0 रमेश कुमार ‘रिपु’
बस्तर के
आदिवासियों की ज़िन्दगी का पूरा सच यथार्थ के धरातल पर लोकबाबू ने अपनी
किताब बस्तर-बस्तर में लिखा है। बस्तर की जिन्दगी के कटु सच से सामना कराती
है यह किताब। अन्याय और विषमता की जिस पृष्ठ भूमि से कथनाक की शुरूआत होती
है,उसकी तस्वीर आज भी नहीं बदली है। आदिवासियों की आदिम संस्कृति,जीवन में
माओवादियों की दस्तक और सलवा जुड़ूम के बाद भी बहुत बदलाव नहीं आया है।
लेकिन एक सच यह भी है,कि माओवादियों की वजह से आदिवासियों में जागृति आई
है। वे अपने हक़ के बारे में बातें करने लगे हैं। और मंत्रणा करने लगे हैं।
जैसा कि गूफा पल्टन यानी माओवादी ने इरमा के यहांँ खाने के दौरान
कहा,महाराष्ट्र में तेंदूपत्ता की तुड़ाई में एक पूड़े का पैंसट पैसा है और
आन्ध्र में सत्तर पैसा,यहांँ पैतालीस पैसा दे रहे हैं,तो बहुत कम है। यहांँ
के मालिक और ठेकेदार को वही रेट देना चाहिए। आप लोग संगठित होंकर आवाज
उठायें,बाकी हम देख लेंगे।’’
दरअसल यह उपन्यास
बस्तर के आदिवासियों के साथ होने वाले अन्याय और विषमता की जिस पृष्ठ भूमि
को रेखांकित करता है,उसमें जरा भी कल्पनिक जीवन और रचा गया इतिहास नहीं है।
लेखक ने पात्रों के जरिये बस्तर की ऐतिहासिक धरोहर और रमणीय स्थलों से भी
परिचय कराया है। इरमा अपने प्रेमी रग्घू के साथ देखकर अचंभित हो जाती है,कि
चित्रकोट में इन्द्रावती की धारा नब्बे फुट नीचे गिरती है। तीरथगढ़ का झरना
कांगेर नदी के पानी से बना है। और कोटमसर की अंधेरी और लम्बी गुफा अंचल
में चर्चित है। लोहाण्डीगुड़ा में मावली माता है। बस्तर के प्राकृतिक
सौन्दर्य अदभुत हैं। हिड़मा और हूंगा के जरिये घोटूल परंपरा के सच से सामना
कराया गया है। बस्तर में बहुत सारी नदियांँ है। नदियांँ हैं इसलिए जीवन है।
पनकू मामा इरमा को बताते हैं कि दण्डकारण्य के इस हिस्से में इन्द्रावती
के अलवा शंकिनी, डंकिनी, कोटरी, शबरी, बल्लरी, दूधनदी, नारंगी,
तालपेरू,जैसी बहुत नदियांँ है। लेकिन गोदावरी नदी सबसे बड़ी है। बस्तर के
अबूझ जंगल का नाम अबूझमाड़,और इसे बस्तर क्यों कहते हैं,दण्डकारण्य क्यों
कहते हैं,ऐसे सवालों के भी जवाब हैं।
यह
किताब चार खंडो में है। पहले खंड में बस्तर के आदिवासियों की जिन्दगी और
उनकी संस्कृति से परिचय के साथ सरकारी मुलाजिमों द्वारा आदिवासी महिलाओं
का दैहिक एवं सामाजिक शोंषण के अक्स की जो तस्वीर किताब में है,वो काल्पनिक
नहीं यथार्थ है। यानी अबूझमाड़ के किस्सों में अंधा युग भी है। किताब में
गढ़े गये पात्र गोडवी और हल्बी भाषा में बातें करते हैं। इससे यह एहसास
होता है,कि हम बस्तर के गांँवों और वहांँ की आबो- हवा के साथ ही लोक जीवन
को करीब से देख रहे हैं। यह किताब बस्तर की पुरातत्व संपदा और आदिवासियों
की अछूती संस्कृति,खान-पान और जंगली जीवन के हर पक्ष से परिचय कराती हैं।
दूसरे खंड विस्थापन के पीड़ा को उकेरा गया है। बस्तरवासियों का शोषण,
हुक्मरानों का छलावा,सलवा जुडूम की घिनौनी राजनीति, पुलिस की बर्बरता और
नक्सलियों के आतंक को बेनकाब करता है यह उपन्यास। दरअसल दंण्डकारण्य में
किसी का घर स्थायी नहीं होता। लोग यहांँ बसते हैं उजड़ने के लिए। तुलतुली
गांँव का जंगल तेंदू के पेड़ और केलों के जंगल के लिए जाना जाता है।
तीसरा
खंड सलवा जुड़ूम से मिले जख्मों का कथानक है। सलवा जुड़ूम ने हजारों
आदिवासियों को उनके गांँव से,उनके जीवन से और उनके रिश्तदारों से अलग कर
दिया। इरमा के मासूम भाई को पुलिस वालों ने नक्सलियों का मुखबिर कहकर मार
दिया। उसके माँं-बाप और मामा को जंगल में मार दिया गया। उसकी आबरू पुलिस
वालों ने लूट। इरमा को नक्सली कैंप में नया जीवन मिलता है। और वह शीते के
नाम से खूंखार नक्सली बन जाती है। उसे सड़ी व्यवस्था ने नक्सली बना दिया।
सलवा जुड़ूम के दौरान बस्तर में अघोषित इमरजेंसी लगी थी। पत्रकार रमेश पैकरा
का नक्सली लीडर शंकर के इन्टरव्यू से पता चलता है कि उनकी मांगे और विचार
नाजायज नहीं है। उनकी नज़र में हर समस्या का हल कम्युनिज्म ही है।
खंड में रोमांच है। नक्सली इरमा से उसके मंगेतर रग्घू के मिलने की उत्सुकता और उसे दादा जिस तरह आॅखों में पट्टी बांध कर जंगल-जंगल घुमाते हैं और फिर अचानक उसे यह कहकर छोड़ देते हैं, कि कामरेड सीते तुमसे नहीं मिलना चाहती। वह हर हाल में उससे मिलकर उसके मन की बात जानना चाहता है। उसके लिए नक्सली भी बनना पड़ा तो गुरेज नहंीं करेगा। लेकिन सरकारी मास्टर बन जाने की खुशी को यूं ही जाया नहीं करना चाहता। और वह खुद से फैसला लेता है,यदि पानी की बोतल पुल के दूसरी तरफ निकल गई तो वह इरमा को भूलकर अपने गाँंव लौट जायेगा। और जब बोतल नहंीं निकली तो वह पत्थर उस दिशा में फेकता है,जिस दिशा में बोतल थी। तभी उसे नदी के पानी से युवती की आवाज में, एक चीख उठी,चुप ‘माइलोटिया।’
किताब की भाषा में टूटन नहीं है। उत्सुकता जगाती है,कि इसके बाद क्या है। बस्तर का पूरा दर्शन यह किताब कराती है। यह उपन्यास भले डेढ़ दशक पुराने कथानक पर केन्द्रित है लेकिन,वर्तमान प्रासंगिकता पर ऊगली नहीं उठाई जा सकती।
किताब - बस्तर-बस्तर
लेखक - लोकबाबू
प्रकाशक-राजपाल
कीमत -450 रुपये