं भी नहीं मिल सकेंगी’’।
सोशल मीडिया में बहस
आरटीआई एक्टिविस्ट और सामाजिक कार्यकर्ता कुणाल शुक्ला ने इसे जनहित की लड़ाई मानते हैं।   जिस इलाके में इसका निर्माण करवाया जा रहा था, वह पहले से शहर का सबसे अधिक भीड़भाड़ और भारी ट्रैफिक दवाब वाला क्षेत्र है। स्काई वॉक सरकारी धन की फिजूल खर्ची थी। इससे शहर की सुन्दरता खराब हो रही है’’। गौरतलब है कि 2018 विधानसभा चुनाव में भाजपा की करारी हार के बाद मुख्यमंत्री बनने पर भूपेश बघेल ने स्काई वाॅक के निर्माण पर रोक लगाते हुए कहा था कि जनता की रायशुमारी के बाद इस दिशा में ठोस निर्णय लिया जायेगा। स्काईवॉक के तोड़ने की घोषणा होते ही सोशल मीडिया में एक बहस शुरू हो गई है कि इसका क्या किया जाये। बहुत लोग इसके पूर्ण निर्माण के पक्ष में है और कुछ सरकार के निर्णय को सही ठहरा रहे हैं।
तोड़ने पर दस करोड़ लगेंगे
भाजपा और कांग्रेस इस मुद्दे पर आमने सामने आ गए हैं। भाजपा शुरूआत से ही भूपेश बघेल पर बदलापुर की राजनीति करने का आरोप लगा रही है। स्काई वाॅक का लगभग 65 प्रतिशत निर्माण हो गया है। ऐसी स्थिति में इसे यदि तोड़ा जाता है तो करोड़ों का नुकसान होगा। भारतीय जनता युवा मोर्चा के प्रदेश कार्यसमिति सदस्य विजय जयसिंघानी कहते हैं इसे तोड़ने में करीब दस करोड़ का खर्चा आयेगा। जैसा कि सरकार का कहना है कि पैदल चलने वालों के लिए यह उपयोगी नहीं है तो इसे फुटकर बाजार के रूप में भी उपयोग लाया जा सकता है। राय शुमारी यदि इसके तोड़े जाने में पक्ष में है तभी इसे तोड़ा जाय। साहित्यकार गिरीश पंकज कहते हैं, इसे स्काई बाजार बना दिया जाय। मालवीय रोड पर बैठने वाले दुकानदार यहाँ दुकान सजाएं। कपड़ा, फल, चश्मा, पर्स, खिलौने सब यहाँ बिके। व्यापारी अरूण शुक्ला कहते हैं,इसे तोड़कर ओवरब्रिज बनाना या अंडर वे बनाना सर्वोत्तम विकल्प है। 
भ्रष्टाचार का स्मारक हैः शुक्ला
प्रदेश कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता सुशील आनंद शुक्ला ने कहा कि स्काई वाॅक भारतीय जनता पार्टी के बेलगाम कमीशनखोर अदूरदर्शी विकास का परिणाम है। राजधानी रायपुर के सीने पर स्काई वॉक ऐसा नासूर बन चुका है, जिसका निदान बिना बड़ी शल्य क्रिया के सम्भव नहीं है। रमन सरकार के भ्रष्टाचार का बड़ा स्मारक है स्काई वाॅक कहें तो गलत नहीं होगा। बताया गया था कि इसके निर्माण से जनसामान्य को पैदल चलने में आसानी होगी। लेकिन इस स्काई वॅाक ने अम्बेडकर अस्पताल से लेकर पुराने बस स्टैंड तक की सड़क के दोनों छोर की दूरियांे को भी बढ़ा दिया है। सड़क के इस पार से उस पार भी पैदल चलने वाले नहीं जा सकते। स्काई वाॅक के नीचे पांच फी गड्ढे वाला और तीन फीट ऊंचा डिवाइडर बना दिया गया है। स्काई वाॅक पर चढ़ने के लिए बीस से पच्चीस फिट ऊंची सीढ़ी पर चढ़ना पड़ेगा। जो कि बुजुर्गो के लिए कष्टदायी होगा। स्काई वाॅक के कारण सड़क की चैड़ाई भी कम हो गयी। कायदे से अदूरदर्शीपूर्वक स्काई वाॅक का निर्माण कर जनता के पैसे की बर्बादी और परेशान करने के लिए पूर्व मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह एवं पूर्व लोक निर्माण मंत्री राजेश मूणत को अपनी गलती स्वीकार कर रायपुर की जनता से माफी मांगनी चाहिए।
 जिम्मेदारों से हो वसूलीः डॉ गुप्ता
आरटीआई एक्टिविस्ट डॉ राकेश गुप्ता ने कहा कि इसको बनाने में जिन जिन लोगों ने इसका प्रस्ताव दिया। निरीक्षण किया और वे तमाम लोग जिनके हस्ताक्षर इस प्रोजेक्ट पर मौजूद हैं। उन सभी से इसकी भरपाई होनी चहिए। इसके अलावा उनके विरुध्द अपराधिक प्रकरण भी दर्ज किया जाना चाहिए। भाजपा को तो खुश होना चाहिए कि उसकी सरकार की गलती को मुख्यमंत्री सुधार रहे हैं।
निर्णय स्वागत योग्यःविकास उपाध्याय
पश्चिम विधानसभा रायपुर के विधायक विकास उपाध्याय ने कहा कि पूर्व लोक निर्माण मंत्री राजेश मूणत की हठधर्मिता की स्मारक के रूप में स्काई वॉक खड़ी हुई है। जनता स्काई वॉक निर्माण के समय से लेकर अब तक इसका विरोध कर रही है। राजधानी में स्काई वॉक की कोई उपयोगिता नहीं है। जिस स्थान पर स्काई वॉक बनाया गया है असल में वहां फ्लाईओवर ही बनना था, जो ट्रैफिक समस्या को निजात दिलाता। 
स्काई वाॅक को बहुउपयोगी बनायें
स्काई वाॅक सत्ता पक्ष की नजरों में जायज नहीं है। सवाल यह है कि पैदल चलने वाले इसे कैसे स्वीकार करें। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि स्काई वाॅक के निमार्ण से पहले भविष्य में इसकी उपयोगिता किस तरह हो सकती है, भावी उपयोगकर्ताओं से परामर्श लेना चाहिए था। प्रथम प्रवक्ता आम लोगों ने अपनी राय साझा की। उनके अनुसार पैदल यात्रियों को मेट्रो या ओवरब्रिज का उपयोग नहीं करने के लिए जाना जाता है। क्योंकि उन्हें सीढ़ियों पर बातचीत करने के लिए अतिरिक्त प्रयास करना पड़ता है। इसलिए चढ़ाई या नीचे आने के लिए एस्केलेटर जरूरी है। यह समझा जाता है कि कुछ एस्केलेटर योजना का एक हिस्सा हैं,लेकिन ये बहुत ही अपर्याप्त होंगे। उनकी संख्या बढ़ानी होगी। पैदल चलने वाले लोग सड़क के दोनों ओर स्थित दुकानों,और अन्य कार्य स्थलों पर जाने के लिए बाजार में आते हैं। वे दुकान आदि के लिए निकटतम मार्ग लेने वाले स्काईवॉक का उपयोग करने के बजाय सड़क पर चलना चाहेंगे। यह आवश्यक है कि प्रत्येक 150-200 मीटर पर दोनों तरफ एस्केलेटर की व्यवस्था की जाए ताकि, उन्हें स्काईवॉक पर आकर्षित किया जा सके। स्काई वाॅक से यह होगा कि कहीं भी सड़क पार करने की आदत को हर जगह खत्म कर देगा, जैसा कि वे वर्तमान पैदल यात्री कर कर रहे हैं। यदि इसे नहीं तोड़ना है तो फिर क्रासिंग पैदल यात्री को मुक्त बनाने के लिए रोड क्रॉसिंग सिग्नल के दोनों ओर एस्केलेटर होना चाहिए। हमें स्काईवॉक के उपयोगकर्ताओं से दूरियां चलने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। इसलिए स्काईवॉक पर चलती बेल्ट प्रदान करना अनिवार्य है। क्योंकि हमने उन्हें बैंकॉक और दिल्ली हवाई अड्डे के टी 3 टर्मिनल सहित विभिन्न हवाई अड्डों पर देखा है। इसे मूविंग वॉकवे, ऑटोवॉक, ट्रैवलेटर या ट्रैवलर कहा जाता है। यह एक धीमी गति से चलने वाला कन्वेयर तंत्र है। ये अक्सर जोड़े में स्थापित होते हैं। दोनों दिशाओ के लिए एक।स्काईवॉक को खारिज करना एक वांछनीय विकल्प नहीं है। यह सार्वजनिक निधियों का परिहार्य अपव्यय है। जाहिर है कि सुझाई गई सुविधा को पूरा करने में अतिरिक्त खर्च आयेगा साथ ही एक लम्बा रास्ता भी तय करना होगा। सड़ाकों को पैदल यात्री रहित बनाना होगा। स्काई वाॅक तोड़ने की बजाय इसे बहुउपयोगी बनाया जाये।
बहरहाल स्काई वाॅक दो सियासी दलों की दांतों के बीच फंस गया है। कांग्रेस इसे तोड़ कर अपनी ताकत की हैसियत का परिचय देना चाहती है और भाजपा इसे बचाकर बताना चाहती है कि उसका निर्णय सही था। कायदे से सरकार और विपक्ष को इसे राजनीतिक मुद्दा नहीं बनाना चाहिए,इसलिए कि दोनों परिस्थितियों में दांव पर जनता का पैसा लगा है।