Wednesday, July 17, 2019

सबसे बड़ा बौद्ध स्थल सिरपुर

                     
 छत्तीसगढ़ में  नालंदा से भी बड़ा बौद्ध स्थल सिरपुर है। क्यों कि नालंदा में चार बौद्ध विहार मिले हैं,जबकि सिरपुर में दस बौद्ध विहार पाए गए। दस हजार बौद्ध भिक्षुकों को पढ़ाने के पुख्ता प्रमाण के अलावा बौद्ध स्तूप भी हैं। पाण्डुवंशीय शासकों के काल में सिरपुर ही कोसल की राजधानी थी। यहां ब्राम्हण,बौद्ध और जैन तीनों धर्म के लोग थे,यानी सर्वधर्म समभाव की भावना थी। ईटो से बना लक्ष्मण मंदिर अद्भुत है। वहीं पश्चिममुखी विशाल शिवमंदिर के एक ही जगतपीठ पर पांच गर्भगृह निर्मित है जो कि देश में सबसे अद्वितीय और ऊंची है।

 0 रमेश कुमार ‘‘रिपु‘‘
                      सिरपुर का अतीत,सांस्कृतिक समृद्धि और वास्तुकला वक्त की कब्र में दफ्न था। इसके अतीत की परतें अनावृत हुई तो कई चैकाने वाले तथ्यों से सामना हुआ। चैकाने वाली बात यह थी कि पाण्डुवंशीय शासकों के काल में सिरपुर ही दक्षिण कोसल की राजधानी थी। यहां ब्राम्हण,बौद्ध और जैन तीनों धर्म से संबंधित मूर्तियांें का निर्माण हुआ। यानी सर्वधर्म समभाव की भावना थी। अभी तक यह माना जाता रहा है कि नालंदा,तक्षशिला और पाटिल पुत्र ही शिक्षा के स्तंभ है। नालंदा का बौद्ध विहार ही सबसे बड़ा है,लेकिन यह सच नहीं है। नालंदा में चार बौद्ध विहार मिले हैं, जबकि सिरपुर में दस बौद्ध विहार पाए गए। इनमें छह,छह फिट की बुद्ध की मूर्तियां मिली हैं। सिरपुर के बौद्ध विहार दो मंजिलें हैं जबकि,नालंदा के विहार एक मंजिला ही हैं। यहां 10000 बौद्ध भिक्षुकों को पढ़ाने के पुख्ता प्रमाण मिले हैं। सिरपुर का बौद्ध मठ नालंदा से अधिक विकसित था। चीनी यात्री व्हेनसांग के अनुसार दक्षिण दिशा में कुछ दूरी पर एक प्राचीन संघाराम था। जिसके करीब एक स्तूप था। इसे राजा अशोक ने बनवाया था। सम्राट अशोक के समय के धर्मलेख सरगुजा के रामगढ़ की सीताबोंगरा और जोगीन्मारा गुफाओं में भी पाए गए हैं। मेघदूत में कालिदास द्वारा वर्णित रामगिरि इसी रायगढ़ को माना जाता है। नागार्जुन बोधिसत्व का इस संघाराम में निवास था। वैसे बौद्ध विद्वान नागार्जुन के सिरपुर आने के संबंध में इतिहासकारों में एक मत नहीं है। व्हेनसांग के अनुसार यहां सौ संघाराम थे। खैर अभी तक खुदाई में इतने नहीं मिले हैं,लेकिन संभावना है कि खुदाई हुई तो मिल सकते हंै। सिरपुर के बौद्ध विहारों में जातक और पंचतंत्र की कथाओं का अंकन है। सिरपुर में बुद्ध के चैमासा बिताने के प्रमाण हैं। भगवान बुद्ध के समय गया से लाया गया वटवृक्ष अभी भी बाजार क्षेत्र में है।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 85 किलोमीटर दूर जंगलों के बीच बसा सिरपुर गांव को पुरातात्विक पहचान न मिलती,यदि सागर विश्वविद्यालय और मध्यप्रदेश शासन पुरातत्व विभाग की ओर से एम.जी.दीक्षित के संयुक्त निर्देशन में 1953 से 1956 तक उत्खनन ना किया गया होता तो, टीले में जो राज दबे हुए थे,वे दबे ही रहते। दो बौद्ध बिहार अनावृत हुए। जिसमें एक का नाम आनंद प्रभुकुटी विहार और दूसरे का नाम स्वस्तिक विहार रखा गया। उत्खनन में कई एतिहासिक धरोहर की चीजें मिलीं। सिलबट्टा, बर्तन, जंजीर, दीपक,पूजा के पात्र,कांच की चूड़ियां,मिट्टी की मुहरें,खिलौने, आभूषण बनाने के अनेक उपकरण आदि। तीन सिक्के भी मिले। एक सिक्का शरभपुरी शासक प्रसन्न मात्र का,दूसरा कलचुरी शासक रत्नदेव के समय का और तीसरा सिक्का चीनी राजा काई युवान(713-741 ईस्वी) के समय का है। 
पांचवी शताब्दी में बसा सिरपुर
सिरपुर की प्राचीनता का सर्वप्रथम परिचय शरभपुरीय शासक प्रवरराज और महासुदेवराज के ताम्रपत्रों से होता है। जिनमें श्रीपुर से भूमिदान दिया गया था। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि पांण्डुवंशीय शासकों के काल में सिरपुर राजनीतिक,सांस्कृतिक,अध्यात्मिक और कला केन्द्र के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। ऐतिहासिक जनश्रुति है कि भद्रावती के सोमवंशी पाण्डव नरेशों ने भद्रावती को छोड़कर सिरपुर बसाया था। ये राजा पहले बौद्ध थे,बाद में शैवमत के अनुयायी बन गए। सिरपुर को पांचवी शताब्दी में बसाया गया था। ख्ुादाई से पता चलता है कि इसके पुरातात्विक स्मारक,समृद्ध परंपरा और सांस्कृतिक विरासत बेजोड़ थी। छठवीं सदी से 10 वीं सदी तक यह बौद्ध धर्म का प्रमुख तीर्थ स्थल था। ऐसी मान्यता है कि 12 वीं सदी में आए विनाशकारी भूकम्प में कोसल तबाह हो गया था।
बौद्ध सम्प्रदाय सिरपुर पहुंचा कैसे
सवाल यह है कि यहां बौद्ध सम्प्रदाय के लोग बसे कैसे। नागार्जुन की उपस्थिति के संबंध में एक मत नहीं है। चीनी इतिहासकार व्हेनसांग के अनुसार सिरपुर में महात्मा बुद्ध के समय से बौद्ध धर्म का इतिहास मिलता था। पांण्डुवंश के प्रारंभिक शासक भवदेव रणकेसरी बौद्ध धर्म के उपासक थे। महाशिवगुप्त बालार्जुन शैवमतावलंबी थे। ऐसी मान्यता है कि महाशिवगुप्त बालार्जुन धर्म सहिष्णु राजा थे। इसलिए उनके राज्य में शैव,वैष्णव और बौद्ध धर्म अस्तित्व में थे। बालार्जुन का हर संम्प्रदाय के प्रति झुकाव था। इसलिए उन्होंने बौद्ध विहारों के प्रति अपनी उदारता दिखाते हुए ना केवल धन दान में दिए बल्कि, संरक्षण भी दिए थे। इसलिए यहां बौद्ध सम्प्रदाय विकसित और प्रचारित हुआ। उस समय यहां 100 संघाराम थे तथा महायान संप्रदाय के दस हजार भिक्षु निवास करते थे। 
तीवर देव सबसे बड़ा बौद्ध विहार
दक्षिण कोसल में अब तक के सबसे बड़े विहार के रूप में तीवर देव बौद्ध विहार है। जो कि 2002-03 के उत्खनन मे मिला। तीवर देव महाविहार विशाल और भव्य है। इसकी शिल्पकला अद्भुत है। यह बौद्ध विहार लगभग 902 वर्ग मीटर में फैला है। इसे दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम विहार के मध्य में 16 अलंकृत प्रस्तर स्तंभों वाला मंण्डप है। इन स्तंभों पर ध्यान में लीन बुद्ध,मोर,चक्र,सिंह आदि का शिल्पांकन है। यह विहार भी अन्य विहारों की तरह है। चारों ओर भिक्षुओं की कोठरियां है,मध्य में आंगन है। गर्भगृह है। गर्भगृह के सामने वाले मंण्डप के चारों ओर गलियारा है। इस विहार में जल निकासी के लिए प्रस्तर निर्मित भूमिगत नालियों के अवशेष मिले हैं। इस विहार के प्रवेश द्वार का शिल्पांकन बहुत ही अलंकृत है। हाथियों के मैथुन मुद्रा में प्रदर्शित किया गया है। जबकि अन्य बौद्ध विहारों में ऐसा नहीं है। इसके अलावा आलिंगनबद्ध प्रणय प्रदर्शित करती युगल मूर्तियां भी आकर्षण का केन्द्र है। मगरमच्छ एवं वानर की कथा को उकेरा गया है। कुम्हार द्वारा चाक पर मिट्टी के बर्तन बनाने का दृश्य व्यवसाय एवं उसके महत्व को उल्लेखित करते हैं। 
ईटों का बौद्ध विहार
सिरपुर में सभी बौद्ध विहार ईटों से निर्मित हैं। कह सकते है कि आज के एक नम्बर के ईंटे से अच्र्छे इंटे प्रयोग में लाए गए थे। विहारों की तल योजना में गुप्तकालीन मंदिर तथा आवासीय भवन का निर्माण किया गया है। विहार में भिक्षुओं के ध्यान,निवास,स्नान के अलावा अध्यापन की सुविधाएं थी। खुदाई में 43 रिहायसी कमरों के अवशेष मिले हैं। प्रत्येक विहार के सामने बरामदा और सभागृह है। पीछे की ओर भिक्षुओं के निवास स्थल है। कुछ कमरें बडे़ हैं,जिसमें तीन भिक्षु रह सकते हैं। कुछ बहुत ही छोटेे हैं,जिसमें एक ही व्यक्ति रह सकता है। महाशिवगुप्त बालार्जुन के शासन काल में आनंद प्रभु नामक बौद्ध भिक्षु ने विहार का निर्माण कराया था। आनंद प्रभु कुटी विहार में 16 स्थूल प्रस्तर स्तंभ हैं। सभा मंडल,छज्जा और प्रतिमाएं इसी पर आधारित हैं। बुद्ध की एक प्रतिमा है जो बंद कमरे में है। इस प्रतिमा के दक्षिण दिशा में पद्मपाणि की पूर्ण आकार की प्रतिमा है। देव मंदिर के दक्षिण में गंगा की और वाम में यमुना की प्रतिमा है। मठ के बरामदे में 14 कोठरियां है। सभी में आले है। एक आला दरवाजे की सांकल के लिए,दूसरा दीपक के लिए, तीसरा ताले के लिए और चैथा वहां निवास करने वाले भिक्षुओं के सामान रखने के लिए था। यह मठ दो मंजिला है। हर मठ में एक सीढ़ी है। जिससे ऊपर जाया जा सकता है। यहां एक प्रवेश द्वार है। इससे लगा कमरा कोषागार लगता है। इसलिए कि कोषागार में जाने के लिए समीप ही एक कमरे की दीवार के आधार के साथ खिड़कीनुमा पल्ला होने का संकेत मिलता है। अन्न भंडार और कोषागर की व्यवस्था हर मठ में देखने को मिलती है। सामूहिक अध्ययन के लिए एक बड़ा कमरा है। छोटे, छोटे कमरे और कुछ थोड़ा बड़े हैं। ईटों से बना मठ बाहर से देखेने पर नहीं लगता कि अंदर कई कक्ष होंगे।
एक सच ऐसा भी
खुदाई में तीन अन्य छोटे मठ भी मिले हैं। इनमें एक भिक्षुणी मठ था। इसमें बड़ी संख्या में सीपी तथा कांच की चूड़ियां मिली है। इस मठ में एक नक्काशीदार छोटे स्तूप व एक चमकता हुआ वज्र मिला है। मिली मुद्राओं पर बौद्ध धर्म से संबंधित सूक्तियां अंकित है। बुद्ध के अलावा अन्य मूर्तियांे में सातवीं शताब्दी के अक्षरों में बौद्ध बीजमंत्र उत्कीर्ण है। गंधेश्वर मंदिर में मिली बुद्ध की प्रतिमा में आठवीं शताब्दी के अक्षरों में बौद्धमंत्र उत्कीर्ण है। बताया जाता है कि आनंद प्रभु कुटि विहार का उपयोग बौद्ध भिक्षु-भिक्षुणियों द्वारा आवास हेतु किया जाता था। इसके बाद इस विहार का उपयोग शैव धर्मानुयायियों के द्वारा किया गया। इन शैव धर्मावलम्बियों ने या तो बौद्ध धर्मानुयायियों को विहार से निर्वासित कर दिया या इनकी खाली कोठरियों पर कब्जा कर लिया होगा। शैव धार्मवलम्बियों ने बौद्ध विहार में रखी बुद्ध की प्रतिमा भी नहीं हटाए, इसके पीछे मान्यता है कि बुद्ध विष्णु के दशावतारों में एक है।
गठिया पत्थर की मूर्तियां
सिरपुर की सभी मूर्तियां गठिया पत्थर की बनी हुई है। यहां सभी स्थानों के शिल्प चित्रण में हंस और मयूर   है। ज्यादातर मूर्तियों में दैहिक सौन्दर्य में लयात्मकता,केामलता और रसात्मकता की झलक दिखती है।   लेकिन एक बात चैंकाती है कि शिव पार्वती और गणेश की प्रतिमा के साथ महिषासुरमर्दिनी की मूर्तियांे के साथ गंगा की मूर्तियां है। बौद्ध विहारों से बुद्ध की प्रतिमा को हटाया नहीं गया। ऐसा माना जाता है कि बुद्ध की प्रतिमा के द्वार पर गंगा की प्रतिमा की उपस्थिति का संबंध हिन्दू धर्म के साथ साथ बौद्ध धर्म से भी है। इसलिए बौद्ध विहार के पास ही शिव की प्रतिमाएं विराजी रहीं।
चैत्य मेहराब से अलंकृत लक्ष्मण मंदिर  पुरातत्व के जानकार कौशलेश तिवारी कहते हैं,‘‘ईटों से निर्मित लक्ष्मण मंदिर देश में अद्वितीय है। इस मंदिर का निर्माण काल ईस्वी 650 के करीब का है। इसे महाशिवगुप्त बालार्जुन की माता वासटा अपने पति हर्षगुप्त जो वैष्णव धर्मानुयानी थी,हर्षगुप्त की मौत के बाद शैव धर्म अपना ली,उनकी पुण्य अभिवृद्धि के लिए लक्ष्मण मंदिर का निर्माण कराया था। लक्ष्मण मंदिर का शिखर कई ढलाव वाला है। यह शिखर चैत्य मेहराब रचना से अलंकृत है। जिनके बीच में स्तंभ के समान सीधे दंड बने हुए है। इसके ऊपर कुडु से अलंकृत कपोतों की रचना है। सभी शिखर एक के ऊपर एक बने हुए है। चैत्य मेहराबों की दो पत्तियों से सुसज्जित हैं। जो छोटे होते गए हैं। मंदिर के प्रवेश द्वार पर शेषशायी विष्णु हैं, उभयद्वार शाखा पर विष्णु के प्रमुख अवतार,कृष्णलीला के दृश्य,मिथुन दृश्य और वैष्णव द्वारपालों का अंकन है। इस मंदिर की बनावट की खासियत यह है कि शिखर को सजाने के लिए चैत्य गवाक्षों की अर्द्ध पंक्त्यिों से की गई है। इसके क्षैतिज पट्टियों पर कगूरों और लघु चैत्य पर ताखों की सजावट है। शिखर का कलश नष्ट हो गया है। खुदाई से मिली मूर्तियों को लक्ष्मण मंदिर के पास बने संग्रहालय में रखी हुई हैं। बहरहाल सिरपुर की खुदाई बंद है,यदि पुनः होती है तो कई अद्भुत और अकल्पनीय साक्ष्यों से सामना हो सकता है।











चढ़ने लगी खुशियों की धूप

         
आधी दुनिया ने दुनिया बदलने की ठानी तो कचरे के ढेर की जगह अब फूलों का उद्यान बन गया। नक्सल प्रभावित गांवों के लोगों ने प्रशासन से सड़कें मांगी। नहीं मिली तो पहाड़ का सीना चीरकर अपने लिए सड़कें बना ली। माओवादियों की सोच बदली तो लाल गलियारे का फैलाव रूका। धीरे धीरे बस्तर करवट बदलने लगा। विकास की सुगंध फैली तो गांव की अटारी में खुशियों की धूप भी चढ़ने लगी है।

0 रमेश कुमार ‘‘रिपु‘‘
                   छत्तीसगढ़ का जिला अंबिकापुर बदल गया है। सिर्फ शहर ही नहीं बदला है बल्कि, यहां की आबो हवा भी बदल गई। किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि चंद महिलाएं अंबिकापुर की पहचान बदल देंगी। कुछ जागरूक महिलाओं ने एक ऐसे काम का बीड़ा उठाया जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। अंबिकापुर के प्रवेश द्वार पर करीब 15 एकड़ की जमीन पर कचरे का पहाड़ था जो बढ़ता ही जा रहा था। इसी के साथ दुर्गंध भी। लेकिन कोई उसे हटाने की बात नहीं करता था। सत्यमेय जयते टी.वी सीरियल ने महिलाओं की सोच ही बदल दी। निकल पड़ी कुछ महिलाओं की टोली। कचरा सड़कों पर न फेंके,हमें सौंप दें,हम रोज आपसे कचरा ले लेंगी। उन्हें आइडिया मिला टी.वी से कि यदि कचरे में शामिल प्लास्टिक,लोहा,कागज,इलेक्ट्रानिक सामान आदि की छटनी कर उन्हें बेचा जाए तो आमदनी भी हो सकती है,साथ ही शहर भी स्वच्छ रहेगा। फलों के छिलके,बचे हुए भोजन आदि को अलग कर पशुओं कों दे तो उनका पेट भी भरेगा और गाय,भैंस दूध भी देंगी। जागरूक महिलाओं ने सबसे पहले इसकी शुरूआत कुछ वार्डो में की। चमत्कारी परिणाम आने पर हर वार्ड में महिलाओं ने ठोस अपशिष्ठ प्रबंधन केन्द्र खोल दिया। इतना ही नहीं अब 15 एकड़ की जमीन पर कचरे की ढेर की जगह एक सुन्दर उद्यान है। फूलों की महक लोगों को लुभा रही है।
महिलाओं और शासन के सम्मलित प्रयासों का ही यह कमाल है कि आज वार्ड का हर पार्षद अपनी निधि से हर घर में दो, दो डस्टबीन उपलब्ध करा दिया है। एक नीला और दूसरा लाल। नीला सूखे कचरे के लिए और लाल ऐसे कचरे के लिए जिसमें सड़न की संभावना है। महिला समूहों के काम को सम्मान मिल रहा है। और सभी कह रहे हैं कचरे से सोना निकल रहा है और लोकसुराज की तस्वीर महिलाओं ने गढ़ दिया। इसे सेनेटरी पार्क कहा जाता है। स्वच्छ अंबिकापुर मिशन सहकारी मर्यादित समिति ने एक फेडरेशन बनाया है। 39 समूह है। जिसमें 410 सदस्य हैं। इसकी अध्यक्ष श्रीमती शशिकला सिन्हा कहती हैं,‘‘पूर्व कलेक्टर रितु जी ने सत्य मेव जयते के श्रीनिवासन सर को यहां बुलाकर उनसे महिलाओं को प्रशिक्षण दिलाया। बात 2015 की है।उसके बाद से ही स्वच्छ अंबिकापुर की दिशा में महिलाओं ने आगे हाथ बढ़ाया। महिलाएं जब घर को व्यवस्थित कर सकती हैं तो फिर अपने शहर को क्यों नहीं। बस इसी सोच को मुकम्मल करने की हमने ठानी। अब इसे कोई भी गंदा शहर नहीं कहता‘‘। समिति की सचिव नीलम बखला कहती हैं,‘‘नगर निगम से हमें कचरा एकत्र करने का रिक्शा मिला है। हर रिक्शे के साथ तीन चार महिलाएं होती हैं। पूरे शहर में अलग अलग सेंटर बनाए गए हैं। घर घर जाकर कचरा एकत्र करने के बाद उसे छांटा जाता है। उसमें से प्लास्टिक,लोहा आदि अलग किया जाता है। ताकि कचरे का निष्पादन ठीक से किया जा सके’’।
और जिन्दगी गुलाबी हो गई
अंबिकापुर की गीता कभी सपने में भी नहीं सोची थी कि एक दिन उसकी जिन्दगी भी गुलाबी हो जाएगी। इसलिए कि दो बच्चों की गीता के पति की अचानक मौत हो जाने से उसकी किस्मत में आंसू के सिवा कुछ रह ही नहीं गया था। हर दिन एक ही ख्याल इस बद्तर जिन्दगी से तो मर जाना ही अच्छा है। लेकिन बच्चों का भविष्य संवारने की उत्कंठा से वह चल पड़ी। लोगों ने उसका उत्साह बढ़ाया और वह मनिहारी का सामान साइकिल पर लेकर निकल पड़ी। रोटी का इंतजाम होने लगा। सिलाई आती थी,एक दुकान खोल ली। एक दिन वह भी जल गई। फिर गीता सड़कों पर। हिम्मत नहीं हारी। उसे पता चला कि यदि कोई महिला फोरव्हीलर चलाना चाहती है तो सरकार प्रशिक्षिण देती है। गीता ने सोचा सीखने में क्या बुराई है। वह ड्राइवरी सीख ली। प्रशिक्षण के दौरान ही उसे पता चला कि प्रशिक्षित महिला वाहन फायनेंस कराना चाहे तो सरकार मदद करती है। गीता ने आटो फाइनेंस करा लिया और गुलाबी जैकेट पहनकर आटो के साथ रेलवे स्टेशन जा पहुंची। इस समय गुलाबी जैकेट पहनें 22 महिलाएं आटो चला रही हैं। तारा प्रजापति भी गुलाबी जैकेट में और उनके पति खाकी जैकेट में। कई महिलाएं टेªक्टर भी चला रही हैं। वे अपने हुनर का इस्तेमाल खेती में कर रही हैं। कलेक्ट्रेड में तीन महिलाओं ने सायकल स्टैंड का ठेका ले लिया है। नग्मा कहती हैं,अच्छा लगता है जब लोगों से सुनती हॅू कि ठेकेदारी में भी महिलाएं सफल हो गई हैं। कलेक्ट्रेड में वाहन पार्किग का ठेका श्रीमती अंजुम बानों के पास है।
जहां चाह,वहां राह
नक्सल प्रभावित बस्तर के जगदलुपर मुख्यालय से 70 किलोमीटर दूर लोहंडीगुड़ा जनपद के तहत ककनार से होकर पुसपाल और कोरली गांव पहुंच विहीन इलाके में आते हैं। लोहंडीगुड़ा विकासखंड नक्सल प्रभावित इलाका होने के चलते अतिसंवेदनशील इलाका है। यहां घाटी के नीचे दो ग्राम पंचायत ककनार और चंदेला ब्लॉक मुख्यालय से 25 किमी की दूरी पर बसे हैं। यहां पहुंचने के लिए पहाड़ी रास्ता ही एकमात्र रास्ता है। ग्राम पंचायत ककनार के पुसपाल गांव में आने,जाने के लिए पहाड़ी मार्ग के अलावा और कोई रास्ता नहीं था। प्रशासन और सरकार से कई बार मांग की गई लेकिन किसी ने भी नहीं सुनी तो ग्रामीण खुद ही जुट गए पहाड़ तोड़ने में। आजादी के इतने वर्ष के बाद भी शासन,प्रशासन यह कभी जानने की कोशिश नहीं किया कि पुसपाल और कोरली गांव के ग्रामीणों की जरूरत क्या है। ग्रामीणों के पहाड़ तोड़कर रास्ता बनाए जाने की खबर स्थानीय विधायक दीपक बैज को लगी तो वे मौके पर पहुंच कर ग्रामीणों का हौसला अफजाई किया साथ ही ग्रामीणों को बधाई देते हुए मार्ग के मुरमीकरण के लिए एक लाख रुपए देने की घोषणा की। गौरतलब है कि कुछ महीने पहले भी लोहंडीगुड़ा ब्लॉक के सैकड़ों ग्रामीणों ने भेजा और सालेपाल में भी इसी तरह पहाड़ तोड़कर सड़क बनाया था। इलाके में अब तक का ये तीसरा मामला है, ग्रामीणों ने स्वस्फूर्त इस तरह का कदम उठाया है। अब ग्रामीणों को इन्द्रवती नदी और पहाड़ियों को पार करके चंदेला एवं ककनार नहीं जाना पड़ेगा। अब वे सीधे परोदा पहुंच कर सीधी सड़क पकड़कर ब्लाक मुख्यालय लोहंडीगुड़ा पहुंच जाएंगे। लौहंडीगुड़ा जनपद के सी.ई.ओ अनिल टोम्बरे कहते हैं,ग्रामीण  सड़क बनाने की मांग को लेकर आए थे,लेकिन जहां सड़क बनाने की बात कर रहे थे,वह क्षेत्र वन विभाग का है। इसलिए समस्या आ रही थी‘‘। गांव के मोहन भगत बघेल ने बताया कि पिछले साल बारिश में गांव के चंदरू की तबियत खराब होने पर लौहंडीगुड़ा अस्पताल ले जाने के लिए निकले लेकिन पहाड़ी रास्ता होने की वजह से भारी दिक्कतें आईं। इन्द्रावती नदी उफान पर थी। गांव टापू में तब्दील हो चुका था। करीब नौ घंटे तक पेडों़ और चट्टानों के बीच रहकर गुजारना पड़ा। चंदरू दर्द से छटपटाता रहा। नदी का पानी उतरने के बाद ही अस्पताल पहुंचे। चंदरू की घटना ने हम सभी की आॅखें खोल दी। गांवों वालों ने मिलकर पहाड़ तोड़कर सड़क बनाने का निर्णय लिया। और पुसपाल और कोरली के करीब 130 परिवार सड़क बनाने के लिए जुट गया। सबने हाथ बढ़ाया और देखते ही देखते तीन किलोमीटर तक की सड़क बन गई। प्रशासन के पास जाकर गिड़गिड़ाने से मुक्ति मिल गई। प्रशासनिक अमला इसका डामरीकरण कर दे तो हमेशा के लिए रास्ता सुगम हो जाएगा।
एजूकेशन हब में तब्दील बस्तर
छत्तीसगढ़ के बस्तर में एक दशक पहले जिन्दगी आसान नहीं थी। नक्सल प्रभावित जिलों में शाम ढलते ही घरों के दरवाजे बंद हो जाया करते थे। माओवादियों के बूटों की आहट और गोलियांे की धमक से गांव हमेशा दहशतजदा रहते थे। लेकिन अब घुर नक्सली क्षेत्रों में खुशियांे की धूप चढ़ने लगी है। माओवादियों ने बस्तर के सैकड़ों स्कूलों को बम से ध्वस्त कर दिए थे। इसलिए कि बच्चे अशिक्षित रहेंगे तो उन्हें आसानी से दिगभ्रमित करके माओवादी बना सकेंगे। लेकिन रमन सरकार ने बच्चों केा शिक्षित और जागरूक करने के लिए नए स्कूल खोले। बस्तर कोे घोर नक्सली जिला नारायणपुर के गरांजी में 70 एकड़ में एजुकेशन हब, इसमें केन्द्रीय विद्यालय, माॅडल स्कूल, आदर्श बालक-बालिका स्कूल है। बीजापुर में 741 प्राइमरी,178 माध्यमिक और 27 हायर सेकंडरी स्कूल के साथ पाॅलीटेक्निक, दो काॅलेज के जरिए शिक्षा की ज्योति जल रही है। बस्तर के हर जिले में लाइवलीहुड काॅलेज खोल कर एजूकेशन हब में बस्तर को तब्दील किया। जिसका जिक्र प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी अपने भाषण में अक्सर किया करते हैं। इस समय प्रदेश के 27 जिलों में लाइवलीहुड काॅलेज है।
एक द्रोणाचार्य ऐसा भी
नक्सली क्षेत्र के युवा गुमराह होकर बंदूक उठाकर माओवादी न बन जाए इसकी चिंता अब हर घर में रहती है। गांवों वालों की तरह आर. डी. ए. के सीईओ महादेव कावरेे को भी है। बीजापुर जिले के छोटे से गांव बोरजे से निकलकर आईएएस बनने वाले महादेव कावरे अपने घर में ही 40 बच्चों का शिक्षा दे रहे हैं। इतने ही बच्चों का कॅरियर भी संवार चुके हैं। डिप्टी कलेक्टर महादेव कावरे का अब प्रमोशन हो गया है लेकिन गांवों वाले नहीं चाहते कि वे यहां से जाएं। वे बताते हैं कि गांव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ने के दौरान नक्सलियों ने सरपंच की हत्या कर दी थी। सरंपच के दोनों बच्चे भी उनके साथ ही पढ़ते थे। इस घटना ने उनकी सोच बदल दी। उन्होनें ठाना कि चाहे कुछ भी हो जाए गांवों के युवाओं और बच्चों को माओवादी नहंीं बनने दूंगा। डिप्टी कलेक्टर बनने के बाद से वे लगातार युवाओं को मार्गदर्शन देते आ रहे हैं और बच्चों को अपने ही घर में शिक्षा दे रहे है। गांवों वाले उनकी सुरक्षा के लिए रात रात भर जागते हैं ताकि माओवादी उन्हें
लाल गलियारे से की तौबा
समाज की मुख्यधारा से जुड़ने की यह इच्छा शक्ति ही है कि अब लाल गलियारे से लोग ऊब कर स्वेच्छा से माओवादी सरेंडर करने लगे हैं। बस्तर के साथ खुद को भी बदलने की धारणा की वजह से अब माओवादियों के खिलाफ पूरा बस्तर मुखर होने लगा है। उनके खिलाफ धरना,प्रदर्शन,रैली और आम सभा होने लगी हैं। सरेंडर करने वाले माओवादी स्वयं पुलिस का सहयोग कर रहे हैं। यही वजह है कि लाल गलियारे में भी अब बनने लगी है समृद्धि की सड़कें। नेशनल हाइवे 63 गीदम से बीजापुर तक 88 किलोमीटर सड़क,भोपालपट्टनम तक निर्माण हो रहा है। इन्द्रावती नदी पर 26 पिलर के जरिए बीजापुर से जगरगुंडा की ओर सड़क आ रही है। 50 किलोमीटर तक बन गई है। यह चैकाने वाली बात है कि जगरगुण्डा की ओर जा रही सड़क के निमार्ण के दौरान अरनपुर थाने से कोंडासावली तक के हिस्से में पिछले पांच छह माह में 75 आईईडी मिल चुके हैं। बस्तर की जमीन में जगह जगह माओवादी बारूद बिछा रखे हैं। बावजूद इसके सड़कें बन रही हैं। थाना तोंगपाल क्षेत्र के ग्राम कासनपाल के विद्यालय में गत दिनों दो सौ से अधिक माओवादी और उनके समर्थकों ने सरेंडर किया। माह अक्टूबर तक नौ सौ माओवादी सरेंडर कर चुके हैं,वहीं 109 नक्सली मारे जा चुके हैं। वहीं बस्तर के आई जी एस.आर.पी.कल्लुरी दावा करते हैं कि 2018 तक बस्तर को नक्सल मुक्त कर देंगे। 
बन गया सबका आदर्श रायखेड़ा
जिद करो दुनिया बदलो वाली बात को चरितार्थ किया है रायपुर से 38 किलोमीटर दूर तिल्दा तहसील का गांव रायखेड़ा। जो अब सभी गांवों के लिए आदर्श गांव बन चुका है। स्वच्छ भारत अभियान में यह गांव पूरी तरह क्लीन हुआ। 20 महिला स्वसहायता समूह और फिर पुरूषों ने भी खुले में शौच के खिलाफ ऐसी जागरूकता छेड़ी कि खुले में शौच से यह गांव मुक्त हो गया। इतना ही नहीं पूरा गांव कम्प्यूटराज हो गया है। दर्जन भर घरों में डेस्कटाॅप और इतने ही युवा लैपटाॅप पर हैं। इस गांव में पत्र व्यवहार और शिकायतें भी मेल की जा रही हैं। यह गांव अब वाई फाई जोन होने जा रहा है। दस साल पहले यह गांव अमूमन जैसे गांव होते हैं समस्या ग्रस्त, वैसा ही था। 10 हजार अबादी वाला यह गांव अब सभी समस्याओं से मुक्त है। जिला पंचायत सीईओ नीलेश कुमार के मुताबिक डेढ़ से दो साल में रायखेड़ा की तस्वीर बदल गई है। यह जिले का पूरी तरह से आदर्श गांव है। इतनी कोशिश और गांव करेंगे तो प्रशासन उन्हें इसी तरह विकसित करना चाहेगा।
 








कोई नुकसान न पहुंचा सकें।

चौरसिया से अलग है मेरा अंदाज

       प्रसिद्ध बांसुरी वादक रोनू मजूमदार से बातचीत

  चौरसिया  से अलग है मेरा अंदाज


संगीत की दुनिया में बांसुरी की मिठास तब तक नहीं घुलती,जब तक पं. नरेन्द्र नाथ मजूमदार (पं. रोनू मजूमदार) का नाम न लिया जाए। दिल के समुंदर की अनंत गहराइयों में उतर कर रोनू मजूमदार की उंगलियां जब बांसुरी के छह छिद्रों पर सात सुरों का खेल खेलती हैं तो ऐसा लगता है कि हवाएं थम गई हैं। सुर की गंगा भागीरथ की तपस्या को देखने के लिए फिजाएं घ्यानस्थ हो गई हैं। बांस के इस अदने से वाद्य पर रोनू जब सांसों का मंत्र फंूकते हैं तो,लगता है जैसे इस धरा पर स्वयं कन्हैया उतर आए हैं। जिसके तहत सुरों ने देह धारण कर ली हो राग-रागिनी गोप -गोपियां बनकर गरबा कर रही हों। जबकि बांसुरी से सुर की गंगा निकालने वाले रोनू कहते हैं कि ,‘‘ मै तो कृष्ण नहीं हॅू,उनका आशीर्वाद हूूं। संगीत जगत से जुड़ी कुछ ऐसी बातें पं. रोनू मजूमदार ने बड़ी बेबाकी से कही। उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश-
0 रमेश कुमार ‘‘रिपु‘‘

0 श्री कृष्ण की बांसुरी से लेकर रोनू मजूमदार तक की बांसुरी में क्या बदलाव आया है?
00 बांसुरी के मूल ढांचे में कोई बदलाव नहीं आया। कल भी बांस की बांसुरी से सुर निकलते थे, आज भी निकलते हैं। तान वही है,आवाज वही है और दीवाना बना देने वाली इसमें मधुरता भी है। आज भी इसमें सुनने वालों को अपनी ओर खींच लेने की कशिश है। ताकत है। यदि कुछ बदला है तो बस इसके बजाने का अंदाज। पं. हरिप्रसाद चैरसिया का अलग अंदाज है और मेरा अलग है। कुछ दूसरे अंदाज में भी बजाते हैं।
0 शंख बांसुरी क्या है और इसे बजाने का ख्याल कैसे आया।
00 बात 1988 की हैै। मास्को फेस्टिवल में पं. रविशंकर जी के आर्केस्ट्रा में हम लोग अपने साज बजा रहे थे। तब मेरे दिमाग मे शंख बांसुरी का ख्याल आया। मुझे लगा कि पंडितजी का सितार जिस आरोह-अवरोह पर जा रहा है,पंडित विश्वमोहन भट्ट अपनी वीणा से जिस गहराई को छू रहे  हैं,वहां तक बासुंरी क्यों नहीं पहुंच रही है। तब मैने बासंुरी का आकार को बड़ा करने का फैसला किया और शंख बांसुरी बनाई। 1994 में उसे बजाया और माचिस फिल्म के साथ शंख बांसुरी को ख्याति मिली।
0 क्या वजह है कि बांसुरी लोगों को मोह लेती है,इसके बावजूद इसे उतनी ख्याति नहीं मिली,जितनी कि अन्य वाद्य यंत्रों को?
00 यह बात सच है कि बांसुरी को उतनी लोकप्रियता नहीं मिल पाई है,जितनी मिलनी चाहिए थी। भारतीय परंपरा में बांसुरी पहले से जुड़ी हुई है। जितनी लोकप्रियता तबला और सितार आदि को मिली है,उतनी लोकप्रियता बांसुरी को नहीं मिल पाई है। बांसुरी अभी विकास की प्रक्रिया में है। फिर यह कलाकार की साधना पर निर्भर करता है कि वह संगीत की किस विधा में किस ऊंचाई तक जा सकता है। जब तक बिस्मिल्ला खां साहब ने शहनाई को हाथ नहीं लगाया था,वह शादी-ब्याह में बजाया जाने वाला वाद्य यंत्र था। उन्होंने उसे नई ऊंचाई दी। सितार और तबले को एक ही समय में एक से अधिक बड़े कलाकारों ने साधा और उन्हें लोकप्रियता दी। सितार पर रविशंकर, विलायात खां, निखिल बनर्जी,रईस खां और अब्दुल अलीम जाफर खां ने कमाल दिखाया, तो तबले पर अल्ला रक्खा खां,किशनजी महाराज,पं.अनोखेलाल जैसी धुरंधर प्रतिभाएं एक साथ अस्तित्व में रहीं। जो बचा,उसे जाकिर हुसैन ने कर दिखाया। बांसुरी के साथ ऐसा नहीं हुआ। यही वजह है कि बांसुरी और सरोद दुनिया में ख्याति के मामले में तीसरे क्रम पर रह गए। बांसुरी विकास की प्रक्रिया में है।
0 बांसुरी कब शास्त्रीय संगीत की धरातल पर कदम रखा?
00 बात 1932 से 1950 के बीच की है। जब पं. पन्ना लाल घोष ने पहली बार इसे शास्त्रीय संगीत में बजाया और प्रतिष्ठा दी। 1960 में उनकी असमय मृत्यु हो गई। 1965 में पं. हरिप्रसाद चौरसिया ने उनके काम को आगे बढ़ाया। मेरे गुरू पं. विजय राघव राव ने भी इस दिशा में पर्याप्त काम किए।
0 ऐसे कौन से राग हैं जिन्हें मुरली पर नहीं बजाया जा सकता।
00 निश्चय ही एैसे कुछ राग है जिन्हें मुरली पर बजाना सहज नहीं है। विहाग,मालकोंस जैसे राग को बांसुरी पर साधाना काफी कठिन है। छह छिद्रों में 12 स्वर निकालना कोई आसान काम नहीं है। इसमें जितनी रेंज है,उनती और किसी वाद्य यंत्रों में नहीं है। यह पेसिंल जितनी छोटी है तो, शंख बांसुरी जितनी बड़ी भी है। इसमें किसी भी संगीत में समा जाने की पूरी क्षमता है। जैसे सारंगी और वायलिन पर गायकी आसान नहीं है। उसी तरह बांसुरी में इन रागों को साधना आसान नहीं है।
0 कहते हैं कि श्री कृष्ण जब बांसुरी बजाते थे,तो गोप-गोपियां और जंगल के पशु पक्षी दौड़े चले आते थे। आखिर वह सम्मोहन क्यों नहीं दिखाई पड़ता है?
00 श्री कृष्ण लीलाधारी हैं। उनकी बराबरी करना या सोचना ठीक नहीं है। मै कृष्ण तो हॅू नहीं,केवल कृष्ण का प्रसाद हॅू। आज भी बांसुरी मंे वह सम्मोहन,वह ताकत है, वह कशिश है,जिसे सुनकर लोग बरबस खिंचे चले आते हैं। उसका आकर्षण खत्म हो गया है,ऐसा नहीं कह सकते। हां,यह बात अलग है कि उसे सुनने का अंदाज बदल गया है।
0 आज के संगीत और संगीतकार के संदर्भ में आप क्या कहना चाहेंगे।
00 जहां तक आज के संगीतकारों की बात है,सिर्फ अच्छी धुन बना लेना ही काफी नहीं है। संगीत निर्देशक के भीतर गीत,संगीत दोनों एक साथ बजने चाहिए। एक हिस्सा निकाल दिया जाए,तो श्रोताओं को लगे कि कुछ अधूरा है,कुछ छूट गया है। आजकल शास्त्रीय संगीत के मुकाबले ऐसा पाॅपुलर संगीत ज्यादा चलता है। शास्त्रीय संगीत सुनने के लिए श्रोताओं को मानसिक तैयारी करनी पड़ती है। ‘फोक फार्म’जीवन में ज्यादा घुला मिला है। इसलिए ज्यादा स्वीकृत है। कई बार मंच पर जमने के लिए ‘फोक‘ का ही सहारा लेना पड़ता है।
0 फास्ट फूड और फास्ट लाइफ के दौर में क्या फास्ट संगीत का जीवन में होना जरूरी है?
00 संगीत फास्ट फूड नहीं है। यह दिल से सुना और बजाया जाता है। फास्ट लाइफ में युवा वर्ग किसी चीज को बहुत गहराई से अपनाने के लिए उत्सुक नहीं है। लेकिन शास्त्रीय संगीत के प्रति उनके मन में जिज्ञासा का भाव फिर भी रहता है। यही वजह है कि वे बड़ी संख्या में संगीत सभाओं में जाते हैं। संगीतकार को जमाने के साथ कदम ताल मिलाकर चलना ही पड़ता है। रीमिक्स को मै बुरा नहीं मानता और न फ्यूजन को,बशर्ते वह सही ढंग से किया गया हो।
0 आज फ्यूजन का प्रयोग काफी बढ़ गया है,इससे क्या सगीत की आत्मा जिंदा रहेगी?
00 यदि रीमिक्स और फ्यूजन का प्रयोग समझदारी के साथ हो,तो वह किसी को बुरा नहीं लगेगा। रीमिक्स में इस बात का ध्यान रखा जाए कि जो कुछ उस समय नहीं किया जा सका था,उसका भी इसमें समावेश करके इसे एक नया अयाम दिया जाए,तो भला किसे एतराज होगा? फ्यूजन जन रूचि को ध्यान में रखकर किया जाने वाला एक सहज साधारण प्रयोग मात्र नहीं है। यदि गंभीरता पूर्वक,विवेक के साथ फ्यूजन को अहमियत दी जाए तो,संगीत को समृद्ध बनाने में सहायक सिद्ध होगा। लेकिन फ्यूजन का प्रयोग करने वाले ऐसे कितने संगीतकार है, जिन्हें माइनर काड्र्स के साथ कोमल गंधार वाले रागों की भी समझ है?जमाने के साथ कदम ताल मिला के चलने क लिए ही मैने भारतीय संगीत के साथ पाश्चात्य संगीत का विधिवत अध्ययन किया है।
0 मंच पर आप जब बांसुरी वादन की एकल प्रस्तुति करते हंैं,तो किन बातों का ध्यान रखते हैं?
00 मंच पर एकल बांसुरी वादन के समय स्वरों की मार्मिकता,रागों की प्रकृतिगत शुद्धता,समय,सिद्धांत एवं तालों के लयात्मक गुणों का पूरा ध्यान रखना पड़ता है। लेकिन जब फिल्म,रीमिक्स या फ्यूजन अलबम के लिए संगीत तैयार करना होता है तो,उस विचारधारा का संगीत के जरिए रेखांकित करने का पूरा प्रयास करता हॅू,जो कथानक का विषय होता है।
0 कार्यक्रम प्रस्तुत करते समय क्या कभी एकाग्रता भी भंग हुई है?
00 मुस्कुराते हुए.. । मत पूछिए.. कई बार ऐसे क्षण आते  है। उस समय केवल प्रभु से प्रार्थना और योग साधना काम आती है। कई श्रोता ऐसे भी होते हैं,जो कि बीच में कुछ दूसरा सुनाएं की फरमाइश कर बैठते हैं। ऐसे में बहुत मुश्किल होता है। कलाकार कुछ नई चीज सुनाना चाहता है और श्रोता है कि अपनी बात पर अड़ जाता है। उसकी पसंद का भी ध्यान रखना पड़ता है। माहौल न बिगड़े,इस बात का विशेष ध्यान रखना पड़ता है।
0 तालियों की गड़गड़ाहट के बीच कैसा महसूस करते हैं।
00 तालियों की गड़गड़ाहट ही कलाकार के लिए एक ऐसा नशा है जो,उसके भीतर उत्साह का संचार करता है और जीवन मंे बेहतर करने के लिए उद्वेलित करता है। ये भी सच है कि तालियों की गड़गड़ाहट से किसी भी कलाकार की भूख शांत नहीं होती और न ही उसकी जरूरतें पूरी होती है। बावजूद इसके जीवन में तालियों की गड़गड़ाहट भी जरूरी है।
0 आपने कई फिल्मों में संगीत दिए हैं। क्या कभी व्यावसायिक दबाव के लिए समझौता करने की भी स्थिति आई है।
00 हिन्दी फिल्मों के अतिरिक्त मराठी फिल्मों में भी संगीत दिया है। लेकिन अभी तक तो ऐसी स्थिति नहीं आई कि व्यक्तिगत स्वार्थ के चलते या फिर व्यवसायिकता के चलते किसी तरह का समझौता करना पड़ा है। किसी भाव को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाना मकसद होता है,तो मै इसे एक चुनौती के रूप में काम करता हॅू। आखिर हर व्यक्ति की तरह कलाकार की भी अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है।
0 आप अपनी बात किस तरह प्रमाणित करेंगे?
00 कलाकार को अपनी बात प्रमाणित करने के लिए कोई प्रमाण देना पड़े यह जरूरी नहीं है। इसलिए कि उसका काम ही प्रमाण है। मेरा यह सौभाग्य है कि भारत रत्न पं. रविशंकर और संगीत निर्देशक स्व. आर.डी बर्मन के साथ कई वर्षांे तक काम किया है। मै समझता हॅू कि व्यावसायिकता के बावजूद कोई भी संगीतकार शायद ही समझौता करता होगा। मुगल-ए-आजम का संगीत सुनें,तो आप पाएंगे कि इस फिल्म  का केवल गाना ही नहीं,हर धुन मुगलिया सल्तनत का प्रतिनिधित्व करती सुनाई देती है। इसी तरह सत्यजीत रे की फिल्म ’’पांचाली‘‘ का संगीत फिल्म निर्देशक की सोच को आगे बढ़ाता है। मै समझता हॅू कि किसी भी संगीत निर्देशक की सार्थकता और उसकी सफलता इसी में है कि वह उस फिल्म के निर्माता,निर्देशक,लेखक और कथानक के मर्म को समझते हुए आगे बढ़े और सहयोग करे। केवल कानों को अच्छी लगने वाली धुन बना देने भर से संगीतकार की जवाबदारी पूरी नहीं हो जाती। संगीत ऐसा हो कि सुनने वाले को लगे कि यदि इसके एक सुर को भी इधर से उधर कर दिया जाए तो उसमें मधुरता नहीं हर जाएगी।
0 क्या आपको आने वाली नई पीढ़ी में बांसुरी वादन को आगे बढ़ाने की संभावनाएं नजर आती है?
00 किसी भी कलाकार के बाद कोई भी कला मरती नहीं है। कई कलाकार है,जिनमें अकूत प्रतिभा है और जो अपने साथ बांसुरी को ऊंचाई प्रदान कर सकते हैं। यदि वह ऐसा नहीं करेंगे,तो लोग उन्हें जानेंगे कैसे? रूपक कुलकर्णी,नित्यानंद जी,हल्दीपू,राकेश चौरसिया जैसे कुछ कलाकार हैं,जो बांसुरी पर काम कर रहे हैं,जो कि संभावनाओं से भरे हुए हैं।