Tuesday, August 31, 2021

भूपेश की सत्ताई राजनीति की शाम नहीं हुई..



रायपुर। सत्ताई सियासत में भूपेश बघेल अल्पविराम साबित नहीं हुए। लेकिन उनके हाथ से सत्ता की डोर खींचने की सियासत रायपुर से दिल्ली तक दौड़ धूप करने वालों की भारी भद्द हुई। राजनीति में कोई भी वायदा वक्त के साथ बदलता रहता। राजनीति कोई बीजगणित का सवाल नहीं है, कि सूत्र से हल होता है। छत्तीसगढ़ कांग्रेस की राजनीति राजस्थान और पंजाब के सांचे में नहीं ढलेगी। इसकी वजह यह है, कि भूपेश बघेल के साथ 70 में 52 विधायक हैं। टी.एस सिंह देव अब ज्योतिरादित्य सिंधिया की भूमिका चाहकर भी, नहीं निभा सकते। यह बात भूपेश के समर्थन में दिल्ली जाने वाले विधायकों की संख्या बल ने स्पष्ट कर दिया। छत्तीसगढ़ प्रभारी पीएल पुनिया की पहली पसंद पहले से भूपेश बघेल रहे हैं। दस जनपथ भी छत्तीसगढ़ की राजनीति पर कोई फैसला लेने से पहले पीएल पुनिया की राय को नजर अंदाज नहीं कर सकता। ढाई साल की सत्ताई राजनीति में भूपेश बघेल ने संगठन से लेकर दस जनपथ और मीडिया के बीच अपनी ऐसी छाप बना ली, कि उस फ्रेम में दूसरा कोई फिट होता ,दस जनपथ को भी नहीं दिखा।

पांच अन्य राज्यों में गोवा,मणिपुर,पंजाब,यूपी और उत्तराखंड होने वाले चुनाव से पहले छत्तीसगढ़ की राजनीतिक नेतृत्च को दस जनपथ के बदल देने से विपक्ष को मुद्दा मिल जाता और  चुनावी औजार भी। चूंकि केन्द्र सरकार इस समय ओबीसी की राजनीति को हवा दिये हुए है। भूपेश बघेल ओबीसी नेता हैं। जाहिर सी बात है कि दस जनपथ ओबीसी नेता भूपेश बघेल के  हाथ से सत्ता का हस्तांतरण सवर्ण के हाथ में करने की भूल नहीं करेगा। वैसे भी संगठन में,निगम मंडल में सारे लोग भूपेश के समर्थक हैं। ऐसे में बाबा ये सोच कैसे लिए, कि दस जनपथ और विधायक उन्हें मुख्यमंत्री बनाने की वकालत करेंगे!

ढाई साल में भूपेश बघेल ने न केवल राज्य में काम किये बल्कि कांग्रेस के संगठन और निगम मंडल पर अपने लोगों को बिठाकर अपनी ताकत बढ़ाई। बाबा बीच- बीच में सरकार पर चोट करने वाले बयान देकर भूपेश बघेल को परेशान करने की कोशिश किए। उसके बदले में उन्हें राजनीतिक नुकसान भी उठाना पड़ा। जिसकी सत्ता होती है,उसके आईने में पत्थर फेकने वालों को आईने की खरोच तो मिलेगी ही।बाबा काग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं, लेकिन ढाई साल की सत्ता में वो विधायकों को अपना नहीं बना सके।

सबसे बड़ा सवाल यह है, कि अब बाबा क्या करेंगे? उनकी राजनीति का स्वास्थ्य ठीक रहेगा कि नहीं? मुख्य मंत्री क्या उन्हें और बाएं करेंगे? बाबा कब तक चुप रहेंगे? क्या पांच राज्यों के चुनाव के बाद बाबा फिर दस जनपथ की दौड़ लगायेंगे? हर राजनीतिक व्यक्ति की महत्वाकांक्षा होती है। बाबा भी अपने नाम के साथ मुख्यमंत्री नाम की चाह रखते हैं। लेकिन एक बात साफ है, कि ढाई साल का फार्मूला अब लागू नहीं हुआ, तो बाद में इसके लागू होने की संभावना कम ही बनती है। बहरहाल,भूपेश की सत्ताई राजनीति की शाम नहीं हुई।
@रमेश कुमार "रिपु"


‘बहेलिए’ के पंजे में आधी दुनिया



कथाकार अंकिता जैन रूढ़ नैतिकता की दीवार गिराने की कोशिश की है कहानी संग्रह बहेलिए के जरिए । ‘बहेलिए’ संग्रह में नौ कहानियांँ है। कहानी में समाज के वो बहेलिए हैं,जिनसे औरत के वजूद पर चोट पहुंँचती है। ये बहेलिए सिर्फ पुरुष ही नहीं,समाज की पुरानी मान्यताएं, परंपराएं,परिवार की महिलाएँं आदि हैं। ऐसे बहेलियों की चंगुल से बचने या फिर कैद से निकलने स्त्रियां चौकाने वाली राह चुनती हैं। वहीं हर कहानी सामाजिक परिवेश की दहलीज पर एक निशान छोड़ते हुए स्त्री की सोच को भी टटोलती है।

संग्रह की कुछ कहानियों से सवाल उठता है,कि आधी दुनिया की बौद्धिक और समझदार महिलाएंँ जानते हुए भी उस रास्ते पर क्यों चलती हैं,जिसकी कोई मंजिल नहीं है। लेखिका की स्त्रियांँ जानते हुए भी ऐसे प्रेम में पड़ती हैं,जो कभी मुकम्मल नहीं हो सकता। यानी गैर वाजिब है। स्त्री विमर्श का यह आधुनिक स्वरूप नैतिकता से परे है। क्यों कि ‘मजहब’ और ‘रैना बीती जाए’ की स्त्रियांँ एक विवादित प्रेम पथ को अंगीकार करती हैं।‘मजहब’ कहानी की नायिका मनोज चौरसिया की बेटी जूली घर में विरोध के बावजूद मुस्लिम लड़के के प्यार में पड़कर उसके बच्चे की माँं बन जाती है। रूढ़ नैतिकता के खिलाफ जाकर जूली बच्चे को जन्म देने का फैसला करती है। दूसरे शहर में अपनी पहचान छिपाकर नर्स की नौकरी करती है। मगर मजहबी दंगे में जूली की बेटी गंभीर रूप से घायल हो जाती है। हिन्दू-मुस्लिम की लड़ाई जूली का पीछा नहीं छोड़ते। उसकी बेटी दंगे में गंभीर रूप से घायल हो जाती है। और वह अपनी बेटी को बचाने आॅपरेशन थियेटर में चली जाती है। सवाल यह है कि जातीय वैमनस्यता के बहेलिए सिर्फ स्त्री के लिए ही क्यों?

अंकिताजैन की स्त्रियांँ क्या रूढ़ नैतिकता की विरोधी हैं, इसलिए घर,समाज के मूल्यों के खिलाफ चलती है अपनी नई रेखा खींचने के लिए? जैसा कि ‘रैना बीती जाए’ कहानी में मीरा अपने बाॅय फ्रेंड आकाश से सम्पूर्ण समर्पण चाहती है। लीव इन रिलेशन शिप में रहते हुए उसके माँ बनने पर आकाश अपनी परेशानी बताकर शादी से इंकार कर देता है। बिन ब्याही माँ मीरा दूसरे शहर में अपने प्रेम को,अपनी माता-पिता की लाज रखते हुए विधवा,अनाथ और ससुराल वालों की परित्यकता मां बताकर नौकरी कर लेती है। एक दिन बेटा मां से अपने पिता के बारे में पूछता है। वह पिता के प्यार से उसे वंचित नहीं रखने का फैसला करती है। दरअसल दाम्पत्य संबंध आपसी समझ और आत्मीयता पर आधारित होना चाहिए। मूड के हिसाब से जो प्रेमी समर्पण और देह का इस्तेमाल करता हो, उससे समय रहते अलग हो जाना ही स्त्रियों के लिए ठीक है।

प्रायश्चित और कन्यादान’दोनों भावनात्मक कहानी है। प्रायश्चित’ में एक बिगड़ैल पिता अपनी पत्नी की मौत के बाद बेटी के लिए बदल जाता है। क्यों कि, उसकी पत्नी चाहती थी,कि उसकी बेटी खूब पढ़ लिख कर अपने पैरों पर खड़ी हो। जबकि पत्नी की मौत के पहले तक पिता बेटी की उपेक्षा करता आया था। इंटर में बेटी के टाॅप करने पर उसे उसके स्टाॅफ में जो सम्मान मिला,उस एक पल की खुशी ने उसे बदल दिया। यानी जो पिता अपनी बेटी और पत्नी के सपनों का बहेलिया था,वह ग्लानी के सागर में डूब कर अच्छा पिता बन जाता है। घर वालों के समक्ष कहता है,उसकी बेटी जहां तक पढ़ेगी उसे पढ़ाएगा,अभी शादी नहीं करेगा।

कन्यादान कहानी में परिस्थिति वश मजदूर तेली जाति का बुजुर्ग पिता अपनी जवान बेटी की शादी अधेड़ विदुर ब्राम्हण भोला से नहीं करना चाहता। दुविधा में रहता है,कैसे अपनी बेटी को सारी बात बताए। बेटी उनकी परेशानी का सच उगलवा लेती है। लाचार पिता को खुशी देने बेटी अपनी बोली लगा आती है। वहीं एक पागल की मौत’ आज की घिनौनी राजनीति के सच का आईना है। ‘बंद खिड़कियां‘ गहरे जीवन के अनुभव की कहानी है। पढ़ी लिखी बहू पुरानी मान्यताओं को ढोने वाली सास के बंधन को विवेक से तोड़ती है। बहरहाल अकिता जैन की स्त्रियों में जीवन जीने की भरपूर चाह है। हर कहानी सामाजिक परिवेश की दहलीज पर एक सवालिया निशान छोड़ते हुए स्त्री की सोच को भी टटोलती है।
लेखक - अंकिता जैन
प्रकाशक - राजपाल
कीमत - 176 रुपए
@रमेश कुमार "रिपु"

स्त्री विमर्श की तीसरी आँख.


चन्द्रकांता जी की संकलित कहानियां में ,नूराबाई और गीताश्री की बलम कलकत्ता में औरत की बेबसी,सामाजिक चिंता,उसके मन के तहखाने के अंधेरे और उसकी दर्द की तहरीर कैसी है,देख रहा था। इन दोनों लेखिकाओं की स्त्री विमर्श की नब्ज को टटोलने पर उम्र और समय की धड़कन में भारी अंतर है। चन्द्रकांता जी की यह कहानी 2000 के पहले की जान पड़ती है और गीताश्री की बलम कलकत्ता साल दो साल पहले की। कहानी की भाषा चन्द्रकांता जी की ज्यादा सधी और पठनीय है। वहीं गीताश्री की कहानी की भाषा, आम बोलचाल की है। इनकी कहानी में पत्रकारिता की भाषा का पुट झलकता है।
इन दो लेखिकाओं की कहानी में एक आम औरत है। गरीब है। दूसरों के घरों में झाडू- पोंछा करती है। दोनों कहानी की नायिका की एक बेटी है। आदमी शराबी है। चन्द्रकांता जी की कहानी की नायिका अपनी बेटी को गंदी करने पर अपने देवर की हत्या कर देती है। गीताश्री की कहानी की नायिका भी अपने पति की पीड़ा सहती है,मगर वो नये जमाने की गरीब है। फिर भी नूराबाई और उसमें बहुत अंतर नहीं है। चूंकि नये जमाने की गरीब महिला है, इसलिए उसमें अपना भला किसमें है,उस पथ को चुनने की समझ है। अपने शराबी पति को छोड़ कर अपनी बेटी के होेने वाले पति के साथ कलकत्ता चले जाना बेहतर समझती है।
सवाल यह है,कि अजादी के बाद पढ़ी- लिखी फर्राटेदार अंग्रेेजी बोलने वाली लेखिकाओं ने महिलाओं को कहानी में इतना कमजोर क्यों बताती आ रही हैं? प्रेम चंद के दौर की महिलायें कब की मर गई हैं। हर गरीब महिला का पति शराबी ही क्यों है? वो दूसरों के यहां झाड़ू -पोछा करेगी,और उसका पति शराब पीने के लिए अपनी पत्नी का पैसा छीन लेगा। उस पर बुरी नजर कईयों की रहेगी। क्या ऐसी ही कहानियों से स्त्री विमर्श का पक्ष मजबूत होगा?
ऐसी कहानियाँ क्यों नहीं लिखती,जैसा मंच पर लेखिकायें बोलती हैं। झाडू- पोछा करने वाली गरीब महिला को अपने जैसा क्यों नहीं बताती। शराबी पति को छोड़ क्यों नहीं देती। एक तरफ पितृसत्ता को गरियाती हैं। लेकिन अपनी कहानी की नायिकाओं की सोच नहीं बदलती? सोच बदलें, तो देश बदले। आधी दुनिया का ढांचा बदले। ऐसा लगता है, कि गरीबी की बेबसी पर लिखने से ज्यादा प्रशंसा मिलती है। वहीं सरकार मानती है, कि गरीबी अब वैसी नहीं है,जैसे प्रेमचंद के जमाने में थी।
आखिर कब तक कहानियों में गरीब महिला की बेबेसी,को ओर उसे दोयम दर्जे का दिखाया जायेगा! यह चलन बंद होना चाहिए। सलीम-जावेद की कहानियों में एक मुस्लिम पात्र जरूर होगा। वह बहुत ही इनायत मन का होगा। ब्राम्हण और बनिया कमीने होंगे। जबकि वास्तविक जीवन में इसके विपरीत है।
अखबार की खबरें बताती हैं, कि गरीब महिला जिससे इश्क करती है,उसका पति शराबी और निकम्मा होने पर वह किसी और से प्यार करके उसके साथ भाग जाती है या फिर अपने पति को प्रेमी के साथ मिलकर रास्ते से हटा देती है। इश्क के रंगों के साथ गरीबी का भी रंग बदला है। महिलायें रूढ़ नैतिकता की दीवार गिराने में अब आगे-आगे हैं। लक्ष्मण रेखा को पार करके अपनी एक अलग पहचान बनाना चाहती हैं। गीताश्री के जैसी कहानियांँ स्त्री को पुरुष के साथ खड़ा होने से रोकती हैं। स्त्री-पुरुष के दाम्पत्य जीवन की आकांक्षाओं के विपरीत तस्वीर बनाती हैं, ऐसी कहानियां। गरीबी में भी स्त्री और पुरुष के बीच प्रेम का सम्पूर्ण प्रतिदान एक दूसरे के प्रति होना ही स्त्री विमर्श की सार्थकता है। स्त्री जाति की पूरी अस्मिता के बारे में नई लेखिकाओं को सोचना चाहिए। स्त्री विमर्श की तीसरी आँख


से आधी दुनिया को देखने का आगाज कब होगा..!
@रमेश कुमार "रिपु"

 

नैतिकता की सघंनता.


.
भावुकता और नैतिकता से गुजरती गिरीश पंकज की कहानियांँ को पढ़ना गहन अनुभूति से गुजरने जैसा है। कहानी संग्रह ‘काॅल गर्ल की बेटी’ पाठक के अंतर्मन को झकझोर देती है। इस किताब का नाम ‘काॅल गर्ल की बेटी’ होने से आम पाठक के मन में किताब को लेकर कई संदेह हो सकते हैं। लेकिन ‘काॅल गर्ल की बैटी‘ में एक माॅ के संघर्ष की कथा है। 'काॅल गर्ल'न केवल अपना सपना पूरा करती है बल्कि, अपनी बेटी को ऊॅचे मुकाम तक पहुँचाती है। कहानी बताती है, कि इच्छा शक्ति से बड़ी, कोई दूसरी ताकत नहीं होती।

सग्रह में 25 कहानियाॅं है। सभी कहानियों में नैतिकता, इंसानियत, अपनत्व, सांस्कृतिक मूल्य और मर्यादा का संदेश है। जो आदमी को इंसान बनाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। कहानियों की भाषा घुमावदार नहीं है। हर कहानी अपनी बात सहज और सीधे तरीके से कहती है। इन कहानियों में 21 वीं सदी के छल,प्रपंच और अपने स्वार्थ के लिए नैतिक मूल्यों को दरकिनार करने की भयावहता का अक्स कई परतों में देखने को मिलता है। नये दौर में आज की पीढ़ी की मनोवृति पर चोट करते हुए और समाज में नैतिकता की क्षीण होती भूमिका पर कई कहानियों में रोष देखा गया है। ‘ज्ञान का पिटारा’ से पता चलता है, कि नेताओं के कथनी और करनी में कितना अंतर होता है। समाज में सांस्कृतिक पतन के लिए यही दोषी हैं। बच्चों को शिक्षा प्रद फिल्म बनाने की बात संस्कृति विभाग करता है। मगर रिश्वत के वह किसी को बजट नहीं देता।

‘स्वप्न भंग’ व्यंग्य शैली में है। सियासी व्यक्ति को कुर्सी मिलने पर सेवाराम से मिठाई लाल बनने की कथा है। यह लोकतंत्रीय व्यवस्था पर कटाक्ष है। ‘मै यही रहूॅंगा’ एक भावनात्मक कहानी है। खुदगर्ज बेटों की कभी बुराई पिता नहीं करते। वहीं बड़ा पैकेज पाने वाले बेटे कभी पलट कर नहीं देखते, कि उनके माता-पिता किस हाल में हैं। बुजुर्ग अभिभावकों के मन की पीड़ा और उनके भाव को कहानी में चित्रित किया गया है।

गिरीश पंकज की कहानियांँ संवेदनाओं की भट्टी में तपी हुई हैं। इसीलिए विविध भावबोध हैं। ‘देवता’ कहानी में इंसानियत के लय और ताल की भावनाएं है। दोस्ती में खटास हमेशा पैसे से आती है। यदि दो लोगों में एक का मन साफ हो, तो किसी न किसी मोड़ पर सामने वाले का मन भी बदल जाता है।

बूढ़ों का गाँव’ संग्रह की यह कहानी मन को छू लेती है। गाँव को नजर लगती नहीं,बल्कि लगाने वाले आते हैं। विकास के सपने दिखाना और जमीन के बदले मुआवजा का लालच देकर रिश्ते में अलगाववाद का बीज हर गांँव में बोया जा रहा है। नई और पुरानी पीढ़ी के बीच कैसे तनाव की सड़कें बनती है, बताती है कहानी।

बेटी मेरा अभिमान है,कहना बड़ा सहज है। लेकिन टी.वी में रेप की घटनायें किसी भी मांँ की मनोदशा पर विपरीत असर डालते हैं। बेटी होने का डर, क्या होता है सिर्फ माॅ समझती है। एक माॅं क्यों नहीं चाहती बेटी, उसके डर को उकेरा गया है ‘नहीं चाहिए बेटी में’।
सेवा आश्रम’ में एक संदेश है। पढ़ाई-लिखाई का तभी महत्व है जब उसका सदुपयोग समाज की भलाई में किया जाये। एक कुष्ठ रोगी स्वयं ठीक होने के बाद अपने गाॅव में दूसरों के उपचार के लिए सेवाश्रम खोलता है।

‘नया बनवारी,सबला,बुराई का अंत,असली वारिस,कानून का कमाल,आजादी आदि कहानियाँ लोगों की भावनाओं को जाहिर करते हुए एक दूसरे से जोड़ती हैं। सभी कहानियों में अलग-अलग पृष्ठभूमि के पात्र हैं। गिरीश पंकज की कहानियों के केन्द्र में समाज में फैली विसंगतियों की वजह के साथ ही,उसके निदान की ओर इशारा भी करती हैं। कहानियों में मनुष्य की प्रवृतियों के हर पहलू पर चिंता जताई गई है। कहानियों के पात्र और उनकी परिस्थितियांँ सहज और सरल है,उनकी भीतरी जटिलताओं को उभारने का ईमानदार प्रयत्न किया गया है। यह कहानी संग्रह समाज में नकारात्मक सोच और विचार के वे लोग,जो नैतिकता और इंसानियत को नहीं मानते, उन्हें सचेत करती है, कि समाज के नैतिक मूल्यों की अनदेखी करेंगे तो उसका अंजाम विस्फोटक होगा। किताब में प्रूफ की गलतियांँ खटकती है। नैतिकता और सामाजिक मूल्यों को तरजीह देने वाले पाठकों को यह किताब पसन्द आएगी।
लेखक- गिरीश पंकज
प्रकाशक-इंडिया नेट बुक्स
कीमत -250 रुपये
@रमेश कुमार "रिपु"

एक उदास कहानी



बनारस कभी सोता नहीं। लेकिन, अक्टूबर जंक्शन में कथा का नायक सदा के लिए सो जाता है। नये जमाने में ‘गुनाहों का देवता’ की कथा कैसी होगी,उसकी कार्बन काॅपी है ‘‘अक्टूबर जंक्शन’’। लेकिन कथा में मुहब्बत की वो तासीर नहीं है,जो गुनाहों का देवता में है। कहीं भी मुहब्बत का दर्द नहीं छलकता। अलबता कामूकता के लिबास में लिपटे कई पन्ने हैं। पूरी कथा में लेखक ने न कथा के नायक के मन में और न ही नायिका के मन में, मुहब्बत का नर्म एहसास कराया। लेकिन 150 पेज की कथा में नायक की जिन्दगी के ऐसे पन्ने है,जो पाठक को बेचैन करते हैं। गुस्सा दिलाते है। उसका मन करता है कि दिव्य प्रकाश को फोन लगाकर बोले कि, कौन सी फिलासफी लिखी है। बहुत सारे पाठक इस किताब को अधा पढ़कर छोड़ भी सकते हैं। जो पढ़ लेंगे, वो दिव्य प्रकाश को बहुत अच्छा बोलने की गुस्ताखी नहीं करेंगे।

दिव्य प्रकाश स्वयं कहानी के अंत में स्वीकारते हैं कि, लेखक नहीं चाहता कि कुछ कहानियां पूरी हो। इसलिए कि कहानियां पूरी होने पर दिल दिमाग उंगलियों से हट जाती है। वे मानते हैं कि, अधूरी कहानियांँ होने से पाठक और लेखक की उंगलियाँं उसे बार बार छूती हैं। उदासियों के लिहाफ को कौन छूता है भाई? उदास कर देने वाली यह एक ऐसी किताब है जिसमें, 80 पेज पढ़ने के बाद पाठक यह समझता है कि, इस कहानी का अंत ऐसा कुछ होगा। लेकिन जबरिया कहानी को धर्मवीर भारती के गुनाहों का देवता की कार्बन काॅपी बना देने से हैरानी होती है।

धर्मवीर भारती में सुधा और चंदर नहीं मिल पाते। सुधा मर जाती है। अक्टूबर जंक्शन में कथा का नायक सुदीप मर जाता है और चित्रा उसकी पत्नी बनते बनते रह जाती है। दोनों के बीच मुहब्बत की खुशबू नहीं है, मन की चाहत भी नहीं है। फकत देह का आकर्षण है। चूंकि कहानी नये जमाने की है, जाहिर सी बात है कि, कथा का नायक सुदीप और नायिक चित्रा पाठक दोनों को देह कीे मुहब्बत से इतराज नहीं है। क्यों कि, चित्रा नये जमाने की लड़की है। उसके भी शरीर की अपनी जरूरतें है,जो किसी के भी साथ सोकर पूरा कर लेती है। और सफलता की सीढ़ी पर चढ़ने के लिए सब कुछ करने में माहिर है। चित्रा तलाकशुदा है। चित्रा की मुलाकात बनारस में सुदीप से होती है। दोनों एक दूसरे से अपरिचित हैं। सुदीप पैसे वाला है। एक कंपनी में उसका अपना शेयर है। अखबारों के लिए लिखता भी है। आज कल के लड़के जैसे होते हैं,उससे जुदा नहीं है। सुदीप से मुलाकात के दौरान चित्रा बताती है कि वो एक कहानी की तलाश में है।

अक्टूबर जंक्शन को पढ़ने से यही लगता है कि, लेखक इसका नाम दिल्ली जंक्शन,बनारस घाट या फिर मुंबई जक्शन भी रख देते, तो कोई फर्क न पड़ता। इसमें हर बात एक साल बाद अक्टूबर में ही होती है। इस कहानी को पढ़ते पढ़ते यही लगता है कि, लेखक जिन जिन शहरों में गए, जिनसे मिले,उनसे बातें क्या हुई,उसे कहानी में उतार दिया हैं। लेखन में प्रवाह है। टूटन नहीं है। भाषा शैली कई जगह मोहक है। जिस तरह चित्रा कहानी तलाश रही है,उसी तरह पाठक भी पढ़ते वक्त तलाशेगा कि इस किताब की कहानी क्या है? इस किताब में खुली कामुकता और सौन्दर्य है।

नये जमाने के कथाकार अपने तरीके से अफसाने गढ़ते हैं। लेकिन ऐसा बहुत कम होता है कि, उनकी कथा नई हो। पुरानी बोतल में नई शराब की परिपाटी से आज के कई कथाकार निकलना ही नहीं चाहते। चोरी चोरी फिल्म और दिल है कि, मानता नहीं,दोनों की पटकथा एक सी है। सिर्फ फिल्मांकन नए तरीके से किया गया है। दिव्य प्रकाश दुबे की अक्टूबर जंक्शन की कथा डाॅ धर्म भारतीय की गुनाहों का देवता का बदला स्वरूप है। कहानी बनारस से शुरू होती है, और बनारस में ही खत्म हो जाती है।

चित्रा कहानी तलाश रही है बनारस में। सुदीप से मुलाकात होती है। मुलाकात दोस्ती में बदल जाती है। सुदीप से प्यार करती है भी, और नहीं भी। सुदीप उसे बताता है कि, उसकी एक गर्ल फ्रेंड है सुनयना। वो उसी से शादी करेगा। बावजूद इसके सुदीप और चित्रा दोनों दैहिक प्यार पति पत्नी की तरह करते हैं। सुदीप की चित्रा के प्रति दिलचस्पी क्यों है,लेखक यह कहीं भी नहीं बताया। फिर भी उसके लिए वो हवाई जहाज की टिकट बुक कराते रहता है। उसकी इच्छा होती है, उससे मिलने की या फिर चाहता है कि, वो उससे मिले, तो उसके लिए हवाई जहाज का टिकट बुक करा देता है। चित्रा आर्थिक रूप से कमजोर है, यह बताने के बाद भी सुदीप उसकी मदद नहीं करता। वो दूसरों के लिए घोस्ट राइटिंग करती है। सुदीप उससे साल दर साल पूछता है तुम्हारी किताब जब आए तो मुझे जरूर देना। जब उसकी किताब आती है,तब सुदीप दुनिया से जा चुका होता है।
@रमेश कुमार "रिपु"

अक्टूबर जंक्शन - दिव्य प्रकाश दुबे
प्रकाशक - हिन्द युग्म
कीमत - 125 रूपये

व्यवस्था की कड़ियों पर चोट



विचाराधीन कैदियों को तिल तिल गलाकर मार देने वाली व्यवस्था के बारे में बारीकी से बात करती है ‘‘खोई हुई कड़ियाँ’’। अंधा कानून में विचारधीन कैदी की मनः स्थिति का व्यापक चित्रण है। कहने की बात है कि, मानवाधिकार आयोग कैदियों के हक के लिए तत्पर है। कहने की बात है कि, अपराधी भले छूट जाएं लेकिन, किसी निर्दोष को सजा न हो। कहने की बात है कि, जेल यातना गृह नहीं,सुधार गृह है। पत्रकार दीपांकर के मन में संवेदना के साथ जिज्ञासा है ,यह जानने की,स्कूल के मास्टर अवनीश चन्द्र अपनी पत्नी मानसी देवी की हत्या क्यों और कैसे की। वाकय में वे अपनी पत्नी के हत्यारे हैं या फिर उन्हें फंसाया गया है?

अवनीश चन्द्र जैसे देश में लाखों विचारधीन कैदी हैं,जो बेवजह जुर्म की तय सजा से, अधिक सजा काटते हुए जेल में हैं। अपराधी बाहर मजे से हैं और निर्दोष जेल में यातना सह रहे हैं। पुलिस अब, पुलिस नहीं है। यही वजह है कि, अवनी जैसे कई निर्दोष पुलिस व्यवस्था का शिकार होकर,नक्सली का मुखबिर और साथी के आरोप में जेल में सड़ रहे हैं। बस्तर, झारखंड और बिहार में आम बात है।

बालूघाट का सामान्य मास्टर अवनीश उर्फ अवनी,कैदी नम्बर 2001 बन गया है। पत्रकार दीपांकर विचाराधीन कैदी अवनी के जरिये देश की न्यायपालिका,कार्यपालिका,पत्रकारिता और पुलिस प्रशासन को कटघरे में खड़े करतेकई सवाल करते हैं। अवनी की कथा,सत्य घटना है भी, और नहीं भी। इसलिए कि, आज हर जेल में कई अवनी हैं। हर जेलर को यही लगता है कि, सारे कैदी जेल को अपनी ससुराल समझते हैं। भरपेट मुफ्त की रोटी,टांगे फैलाकर चैन की नींद, लिबास, रिहाइश और महफूज रहने की गारंटी।

इस किताब में व्यवस्था के छल को ईमानदारी से उकेरा गया है। ऐसा लगता है कि, लेखक स्वयं सड़ी व्यवस्था के शिकार हुए हैं। यह किताब व्यवस्था की खामियोंं की एक चलती फिरती पटकथा है। कैसे किसी को अपराधी बनाया जाता है। कैदी की बीमारी पर पर्दा डालकर डाॅक्टर, कैसे उसे मरने की हालत में पहुंँचा देते हैं। पुलिस की बेईमानी भले आदमी को, कैसे गंभीर अपराधी बनाकर उसका जीवन नरक बना देती है, उस भक्षक व्यवस्था के सच को निचोड़ दिया है। देश में किसी भी हत्या की न्यायिक जांँच का नतीजा सुखद नहीं निकला। जेल में वे हैं,जिसके पास कोई राजनीतिक पाॅवर नहीं है। सत्ता से संपर्क नहीं है। गरीब हैं। ऐसे लोगों के प्रति सरकारी वकील भी कोई दिलचस्पी नहीं लेते। क्यों कि, ऐसे विचाराधीन कैदी से उन्हें कुछ भी मिलने की उम्मीद नहीं होती।

पत्रकार दीपांकर विचाराधीन कैदी नम्बर 2001 के पत्नी हंता होने का सच जानने डाल्टन गंज मंडल कारावास और आरा जेल तक सफर करते हैं। अवनी बाबू को देखकर और उनकी बातें सुनकर उनकी रूह काँंप जाती है। विचाराधीन कैदी अवनी के मन में सड़ी व्यवस्था के प्रति इतना गुस्सा है कि, वह जज से लेकर दीपांकर पर भी भरोसा नहीं करते। दीपांकर अवनी से कई सच चतुराई से उगलवा लेते हैं। अवनी भी नहीं जानते कि, उनकी पत्नी को किसने मारा। मगर, दरोगा जानता है। फिर भी, वह अवनी के खिलाफ झूठा और मजबूत केस बनाता है।
अवनी कहते हैं,’’मैं जेल में तब तक सड़ता रहूंँगा,जब तक निर्दोष न सिद्ध हो लूँ। मैं निर्दोष तभी साबित हो सकता हॅू,जब मुझ पर मुकदमा चले। बहस हो। फिर कोर्ट का निर्णय मेरे पक्ष में हो। लेकिन, मानसिक संतुलन खो चुके आदमी पर मुकदमा आज तक नहीं चल सका। जबकि मैं स्वस्थ हूूॅ। क्या, मैं अब भी पागल हॅू ,दीपांकर! अवनी झूठे हत्या के आरोप में तीस साल से जेल में हैं। दीपांकर उनके बारे में सिलसिलेवार बहुत कुछ लिखना चाहते हैं,लेकिन उसके पहले एक रात जेल में अवनी के साथ एक घटना घट जाती है।इस पर दीपांकर की जेलर कुरैशी से बहस हो जाती है। दीपांकर कहते हैं,मैं दावे से कह सकता हॅू कि,अवनी बाबू को टी.बी. थी। उन्हें जुकाम की दवा डाॅक्टर जान बुझकर देता था। अब आप कुछ मत करिये। अब जो कुछ करेगा प्रेस करेगा। जेलर बड़े ताव से कहता है,वो दिन चले गये, जब किसी पत्रकार का लिखा एक जुमला देश की तक़दीर बदल देता था।’’आज की पत्रकारिता पर यह तीखा व्यंग्य है।
एक सामान्य सी घटना को लेखक ने खोजी पत्रकारिता की शैली में लिखा है। कई जगह भावानात्मक पीड़ा को खुद भी महसूस किया है।‘‘खोई हुई कड़ियां’’ में अंधा कानून की ऐसी जागती तहरीर है, जो पाठक को हिला देती हैं। कई जानकारियों से आवगत कराती यह कथा अंत तक पठनीयता के गुणो से भरपूर है। और यही इस उपन्यास की सार्थकता है।
लेखक - राकेश कुमार सिंह
कीमत- 200 रूपये
प्रकाशक - प्रलेक प्रकाशन मुंबई

@रमेश कुमार "रिपु" 

दर्द की नई तहरीर..



मयंक पांडेय की ‘पलायन पीड़ा प्रेरणा’आम आदमी के दर्द को नए तरीके से रेखांकित करती है। इसमें कोरोना काल की पचास जीवंत कथाएं हैं। किताब की कथा पाठक को झकझोर देती है। हर कथा के दर्द में एक सवाल है। जो कहते हैं 70 साल में कुछ नहीं हुआ। उन्होंने छह साल में आम आदमी को ऐसा दर्द क्यों दे दिया, जो 70 साल के दर्द से भी बहुत ज्यादा है। लोग घरों में कैद थे, मगर सरकार चल रही थी। लोग भूखे प्यासे थे। पैरों में जिन्दगी का दर्द लेकर सड़कों पर चल रहे थे। मगर, सरकार एसी कमरे में थी। आदमी के दर्द की व्याख्या बहुत मुश्किल है।

हर दर्द और छटपटाहट की वजह सिर्फ गरीबी नहीं होती। कंधो पर पुत्र की लाश ढोने वाले आज के हरिश्चन्द्र से सरकार ने कभी नहीं पूछा कि,उसके पेट की भूख कैसी है। आज भी अस्पतालों में पैसा दिये बगैर अपने परिजनों का शव नहीं मिलता। जिस बेटी के लिए माॅ अपनी कई रातों की नींद उढ़ा कर बड़ी की हो और जब उसकी शादी की बारी आए तो उसे कन्यादान करने का सौभाग्य न मिले। ऐसी ही एक माॅ सोनिया की ममता का दर्द कितना बड़ा है,सरकार की व्यवस्था नहीं जानती। सोनिया की बेटी का कन्यादान साजिद ने किया।ऐसी कई भावनात्मक कथाओं का हलफनामा है पलायन,पीड़ा प्रेरणा।

जिन्दगी को जीने के लिए कई दर्दो को संभाल कर रखना पड़ता है। लेकिन उन दर्दो को कैसे संभाल के रखेंगे, जो असंवेदनशील सरकार से मिले हैं। व्यवस्था से मिले हैं। कोरोना काल की पचास जीवंत कथाएं पिछले साल की हैं,लेकिन इस साल भी वो दर्द हमारी पलकों पर हैं। आॅसू सूखे नहीं हैं। कोई भी सरकार नहीं जानती आम आदमी के दर्द के आॅसू कैसे होते हैं।

अपने पिता को गुरूग्राम से 13 वर्षीय ज्योति दरभंगा तक साइकिल से लेकर आई। मात्र एक हजार रूपये उसके पास थे। लेकिन उसके मैनेजमेंट की तारीफ करनी पड़ेगी। उसने सेंकेड हैंड की साइकिल 12 सौ रूपये में ली। पाँंच सौ रूपये दी और शेष राशि उधारी कर दी। सात सौ रूपये में घर तक सफर की। महिलाएं गहने को बहुत मानती है। लेकिन संकट से निपटने में उनका योगदान हमेशा सराहनीय रहे हैं। पुर्णे में सात मजदूरों का परिवार था। पैसे खत्म हो गए। घर लौटने के लिए सबकी महिलाओं ने अपने गहने बेचकर बाइक खरीदने की सलाह दी। इसके बाद सात मोटर साइकिल पर 18 लोगों ने सफर शुरू किया।

देश में कोरोना ने कई सांसों को दर्द से जीतना सीखाया। लाॅकडाउन की वजह से दर्द और परेशानियां सिर्फ मजदूरों की पलकों पर ही आकार नहीं ली। बल्कि, घर में रहने वाले भी विषम परिस्थियों का सामना किये। सरकार ने किसी के पास विकल्प नहीं छोड़ा। आज भी स्थिति वही है। सिर्फ राजनीतिक तस्वीरें बदली है। चुनाव होने के बाद, एक बार फिर देश लाॅकडाउन की गिरफ्त हो जाए, तो कैसी हैरानी?

मयंक ने कोरोना की कोख से जन्मी कथाओं को जीवंत कर दिया है। साथ ही कहानियों से जुड़ी कई जानकारियों का भी समावेश किया है। इसलिए किताब उबाऊ नहीं है।। किताब में मजदूरों के पलायन के दर्दो को तरजीह ज्यादा दी गई है। दरअसल मजदूर वर्ग ही लाॅकडाउन के वक्त मीडिया के केन्द्र में था। सरकार थाली और घंटी बजवाती रही। आपदा से कैसे संघर्ष करें,इसके उपाय नहीं बताई। मजदूर इस देश की रीढ़ हैं। उद्योग धंधो की शिराओं में बहने वाला लहू है। किताब तीन खंडों में है। एक पलायन दूसरा पीड़ा और तीसरा प्रेरणा।

इस किताब से पता चलता है कि देश में परेशानियों से लड़ने की हिम्मत किस तरह लोगों ने दिखाई। तकलीफ और परेशानी की गठरी ढोने वालों की मदद किस तरह लोगों ने की। जीवन का मूल्य तभी है, जब हम किसी की मदद कर सकें। यह किताब हर किसी को पढ़नी चाहिए। इससे आम आदमी को विषम परिस्थितियों में जीने का हौसला और हिम्मत मिलती है। साथ ही मन में इंसानियत की भावनाएं किस तरह आकार लेती है उससे रूबरू होने को मिलता है। किताब की कथा वस्तु बांधे रहती है। यह किताब इस कोराना के दूसरे कहर में भी अपनी पहचान बनाये रखेगा,ऐसी उम्मीद है।

किताब - पलायन पीड़ा प्रेरणा
लेखक - मयंक पांण्डेय
कीमत - 250 रूपये
प्रकाशक - प्रलेक प्रकाशन,मुंबई
@ रमेश कुमार "रिपु"
 

मन से हर कोई है मंटो..



सआदत हसन मंटो का अंदाजे बयां सबसे जुदा था। वे इंसानी कमजोरियों से वाकिफ़ थे। उनके अफ़साने के क़िरदार समाज के हैं। यही वजह है कि अवार्गियां, शरारतें, बदमाशियांँ, हरामीपन और निर्लजता से जुदा नहीं हैं उनके किरदार। जिस जमाने में उन्होंने ठंडा गोश्त लिखा था, उस समय समाज इतना बेशर्म नहीं था। काली सलवार या कहे बू’ और खोल दे’ जैसी कहानियों से आज का साहित्य भरा हुआ है। इंडिया टुडे पत्रिका,जो अपने आप को देश की धड़कन कहती है, बकायदा हर साल सेक्स अंक निकालता है। स्त्री और पुरूष के संबंधों को मंटो ने जो देखा वही लिखा। उन दिनों भी स्त्री-पुरूष की फैंटेसी आज से अलग नहीं थी। बस,बेपर्दा नहीं थी।
आज के इराॅटिक ‘ठंडा गोश्त’ और बू" से जुदा नहीं हैं। हैरानी वाली बात है कि इस कहानी को अश्लील कहा गया। जबकि कहानी के नायक को इंसान बनने की बहुत बड़ी सजा से गुजरना पड़ता है। इसर सिंह और कुलवंत के शारीरिक संबंध का जिक्र जिस तरह किया गया है,वह कहानी की जरूरत है। यह कहानी पुरानी मान्यताओं से पर्दा हटाती है। उसके पौरूष का प्रभावशाली बताने के लिए यह तो बताना ही पड़ेगा कि वो पहले कैसेे था। मंटो कहते हैं, इस कहानी का मामला अदालत पहुंँच कर मेरा भुरकस निकाल दिया।
‘खोल दो’ कहानी झकझोर देती है। बेटी के दुपट्टे को बड़ी हिफाजत से रखने वाला पिता स्ट्रेचर में लाश सी पड़ी बेटी को देखकर कहता है कि मैं इसका पिता हूँ। डाॅक्टर कहता है कि खिड़कियाँ खोल दो। दंगाइयों ने इतनी बार बलात्कार करते हैं कि बेजान सकीना 'खोल दो’ सुनती है तो वह अपनी सलवार नीचे कर देती है। बावजूद इसके पिता के मन में खुशी की इक लहर है कि उसकी बेटी जिंदा है। दरअसल यह कहानी बताती है कि बलात्कार के बाद भी जीवन समाप्त नहीं होता। अवसाद में जाने की बजाय फिर से जीने की हिम्मत करें।
सच तो यह है कि आज भी हर लेखक मन से थोड़ा थोड़ा मंटो हैं। उनकी कहानी में काली सलवार,बू और धुंआ किसी न किसी रूप में मौजूद हैं। ’बू‘ कहानी जैसी तन्हाई से केवल मर्द ही नहीं, महिलाएं भी उकताती हैं। यह अलग बात है कि कहानी बू 'पर तो डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स के तहत भी मुकदमा चला।
मेरा मानना है कि मंटो को बदनाम करने वालों की लाॅबी दरअसल मंटो को बदनाम नहीं, बल्कि मशहूर करने के लिए उन्हें कोर्ट तक घसीटा।
बहरहाल ‘काली सलवार’ और ‘बू’ पर चलाये गये मुकदमों में जहां मंटो को बरी किया गया वहीं ‘धुआं’ को लेकर उनकी पहले गिरफ्तारी और जमानत फिर बाद में मुकदमे के फैसले के दौरान दो सौ रुपये जुर्माने की सजा सुनाई गई। मंटो होना इतना आसान नहीं है।
@ रमेश कुमार "रिपु"


 

नए लिबास में व्यंग्य..



समकालीन व्यंग्य के स्वरूप से अलग हटकर नये लिबास में सेवा राम त्रिपाठी का व्यंग्य संग्रह ‘‘हाॅ,हम राजनीति नहीं कर रहे’’ हैं। पठनीय कृति है। नेशनल हाइवे की तरह लम्बे राजनीतिक चरित्र के दोगलेपन, बाजारवाद, धर्म समाज, पुलिस, शिक्षा जगत,विकृत संस्कृति,सरकारी व्यवस्था आदि पर तीखी मिर्ची सी कटाक्ष है। साथ ही सामाजिक मूल्यों की बातों का लहजा भी तीखा है। राजनीति के समूचे कोणों का सामाजिक जीवन पर किस तरह का असर है, उसके बारे में यत्र तत्र दिलचस्प कटाक्ष है। जाहिर सी बात है कि आम भारतीय जीवन में पुर्नविचार की जरूरत है।
राजनीति और समाज की उन पक्षों पर व्यंग्य किया गया है,जिसमें सुधार की जरूरत है। सामाजिक चिंताओं के बीच हर रचना आम व्यक्ति को अगाह भी करती है। जैसा कि ‘टांग अड़ाने का सुख’ क्या है, वही जानता है, जो इसमें निपुर्ण है। हर छोटे-बड़े काम में अपनी टांग अड़ाने के लिए मानो दफ्तर के लोग कसम खाये हुए हैं। बिना नेग लिए कोई भी अच्छा काम नहीं करेंगे। बहुत लोग अड़गे बाजी को हाजमा चूरन की तरह इस्तेमाल करते हैं। इस किताब में कुल 29 व्यंग्य रचनायें हैं।
‘राम प्यारे जी परम प्रसन्न हुए’ से सीख मिलती है,कि कलयुग में प्रसन्न रहने के लिए जरूरी है,कि आम व्यक्ति राम प्यारे जैसा हो। उसके चरित्र का निधन होना जरूरी है। झूठ बोलने का दौरा पड़ना जरूरी है। ‘पेड़ लग रहे हैं’ में एक सवाल छोड़ा गया है, कि जिस तरह वॄक्षारोपण के विज्ञापन होते हैं,उसी तरह मरे पेड़ों का फोटो खीच कर राष्ट्रीय स्तर पर शर्म क्यों नहीं मनाया जाता। समाज में कितने प्रकार के लोग है जो अपना रंग जमाने में लगे रहते हैं उसका चिट्ठा है‘मुद्रायें रंग जमाने की’। गिरगिट की तरह नेता रंग बदलते हैं। यह गिरगिट का सीधा अपमान है। इसलिए कि उसके पास सीमित रंग है,जबकि नेताओं के पास रंगों की फैक्ट्री है।
‘प्रजातंत्र ठेके पर’ में यह बताया गया है, कि हर व्यक्ति ठेके के महत्व को अब जान गया है। ठेका लेना एक राष्ट्रीय कार्यक्रम है। इसका प्रजातंत्र की कार्यशाला से सीधा सरोकार है। यानी देश में हर चीज ठेके पर है। देश में बिखरी समस्याओं के बारे में आम आदमी यही कहता है ‘मेरे सोचने से क्या होगा’।क्यों कि घर का जनतंत्र झेलने में लोहे के चने चबाने पड़ते हैं। वैसे घर के जनतंत्र के चावल से देश के जनतंत्र की हांडी की तासीर को परखा जा सकता है। ‘रागे हुजूर की महत्ता अद्भुत है। इसमें इतनी ताकत है, कि तीनों लोक, चौदह भुवनों तक सुयश पाने का सुख है। रागे हुजूर का महत्व समझने वाले वैताल को भी अपने पाले में कर सकते हैं। ‘हाॅ हम राजनीति नहीं कर रहे’ यह उस व्यवस्था और समाज की गांठ खोलती है,जहांँ लोग अपनी राजनीति को छिपाते हैं। जैसा कि आरएसएस कहता है, कि वह राजनीति नहीं करता। लेकिन वह कभी नहीं बताया कि भाजपा और अन्य इकाइयों से उसके रिश्ते क्या हैं? आदर्श व्यवस्था की वकालत करने वालों के दोहरे चरित्र के अंदर के सच को यह किताब में साफ-साफ दिखाती है।
‘मन की गांठों का गणित जिन्दगी की ज्यामितति से अलग है। पटाने की पटखनी से हर कोई चित हो जाता है। दीनानाथ के विकास की कला को हर किसी को समझना चाहिए। ‘इमेज है तो लाइफ है’भावनात्मक रचना है। हर किसी को लगता है कि समाज में इमेज नहीं तो लाइफ नहीं। पुलिस,सत्ता पक्ष,विपक्ष हर किसी को अपने इमेज की चिंता है, पर गरीब को नहीं। ‘चुनाव यानी ठेंगा’ एक सच की बानगी है। चुनाव ठेंगा दिखाने के लिए जीते जाते हैं। वोटर भी अब प्रत्याशी के वायदे पर भरोसा नहीं करता,वह भी दूसरे को वोट देकर ठेंगा दिखाने लगा है। ‘पीएचडी का मारा’ की सच्चाई यह है कि विभागाध्यक्ष बनाने का नहीं बल्कि, खुद के उल्लू बन जाने का धंधा है। ‘कुलपति बनने का दिल करता है’ आज की राजनीतिक सच्चाई की बानगी है। सत्ता तक पहुंच है, तो आपका भी मन कुलपति बनने की सोच सकता है।
कहीं -कहीं व्यंग्य संवाद शैली में शहरी भाषा के साथ ही देहाती पुट भी है। धरती के प्रेत‘ शीर्षक की रचना पढ़ते वक्त लगता है, कि लेख है। इसलिए कि धरती में नाना प्रकार के जिंदा प्रेत हैं। जिनसे हर वर्ग त्रस्त है। खासकर पटवारी और पुलिस से। पटवारी किसानों की नींदें उड़ाये रखने का ठेका ले रखे हैं। किसान इसकी शिकायत तहसीलदार से करता है। वे कहते हैं,तुम्हें गांव में नहीं रहना है! पटवारी से बैर बिसाहते हो। उस पर मेरा भी वश नहीं चलता। जाहिर सी बात है, कि पटवारी नये जमाने का नई सभ्यता का रिफाइण्ड प्रेत हैं। समाज में प्रेतों का उत्पादन लार्ज स्केल पर हो गया है।
मंत्री जी रोज आया करें, गर्व से कहो हम नकलची हैं,मूल्यांकन जारी है,ये पीछे पड़ जाने वाले,खाने पचाने की सस्कृति आदि रचनायें हमारे रोजमर्रा की जिन्दगी के दिलचस्प खुलासे करती हैं। व्यवस्था के चेहरे से खुलकर नकाब उतार कर लेखक ने अंदर का सच दिखाया है। मानवीय सरोकार के पक्ष के साथ यह किताब चालू व्यंग्य से अलहदा हैं। किताब की हर रचना में कुछ अंश ऐसे भी हैं कि पाठक पढ़ते -पढ़ते कोट करने से अपने आप को नहीं रोक सकता।
लेखक - सेवाराम त्रिपाठी
प्रकाशक -कलमकार मंच
कीमत- 150रुपये
@रमेश कुमार "रिपु"