Thursday, June 13, 2019

राख में दबी प्रदूषण की चिंगारी

      

 राख में दबी प्रदूषण की चिंगारी

  छत्तीसगढ़ में काला सोना की अधिकता के चलते बिजली सयंत्रों की बाढ़ आ गई है। बिजली घरों से हर साल दो करोड़ सात लाख मीट्रिक टन राखड़ निकलती है। 30 फीसदी भी इसका इस्तेमाल नहीं होता। निर्देशों के बावजूद फ्लाई ऐश के निबटान की कोई योजना नहीं है। जबकि इस प्रदूषण से टी.बी,अस्थमा,दमा जैसी गंभीर बीमारियों से जिन्दगी राख हो रही हैं। पाॅवर हब के चलते जिन्दगी के ढेर पर आ बैठी है। 
 0 रमेश कुमार ‘‘रिपु‘‘
                      छत्तीसगढ़ की ऊर्जाधानी कोरबा, को अब आम लोग राखधानी कहने लगे है। एक ओर यहां के लोग विकास की कीमत अदा कर रहे हैं,तो दूसरी ओर कोयला की वजह से यहां बिजली सयंत्र की बाढ़ आ गई है। यही स्थिति रायगढ़ और राजधानी रायपुर के सिलतरा की है। छोटे बड़े मिलाकर एक सैकड़ा के करीब बिजली सयंत्र है। लगभग जितनी भी स्टील फैक्ट्रियां है, सबके अपने अपने बिजली सयंत्र हैं। बिजली सयंत्र के आस पास जितने भी गांव हैं, वहां एक भी मवेशी स्वस्थ्य नहीं दिखेंगे। कोरबा के 30 वर्षीय अमर साहू कहते हैं,‘‘दो वर्ष दो गाय खरीद कर लाये थे। कुछ दिनों में उनकी गायें बीमार रहने लगीें। डाॅक्टरों से पता चला कि नदी,तालाब,का प्रदूषित पानी पीने से गायों के पेट में राख जमा हो रही है। कुछ दिनों बाद अमर की दोनों गायें मर गईं। यह तो जानवरों का हाल है। यहां के लेागों का हाल और भी बुरा है। बिजलीघरों से निकली कोयले की राख आसपास की नदियों और जलाशयों को बना रही जहरीली। इस प्रदूषण से टी.बी,अस्थमा,दमा जैसी गंभीर बीमारियों से जिन्दगी राख हो रही हैं।   फिर भी सरकार में बैठे जवाबदार लोग समस्या को नजर अंदाज कर रहे हैं। निर्देशों के बावजूद फ्लाई ऐश के निबटान की कोई योजना नहीं। छत्तीसगढ़ में बढ़ते उद्योगों की वजह से जल प्रदूषण और वायु प्रदूषण को लेकर सरकार पर जब दबाव बढ़ा तो वर्ष 2012 में उद्योग व पर्यावरण मंत्री राजेश मूणत विधान सभा में कहा, प्रदेश में उद्योगों से निकलने वाले फ्लाई ऐश के उपयोग के लिए सरकार कार्य योजना बना रही है। ताकि लोगों को प्रदूषण में राहत मिल सके’’। लेकिन ऐसी कोई व्यवस्था आज तक नहीं हो सकी।
हर दसवां व्यक्ति राख से पीड़ित
एसीबी इंडिया लि.कंपनी पावर प्लांट चाकाबुरा गांव में स्थित है। इस बिजली संयत्र से करीब तीन सौ मीटर की दूरी पर राख का ढेर है। आस पास बस्तियां हैं। खेत हैं। राख के ढेर को दबाने के लिए मिट्टी का इस्तेमाल किया जाता है। ताकि गिर कर फैले नहीं। लेकिन हवा चलती है तो राख उढ़ के घरों के अंदर और आंगन में बिछ जाती हैं। फूलझड़,रंजना,तिवरता और चैतमा गांव तक राखड़ का प्रतिकूल असर दिखाई देता है। पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी कहते है कि कोरबा और रायगढ़ सबसे अधिक प्रदूषित शहर हंै। प्रदूषण रोकने के लिए जो मापदंड तय हैं, उसे अमल में नहीं लाया जाता है। जाहिर सी बात है कि सिस्टम फेल हो गया है। कोरबा,जांजगीर,रायगढ़ में फ्लाई ऐश की वजह से राख हो रही है जिन्दगी। पाॅवर की अंधी दौड़ लोगों के फेफड़ों को खोखला कर रही है‘‘। बिजली घर के जहरीले राख के कण टीबी का कहर बनकर टूटे हैं। यही वजह है कि कोरबा और रायगढ़ में हर दसवा व्यक्ति राख के प्रदूषण का शिकार है।
कोरबा में कहर
कोरबा के पुरेनाखार गांव के पांचवी के छात्र विनय कहते हैं, पावर प्लांट से निकलने वाली राख से उसे बुखार होता है। गांव का पानी खराब हो गया है। सांस लेने में तकलीफ होती है। यहां तक कि खाने में भी राखड़ ही होता है। विनय की थाली में मौजूद राख उस 2.7 करोड़ टन राख का महज एक चुटकी भर ही है, जो साल भर में कोरबा में मौजूद बड़े 14 ताप बिजलीघर पैदा करते हैं। कटघोरा ब्लॉक का पुरेनाखार एनटीपीसी और छत्तीसगढ़ पावर की ऐश डाइक से एकदम सटा हुआ गांव है। ऐश डाइक से बमुश्किल 200 मीटर दूर मौजूद गांव के प्राइमरी स्कूल की प्रभारी प्रिसिंपल भुनेश्वरी देवी बताती हैं।र्राख की वजह से यहां के लोगों खासकर बच्चों में पेट दर्द, खांसी और चमड़ी से संबंधित कई तरह की बीमारियां हो रही हैं। पिछले 7 साल से पढ़ाने आने की वजह से मैं भी कई बीमारियों का शिकार हो गयी हूं। इस उडन राख ने इलाके की खेती भी चैपट कर दी है। सीपीसीबी(केन्द्रीय प्रदूषण बोर्ड) के आंकड़े बताते हैं कि कोरबा देश के पांच सबसे प्रदूषित औद्योगिक क्षेत्रों में शामिल हैं। पर्यावरण मंत्रालय की 2014.15 की सालाना रिपोर्ट में भी कोरबा को देश में तीसरा सबसे नाजुक रूप से प्रदूषित क्षेत्र बताया गया है। इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे दिनेश कुशवाहा कहते हैं, यहां राख के तालाब देखकर लोगों को हैरानी हो सकती है। पर यहां जिन्दगी मुश्किल हो गई है।
राख के पहाड़
कोरबा से गेवरा,लक्ष्मणपुर,कुसुमुडा या फिर दीपिका जाने के रास्ते में राख के पहाड़ पड़ते हैं। ये ऐसे पहाड़ हैं कि बारिश के पानी में घुल कर नदी नाले से होते हुए खेतों तक पहुंचते हैं। राखड़ की इतनी अधिकता है कि आस पास के खेतों पर भी इसका असर पड़ा है। खेतों की उर्वरक क्षमता मर गई है। नियम तो कहता है कि जहां भी कोयला की राख फेंकी जाए वहां वृक्षारोपड़ किए जाएं। लेकिन ऐसा कहीं भी नहीं है। केवल बोर्ड जगह जगह लगाए गए हैं। फ्लाई ऐश से बने पहाड़ों में वृक्षारोपण नहीं किया गया है। कोरबा रेल्वे स्टेशन से रेल्वे फाटक तक आने के बाद दीपिका नगर पंचायत तक जाने के रास्ते में यानी दस किलोमीटर तक किनारे किनारे कोयले की राख के पहाड़ हैं। कोरबा हो या फिर रायगढ़ दोनों जिलों में बिजली सयंत्रों के आस पास कोयला की राख कई सवाल खड़े करती है कि क्या प्रदूषण विभाग और पर्यावरण कानून भी राख के पहाड़ की ढेर में कहीं दब गया है? इसलिए कि हर बिजली सयंत्र के पास राखड़ का ढेर है। एसीबी इंडिया लि.कंपनी के जनरल मैनेजर संजय मालवीय कहते हैं,‘‘ हमारे बिजली सयंत्र में कोयला के जलने पर प्रदूषण न फैले इसकी व्यवस्था है। चिमनी से काला धुुंआ नहीं निकलता है। इलेक्ट्रो स्टेटिक प्रैसिपिटेटर की व्यवस्था है। राख के निष्पादन के सवाल पर उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया।
कानून को ठेंगा
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल ने 5 फरवरी 2014 को एक आदेश जारी किया था कि 17 प्रकार के प्रदूषणकारी उद्योगों में प्रदूषण को नियंत्रित एवं निगरानी करने के लिए 31 मार्च 2015 तक आॅनलाइन स्टैक इमिशन सिस्टम स्थापित कर लें। लेकिन जिले में मात्र 46 और प्रदेश में 133 औद्योगिक संस्थानों ने ही यह सिस्टम लगाया है। प्रदेश के 563 संस्थानों ने इसे नहीं लगाया। दरअसल इस सिस्टम के जरिए उद्योगों में चिमनी से निकलने वाले धुंए आदि राज्य प्रदूषण नियंत्रण मंडल के सर्वर पर आॅनलाइन करना था। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल के अनुसार 17 प्रकार के उद्योग हैं जो प्रदूषण फैलाते हैं। मसलन स्टील प्लांट,पाॅवर प्लांट,सीमेंट प्लांट,डाईइंटरमीडिएट,पेस्टीसाइड,पेट्रोकेमिकल,बड़े विद्युत संयंत्र,जिंक, कापर, पेपर पलंट, आॅयल रिफायनरी, डिस्टलरी,शक्कर,चमड़ा आदि उद्योग। इन उद्योगों में आॅन लाइन स्टैक मानीटरिंग तथा एम्बीएंट एयर क्वालिटी मानीटरिंग सिस्टम लगाया जाना था। प्रदेश में 188 ऐसे उद्योग हैं जहां से खतरनाक कचरा प्रतिदिन लगभग 54900 टन निकलता है।
तीस फीसदी राख का उपयोग
एक चैकाने वाली बात है कि प्रदेश के बिजली घरों से दो करोड़ सात लाख मीट्रिक टन राखड़ निकलती है। लेकिन मात्र 30 फीसदी राख का ही इस्तेमाल होना शुरू हुआ है। जबकि पश्चिम बंगाल में 80 फीसदी राखड़ का उपयोग होता है। महाराष्ट्र में 60 फीसदी और उत्तर प्रदेश में 50 फीसदी फ्लाई ऐश का इस्तेमाल होता है। जाहिर सी बात है कि अन्य राज्यों की तुलना में छत्तीसगढ़ में राखड़ की मांग कम है। बीते साल में 25 लाख 42 हजार मीट्रिक टन राखड़ सीमेंट फैक्ट्रियों में इस्तेमाल हुआ। एसीबी इंडिया लि.बिजली सयंत्र में 270 मेगावाट बिजली पैदा होती है। इस सयंत्र से हर दिन 220 ट्रक कोयले की राख निकलती है। जाहिर सी बात है कि प्रदेश की 35 अन्य बड़े बिजली सयंत्र से निकलनी वाली राखड़ हर वर्ष कुल 22 मिलियन टन से अधिक होती है। जबकि नियमानुसार शत प्रतिशत राखड़ का निष्पादन की शर्त पर ही बिजली कंपनी को क्लियरेंस मिलता है। राखड़ को कोयले की खाली खदानों में भरने का प्रावधान है। रायगढ़ और कोरबा की खदानों में पहले रेत भरने का टेंडर हुआ करता था,अब बंद हो गया है। फ्लाई ऐश दो तरह की होती है। मोटी राखड़ से तालाब या फिर गडढ्े भरे जाते है। चिकनी राख ईंट बनाने और सड़क निर्माण के काम में लायी जाती हैं। कोयला उत्पादन कंपनी एसईसीएल और बिजली उत्पादन कंपनी एनटीपीसी पर फ्लाई ऐश के उपयोग और उसके निष्पादन की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। एनजीटी राज्य सरकार को राख के मामले में कई बार फटकार लगा चुकी है। क्यों कि प्रदेश में बिजली सयंत्रों से निकलने वाली 14 मिलियन टन राखड़ का उपयोग नहीं होता। 
खेतों को नुकसान
कृषि वैज्ञानिक डाॅ. के.के.साहू कहते हैं,फ्लाई ऐश का डिस्पोजल नहीं होने के कारण मिट्टी की उर्वरक शक्ति कमजोर हो जाती हैं। इसके अलावा कोयले की राख की वजह से पौधे के स्टोमेटा ढंक जाते हैं। इससे उसका श्वसन तंत्र कमजोर होने की स्थिति मंे पौधों की वृद्धि रूक जाती है। राखड़ मिट्टी की पोरोसिटी को भी कम कर देती। रायगढ़ जिले के खरसियां क्षेत्र में कारखानों से निकले अपशिष्ट एवं फ्लाई ऐश की वजह खेतांे की उर्वरा शक्ति नष्ट हो रही है। खरसियां शहर के छपरीजंग स्थित नवीन स्कूल के पीछे शासकीय और वन भूमि में अवैध रूप से स्थानीय कारखानों से निकले अपशिष्ट एवं फ्लाई एश को अवैध रूप से डंप किया जा रहा है। 
एक दर्द आदिवासियों का
कोरबा हो या फिर रायगढ़ जिला के आदिवासियों को उद्योगपतियों ने नौकरी देने का सब्ज बाग दिखाकर उनकी जमीनें ले लीं। अच्छे दिन की चाह में आदिवासियों ने अपनी जमीनें कंपनियों को दे दी लेकिन, बदले में कंपनियों उन्हें नौकरियां दी नहीं। एसीबी इंडिया लि. कंपनी को अपनी दस एकड़ जमीन देने वाले भारत यादव,रामेश्वर यादव का परिवार कहता है,,चपरासी अथवा साफ सफाई करने की नौकरी देकर ठग लिया गया है। ऐसा यहां सभी पाॅवर प्लांट के मालिकों ने किया है। सस्ते में जमीन दे दी। कईयों का मामला कोर्ट में चल रहा है। कहीं जा नहीं सकते इसलिए पाॅवर प्लंाट के पास अपनी जमीन पर घर बना लिए। लेकिन कंपनियां अपनी पाॅवर प्लांट की राख को घर के पास डंप कर रही हैं। जिससे जीना मुहाल हो गया है‘‘। मनोज सिंह ठेकेदार के अंडर में काम करते हैं। इन्द्रजाल,विजय गोंड,फूलबाई और सविता गांेड को झाडूं पोंछा का काम मिला है, जो कि नौकरी से निकाल देने के लिए धमकाता रहता है। कुसमुंडा खदान के पासवाले पालविया गाँव के लोग विस्थापन के विरोध की लड़ाई अभी भी लड़ रहे हैं। यहां के लोगों ने बताया कि पिछले डेढ़ दशक में इन खदानों के लिए लोगों को 3-4 बार विस्थापित किया जा चुका है लेकिन उसका उचित मुआवजा अब तक नहीं मिला है।
कोयला उत्पादन में छग प्रथम
प्रदेश में 52 खदानें एसईसीएल की है। कुसमुंडा कोयला खदान 2,382 हेक्टेयर तक फैला हुआ है।   कोरबा में गेवरा माइंस,लक्ष्मणपुर,दीपिका में खुली खदानें है। जबकि बाकी मोगरा, सुरा कक्षार, डेलवारीह, बलगी औरबगदेवा में अंडर ग्राउंड खदानें हैं। सबसे बड़ी गेवरा मांइस हैं। गौरतलब है कि केन्द्र सरकार ने 2020 तक कोयले के उत्पादन को दोगुना करने का आदेश दे रखा है। ऐसी स्थिति में छत्तीसगढ़ में कोयले का उत्पादन बढ़ेगा। एक अनुमान के अनुसार यहां 52 हजार मिलियन टन से भी अधिक कोयले का भंडार है। कोरबा में 10 भूमिगत खदान हैं और दो खुली खदान है। कुसमंुडा,गेवरा,दीपिका में एक-एक खुली खदान है। रायगढ़ में एक भूमिगत खदान है और 3 खुली खदान है। 2017-18 में भूमिगत खदान से 17.086 मिलियन टन और खुली खदान से 114.239 मिलियन टन कोयला का उत्पादन हुआ। गेवरा क्षेत्र साऊथ ईस्टर्न कोलफिल्डस का सर्वाधिक कोयला उत्पादन करने वाला क्षेत्र है। गेवरा परियोजना में विश्व की आधुनिक तकनीक का प्रयोग किया जाता है। इस परियोजना में वर्ष 2017-18 में 46 मिलियन टन कोयले का उत्पादन हुआ था। 
श्वसन सबंधी बीमारियां बढ़ रही
अंबेडकर अस्पताल के श्वसन विशेषज्ञ डाॅ रविन्द्र पंडा कहते हैं,‘‘फैक्ट्री से निकलने वाला गंदा पानी, धुंआं, राखड़ और कैमिकल सीधे जल स्त्रोत को प्रभावित करते हैं। कई जगह भूमिगत संक्रमित जल में लेड की मात्रा भी पाई गई है। जल में मैग्नीशियम व सल्फेट की अधिकता से आंतों में जलन पैदा होती है। नाइट्रेट की अधिकता से बच्चों में मेटाहीमोग्लाबिनेमिया नामक बीमारी हो जाती है तथा आंतों में पहुंचकर नाइट्रोसोएमीन में बदलकर पेट का केंसर उत्पन्न कर देता है। फ्लोरीन की अधिकता से फ्लोरोसिस नामक बीमारी हो जाती है। प्रदूषित गैस कार्बन डाइअॅाक्साइड तथा सल्फर डाइआॅक्साइड जल में घुसकर जलस्रोत को अम्लीय बना देते हैं। फ्लाईऐश के कण पार्टीकुलेट मैटर के रूप में हवा तैरते हैं। इन अति सूक्ष्म कणों का व्यास 2.5 माइक्रोमीटर से भी कम होता है। इसलिए उन्हें पी.एम 2.5 कहा जाता है। जिनका व्यास 10 माइक्रोमीटर से कम होता है उन्हें पीएम 10 कहा जाता है। फलाईऐश के कणों का पी.एम 2.5 स्तर का 60 से अधिक होने पर ये सूक्ष्म कण आसानी से सांस के जरिए फेफड़ों तक पहुंच जाते हैं और खून में आॅक्सीजन की मात्रा कम कर देते हैं। सर्दी के मौसम में ब्रोंकाइटिस की आशंका अधिक रहती है। दमा बढ़ जाता है।  पाॅवर प्लांट के करीब 400 किलोमीटर के दायरे में विसर्जित फलाई ऐश में 2.5 माइक्रो ग्राम से भी कम व्यास वाले पर्टिकुलेट मैटर,सल्फर डाइआॅक्साइड, नाइट्रोजन आॅक्साइड, कार्बन मोनो आॅक्साइड कार्बन यौगिक वातावरण में जहर घोल का काम करते हैं। इससे सांस लेने में तकलीफ होती है। इस वजह से श्वसन संबंधी बीमारियां होती है। आंकड़ों के मुताबिक बीते 5 साल में राखड़ प्रभावित 10 ब्लॉकों के 14 हजार से ज्यादा लोगों में जांच के दौरान टीबी के लक्षण पाए गए।
राखड़ में खतरनाक रेडिऐशन
एनजीटी में राखड़ निष्पादन के मुद्दे पर याचिका डालने वाले लक्ष्मी चैहान कहते हैं, कोयला परिवहन के लिए प्रस्तावित रेल काॅरिडोर के तहत कोरबा और रायगढ़ में उत्सर्जित राखड़ के उपयोग को भी सुनिश्चत किया जाए। लक्ष्मी चैहान के अनुसार 3000 से 4000 एकड़ जमीन तक फ्लाई ऐश फैला पड़ा है। जिससे वातावरण विषेला हो गया है। पावर प्लांट कोयला की राख को देंगुर नाला में बहा देते हैं। यह नाला हसदेव नदी से मिलता है। फ्लाई ऐश की वजह से कई प्रकार की मछलियां जैसे मोंगराई, कोटराई, गोराई, नौरी, देवा, सिअर, झोरी, चिन्ना व पुथी अब नहीं दिखती। सिर्फ जल ही नहीं कोरबा की हवा भी प्रदूषित हो गई हैं। 
कोरबा की तरह रायगढ जिला की भी स्थिति है। ज्यादातर कोयला खदान वन क्षेत्र में है। इस वजह से 40 फीसदी वन घट गया है। खेतो में हरियाली की जगह कोयले की राख जमी हुई है। यहां कई स्थानों से निकलने वाली राख इतना ज्यादा है कि जगह जगह टीले बन गए है। जिले में करीब 31 लाख हेक्टेयर जमीन पर खेती हुआ करती थी। लेकिन राख की वजह से अब किसानों की उस जमीन पर राखड़ डंप किया जा रहा है जो इन्हें पट्टे पर मिली हुई है। एक रिपोर्ट के अनुसार य.ूपी, महाराष्ट, पश्चिम बंगाल के मुकाबले छत्तीसगढ़ राख छोड़ने में सबको पीछे छोड़ दिया है।