Thursday, November 25, 2021

रहस्य के लिफ़ाफे़ में झीरम कांड

  







जस्टिस प्रशांत मिश्रा आयोग की रिपोर्ट को देखे बगैर आख़िर वो कौन सी वजह है,जिसके चलते भूपेश सरकार ने दो सदस्यीय न्यायिक आयोग का गठन कर दिया। क्या भूपेश सरकार किसी को बचाना चाहती है? एनआइए की रिपोर्ट को कांग्रेस पहले ही नकार चुकी है। ऐसे में सवाल यह है कि एक ही मामले की तीन जांच से झीरम कांड का सच क्या है,कैसे पता चलेगा?
0 रमेश कुमार ‘रिपु’
झीरम कांड की जांच का मामला एक बार फिर सुर्खियों में है। जस्टिस प्रशांत मिश्रा आयोग की रिपोर्ट को भूपेश सरकार देखे बगैर दो सदस्यीय न्यायिक आयोग का गठन कर विपक्ष को हमला करने का मौका दे दिया। एनआइए की रिपोर्ट को भूपेश सरकार पहले ही नकार चुकी है। भूपेश सरकार का आरोप है, कि रमन सरकार के समय के नोडल अधिकारी जांँच में रोड़ा अटकाने का काम किया था। एनआइए झीरम कांड के राजनीतिक षडयंत्र के पहलू की जांच नहीं कर रही थी। इसलिए आई.जी. विवेकानंद सिन्हा के नेतृत्व में 10 सदस्यों वाली एसआइटी टीम बनाई गई। टीम में विषय विशेषज्ञों को भी शामिल किया गया और पहली बैठक पीएचक्यू रायपुर में हुई। इसके बाद कोई बैठक या जाँच अब तक नहीं हुई है।  
झीरम कांड के आठ बरस बाद जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा की अगुवाई वाले आयोग ने छः नवम्बर को राज्यपाल अनुसूईया उइके को जांच आयोग के सचिव और छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार संतोष कुमार तिवारी ने सौंपी। यह रिपोर्ट 10 खंडों में है। रिपोर्ट के अंदर क्या बातें लिखी है,कोई नहीं जानता। जैसा कि राज्यपाल सुश्री अनुसुइया उइके कहती हैं, चीफ जस्टिस प्रशांत मिश्रा की ओर से उन्हें दी गई रिपोर्ट पर कानूनी राय लेने के बाद राज्य शासन को भेज दिया है। रिपोर्ट में क्या है, यह तो जस्टिस मिश्रा ही बता सकते हैं।’’  
गौरतलब है,कि 28 मई 2013 को जस्टिस प्रशांत मिश्रा की अगुवाई में जांच कमेटी बनी। उस दौरान 3 महीने में रिपोर्ट देने कहा गया, लेकिन तय सीमा में जांच नहीं हो पाई। बीस बार तारीख बढ़ाई गई। जांच आयोग ने 23 सितंबर 2021 को राज्य सरकार को पत्र लिखकर मांग की आयोग का कार्यकाल बढ़ाया जाए। अचानक 6 नवंबर 2021 को आयोग ने अपनी रिपोर्ट राज्यपाल को दी।  
झीरम कांड मामले में एनआइए ने कहा था,‘‘नक्सली अपना आतंक फैलाने के लिए, इस तरह की वारदातें करते रहते हैं।़ राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) ने अपनी रिपोर्ट में हमले के लिए कांग्रेस नेताओं को ही जिम्मेदार ठहराया है। कांग्रेस ने रिपोर्ट को झूठ का पुलंदा करार देते हुए कहा,जब तक मामले की जांच सीबीआइ से नहीं होगी, मामले का पर्दाफाश नहीं होगा। सरकार के दबाव में एनआइए जांँच डायरी की रिपोर्ट बदलती रही है। एनआइए की रिपोर्ट में कहा गया है कि परिवर्तन यात्रा के दौरान कांग्रेस नेताओं पर हमला,सरकार को दहशत में डालने और सरकार को उखाड़ फेंकने की साजिश का हिस्सा था।
एनआइए ने सच छिपाया
स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंह देव ने कहा,एनआइए ने विशेष अदालत में दायर आरोप पत्र में विवादस्पद मुद्दों को शामिल नहीं किया है। खासकर कंाग्रेस की परिवर्तन यात्रा के ठीक पहले मुख्यमंत्री डाॅ रमन सिंह की विकास यात्रा बस्तर से गुजरी थी। माओवादी यदि सरकार को अस्थिर करना चाहते थे, तो हमला विकास यात्रा पर करते। एनआइए ने इस मामले मे केवल 9 लोगों की ही गिरफ्तार क्यों कर पाई? शेष 25 फरार क्यों हैं? किसने नक्सलियों को सूचना दी थी कि परिवर्तन यात्रा में महेन्द्र कर्मा शामिल हैं। गिरफ्तार व्यक्तियों के हमले का उल्लेख क्यों नहीं है। झीरम मामले में इतनी बड़ी चूक कैसे हो गई एनआइए की रिपोर्ट में इसका उल्लेख नहीं है।
गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में सन् 25 मई 2013 में झीरम घाटी में नक्सली हमला हुआ था। जिसमें 27 कांग्रेसियों समेत 31 लोगों की नक्सलियों ने हत्या कर दी थी। कांग्रेस को शक है कि, इस हमले के पीछे कोई राजनैतिक कनेक्शन जरूर है। झीरम कांड की जाँंच केंद्रीय गृह मंत्रालय ने 27 मई 2013 को एनआइए को सौंप दी थी। एनआइए ने अपनी जाँंच में 88 नक्सलियों के कैडर को संलिप्त पाया था। एनआइए ने 24 सितंबर 2014 को इस मामले में 9 लोगों के खिलाफ़ चार्जशीट दाखि़ल की। 28 सितंबर 2015 को सप्लीमेंट्री चार्जशीट में 30 लोगों को शामिल किया गया था।
प्रदेश के गृहमंत्री ताम्रध्वज साहू और कृषि मंत्री रविंद्र चैबे ने 13 नवम्बर 2021 को मीडिया से कहा,प्रदेश के सबसे बड़े नक्सल हमले की जांच के टॉप सीक्रेट दस्तावेजों को लेकर अफ़सरों ने लापरवाही बरती है। जांच रिपोर्ट जब राज्यपाल के दफ़्तर से मुख्यमंत्री कार्यालय पहुंची तो लिफाफ़ा खुला हुआ था। इससे रिपोर्ट के लीक होने की आशंका को बल मिलता है। खुले लिफाफ़े की रिपोर्ट को लौटा दिया गया। बाद में सीलबंद लिफाफ़े में दस्तावेज़ भेजे गए।
तो क्या मंत्री का नाम है..
हाई कोर्ट के अधिवक्ता राजेन्द्र तिवारी राजू कहते हैं,न्यायिक जांच आयोग की रिपोर्ट सरकार को कायदे से देखना था। उसके बाद जांच अधूरी है,कहते हुए दो सदस्यीय जांच आयोग का गठन करती तो विपक्ष भी आरोप लगाने की हिम्मत न दिखाता। अब इससे ऐसा लगता है,कि कांग्रेस सरकार अपने किसी मंत्री को बचाना चाहती है।
झीरम कांड की नये सिरे से जांच अब आयोग के अध्यक्ष माननीय न्यायमूर्ति सतीश के.अग्निहोत्री और सदस्य माननीय जी.मिनहाजुद्दीन पूर्व न्यायाधीश उच्च न्यायालय बिलासपुर करेंगे। आयोग झीरम कांड की जांच कर 6 महीने में राज्य सरकार को रिपोर्ट देगा। यह रिपोर्ट कांग्रेस सरकार के रहते आने के बाद प्रदेश की सियासत में एक बार फिर हंगामा होने से इंकार नहीं किया जा सकता।
जस्टिस प्रशांत मिश्रा अपनी रिपोर्ट राज्यपाल को तभी दिये होंगे,जब उनकी जांच में किसी मंत्री का नाम सामने आया होगा। जैसा कि बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष विष्णुदेव साय ने कहा, नए जांच आयोग के गठन की घोषणा से स्पष्ट है,कि प्रदेश सरकार अपने एक मंत्री की संलिप्तता को लेकर विचलित है। वह मंत्री और उनके नक्सली कनेक्शन के बेनकाब होने से डरी हुई है। अब प्रदेश सरकार और मुख्यमंत्री को बताना चाहिए, कि झीरम हत्याकांड का सर्वाधिक लाभ किस राजनीतिक नेता को होना था और हुआ। यह भी स्पष्ट होना चाहिए, कि इस मामले पर एक पुलिस के चश्मदीद मुखबिर से मिलने बिलासपुर कौन गया था? क्यों गया था? और किसने भेजा था? यह मुखबिर बाद में बागी क्यों हो गया था? कांग्रेस झीरम मामले में एक नए आयोग की चर्चा कर सियासी शोशेबाजी का प्रदर्शन कर रही हैं।’’  
नक्सलियों ने किसे जाने दिया
आठ बरसो में झीरम कांड पर कई तरह के सियासी बयान आए।  सियासी दलों के दाँंव-पेंच के चलते झीरम कांँड की जांँच एक सियासी टी.वी.शो बन कर रह गया है। सवाल यह है,परिवर्तन यात्रा का रूट किसने बदला और किसकी वजह से परिवर्तन यात्रा निकाली गई? उस परिवर्तन यात्रा में कौन बीच में ही,यात्रा छोड़कर चला गया। नक्सलियों ने किसे जाने दिया। इंटेलिजेंस बार-बार कह रहा था झीरम में नक्सली एकत्र हो रहे हैं। उधर जाना ठीक नहीं है। फिर भी उस रूट पर परिवर्तन यात्रा किसके कहने पर निकाली गई? ऐसे कई सवालों का जवाब भी प्रदेश की जनता जानना चाहती है। लेकिन जिस तरह सियासी द्वंद मचा हुआ है,उससे सही तथ्य सामने आने में संदेह है।
भाजपा प्रवक्ता सच्चिदानंद उपासने कहते हैं,‘‘ झीरम के मामले में जेब में सबूत लिए घूमने की बात प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के नाते मौजूदा मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कही थी। सालों बीत जाने के बाद भी, अब तक सबूत पेश नहीं करने वाले प्रदेश के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल पर साक्ष्य छिपाने का मुकदमा चलाया जाना चाहिए। कांग्रेस के नेता कभी अपने मुख्यमंत्री पर भी तो दबाव बनाते कि,वे सबूत पेश करके झीरम की जाँच को अंजाम तक पहुँचने में सहयोग करते। इस मामले की जांच का जिम्मा कांग्रेस नीत यूपीए की केंद्र सरकार ने सन् 2013 में सौंपा था।’’।’’
जांच से भूपेश नाखुश
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का आरोप है,कि आखिर भारत सरकार किस तथ्य को छिपाना चाहती हैं। न्यायिक जांँच आयोग ने षड्यंत्र की जांँच नहीं की। इसके अलावा कांग्रेस ने जो आठ बिन्दु तय किये थे,उसे जस्टिस प्रशांत मिश्रा आयोग ने अपनी जांँच में शामिल नहीं किये। गवाही के लिए कुछ लोगों को बुलाया गया कुछ ने गवाही नहीं दी। साथ ही उन्होंने सवाल किया, कि क्या नाम पूछ-पूछ कर मारा गया? क्या ये राजनीतिक षड्यंत्र हैं? हमने आयोग को कई बिंदुओं पर पत्र लिखा,   कि नंद कुमार पटेल, महेंद्र कर्मा को सुरक्षा व्यवस्था क्यों नहीं दी गई?’’  
मुख्यमंत्री एनआइए की कार्यप्रणाली से संतुष्ट नहीं होकर उस पर सवालिया निशान लगाते हुए 21 नवम्बर 2020 को कहा,‘‘ एनआइए ने झीरम घाटी में जो षंडयंत्र हुआ है,उसके बारे में कोई जांँच नहीं की। पकड़े गये नक्सलियों से और आत्मसमर्पित नक्सलियों से बयान नहीं लिया। रमन्ना, गुडसा उसेंडी, गजराला, अशोक और दूसरे नक्सलियों के बारे में, बाद में कई सबूत मिले। फिर भी एनआइए ने किसी भी चार्जशीट में,इनको शामिल नहीं किया।   फूलदेवी नेताम सहित झीरम में घटना स्थल पर उपस्थित साथियों के भी बयान एनआइए ने नहीं लिया।   
एफआईआर दर्ज हुआ
उदय मुदलियार के पुत्र जितेन्द्र मुदलियार का आरोप है,कि एनआइए ने किसी भी पीड़ित पक्ष से चर्चा नहीं की है। झीरम से सुकमा जाने वाला रास्ता स्टेट हाईवे है। स्टेट हाइवे में दोनों तरफ इतनी बड़ी संख्या में नक्सली तभी एकत्र हो सकते हैं,जब सुरक्षा व्यवस्था को नज़र अंदाज किया जाएगा। हैरानी वाली बात यह है कि,कार्यक्रम की सूचना सभी को थी। ऐसे में सुरक्षा व्यवस्था नहीं किया जाना,सबसे बड़ा सवाल है।’’
बहरहाल झीरम कांड का 25 लाख का इनामी नक्सली विनोद की कोरोना की वजह से 13 जुलाई 2021 को मौत हो गई है। नक्सलियों की बर्बरता ख़बर बनी लेकिन, बनी क्यों, इस सच पर सियासी धूल की परत इतनी मोटी हो गई है कि,शायद ही कभी हटेगी। झीरम कांड का राज रहस्य बनकर रह जायेगा।
 
    
 

 

सियासी हेंगर में टंगे आदिवासी



सवाल यह है कि क्या बीजेपी आदिवासियों की शुभ चिंतक हैं या फिर शिवराज आदिवासियों को सिर्फ खुश करने वाली भाषा का इस्तेमाल करते हैं। क्यों कि उनके राज्य में आदिवासियों और दलितों पर होने वाले अपराध कम होने की बजाय बढ़ते जा रहे हैं। आज प्रदेश का आदिवासी सियासी हेंगर में टंगा हुआ है।
0  रमेश कुमार ‘‘रिपु’’
मध्यप्रदेश में रैगावं विधान सभा चुनाव हारने के बाद बीजेपी को यह बात समझ में आ गई कि पंचायत चुनाव जीतना है तो आदिवासी और दलित वोट बैंक पर ध्यान देना जरूरी है। आदिवासियों को लुभाने वह बीरसा मुडा जंयती को प्रदेश में अवकाश घोंषित कर दिया। सवाल यह है कि क्या बीजेपी आदिवासियों की शुभ चिंतक हैं या फिर शिवराज आदिवासियों को सिर्फ खुश करने वाली भाषा का इस्तेमाल करते हैं। क्यों कि उनके राज्य में आदिवासियों और दलितों पर होने वाले अपराध कम होने की बजाय बढ़ते जा रहे हैं। आज प्रदेश का आदिवासी सियासी हेंगर में टंगा हुआ है।
पिछले कुछ माह से कांग्रेस प्रदेश में आदिवासियों पर हो रहे हमलों का मुद्दा उठाती रही है। नीमच में एक आदिवासी को आठ लोगों ने मिलकर मारा, फिर गाड़ी में बांधकर उसे खींचा। जिससे उसकी मौत हो गई। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के मुताबिक आदिवासियों के खिलाफ अत्याचारों में 25 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। 2020 में 2401 मामले दर्ज हुए, जबकि 2019 में 1922 मामले दर्ज हुए।
अमितशाह का ट्रंप कार्ड
केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने आदिवासियों को रिझाने जबलपुर में 18 सितम्बर को ऐलान किया कि केन्द्र सरकार ने आदिवासी नेताओं के सम्मान में देश भर में 200 करोड़ रुपए की लागत से नौ संग्राहलय बनवायेगी,जिनमें एक मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा में होगा। यह संग्रहालय शंकर और रघुनाथ शाह पर केन्द्रित होगा। प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष वी.डी.शर्मा कहते हंैं,हमारी सरकार आदिवासियों के उत्थान के लिए प्रतिबद्ध है। उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाना चाहते हैं। हमारी सरकार आदिवासियों के नायकों के इतिहास से सबको परिचति कराने के लिए संग्राहलय बनाने कदम उठाया है।’’
प्रदेश में दो करोड़ जनजातीय
केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह अपनी इस घोंषिणा के जरिए मध्यप्रदेश ही नहीं, देश भर के आदिवासियों को रिझाना चाहते हैं। क्यों कि मध्यप्रदेश में करीब दो करोड़ जनजातीय आबादी है। यानी राज्य की कुल आबादी में इनकी हिस्सेदारी करीबन 21 फीसदी है। राजनीतिक नजरिये से देखें तो प्रदेश की 230 विधान सीटों में से 47 सीटें अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए आरक्षित है। वहीं लोकसभा की 29 सीटों में छह सीट अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है।
सीटों का गणित समझें
दरअसल 2013 के चुनाव में बीजेपी को 47 सीट में 30 सीटें मिली थीा। और उसकी सरकार बनी थी। लेकिन 2018 के चुनाव में कांग्रेस ने अनुसूचित जनजाति के लोगों को विश्वास दिलाया, कि उनका हित सिर्फ कांग्रेस सरकार में ही है। और कांग्रेस को 47 में 30 सीटें मिलने से बाजी पलट गई। कांग्रेस की सरकार बन गई। यह अलग बात है कि कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया की सियासी लड़ाई में कांग्रेस की सरकार धड़ाम हो गई। शिवराज सिंह पुनः मुख्यमंत्री बन गए।
शिवराज सिंह ने अब तक 16 हजार घोंषणा कर चुके हैं। जमीन पर सब नदारद हैं। उन्हों ने कहा,आदिवासी गैर लकड़ी वन उपज से आय का एक प्रतिशत अपने पास रख सकेंगे साथ ही छोटे मोटे विवाद का निपटारा खुद ही कर सकेंगे। अनुसूचित क्षेत्रों तक पंचायत का विस्तार सरकार करना चाहती है।
नौकरशाही नाराज
राज्य की नौकरशाही मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान की इस घोंषणा के पक्ष में नहीं है। क्यों कि राज्य के खजाने पर सीधे बोझ पड़ेगा। राज्य मंें करीब 12000- 15000 करोड़ रुपए की गैर लकड़ी वनोपज होती है। गैर लकड़ी वनोपज में तेंदूपत्ता भी शामिल है। यदि इसे ग्राम सभा के हवाले कर दिया जायेगा तो सरकार को सीधे भारी राजस्व घाटा होगा। फिर सियासी सरंक्षण देना भी कठिन हो जाएगा। हर बरस सरकार वेतन और बोनस देती है,वो कहां से लाएगी। इस दिशा में कुछ भी नहीं सोचा गया है।
बहरहाल राजनीतिक दलों को आदिवासियों के कल्याण और हितों की चिंता नहीं है,वो केवल चुनावी नफा-नुकसान को देखकर बाते करते हैं। जैसा  विधायक संजय पाठक कहते हैं घोषणाओं और योजनाओ से वोट नहीं मिलते। आदिवासी अब समझदार हो गये हैं।





 

Monday, November 15, 2021

तिकड़म बाजों पर कटाक्ष

 ▪️तिकड़म बाजों पर कटाक्ष..

हिन्दी के अखबारों और पत्रिकाओं में व्यंग्य आज की ज़रूरत बन गए हैं। इसलिए इन्हें नज़र अंदाज़ करना या फिर हाशिए पर रखना घाटे का सौदा है। "पुरस्कार की उठावनी" व्यंग्य संग्रह की रचनाएं विभिन्न कालों में क्षेत्रीय और राष्ट्रीय अख़बारों में लिखे गए हैं। रचनाएं हास्य व्यंग्य शैली में स्थान,घटना और परिस्थिति के सापेक्ष हैं। बावजूद इसके कई रचनाओं को पढ़ने पर ध्यान घटना की ओर चला जाता है। कोरोना काॅल में लिखी गई रचना हो या  राजनीतिक,मानवीय संवेदनाएं और नैतिक मूल्यों के तिकड़म बाजों पर, हास्य अंदाज़ में तीखा कटाक्ष है।


'पुरस्कार की उठावनी' अरविंद तिवारी की चालीस रचनाओं का नया संग्रह है। ब्रिटिश जमाने के अच्छे पुलों को भ्रष्टाचार के लिए जर्जर बताने की जिस भाषा का इस्तेमाल इंजीनियर करते हैं,वो नेताओं को भी मात देते हैं। विधायक निधी की वाट कैसे लगती है पुल की तीन कथाएं बताती है। फिसड्डी होना बेहद अपमान जनक है, मगर एक पायदान ऊपर चढ़ जाने पर सुशासन के गदगद होने का सुख है ‘लास्ट बट वन‘। बेसिर पैर की कविता लिखने वाले कवियों पर कटाक्ष है ‘कवि की छत का पेड़’। आने वाले समय में बिजली उपभोक्ताओं की ज़्यादती से इंजीनियर अपने आप को कैसे बचाएंगे, उसे जान सकते हैं, बिजली विभाग का इंटरव्यूह रचना से।


रचनाओं में सहज टिपपणियों के बीच कई सूक्ति वाक्य उभरे हैं,‘‘जैसे वर्चुअल कार्यक्रम और इंस्पेक्टर मातादीन में, लोग आन लाइन का जिक्र ऐसे करते हैं, मानो लोक सेवा आयोग के चयन में पहले स्थान पर आये हैं। कोरोना काल की लव स्टोरी में, पचास हजार रुपए तोला वाला सोना खो जाए, तो नींद वाला सोना भी हराम हो जाता है। प्राइवेट रिजाॅर्ट के सरकारी मच्छर-जब पत्नी को पता चला कि मच्छर तक ब्लैकमेल के काम आ सकते हैं, तो उसे अपने पति पर गर्व हुआ। उसे उम्मीद हो गई कि किसी न किसी दिन उसके भरतार मंत्री जरूर बनेंगे। सरकार भी बड़े हवाई अड्डे को खलिस पब्लिक को लीज पर दे देती है और खुद जालू काका की तरह छोटे-छोटे अड्डो के विकास में जुट जाती है। एनसीआर का कटखना कुत्ता में मोहल्ला क्लीनिक को छोड़ों बड़े-बड़े कारपोरेट अस्पतालों में भी कुत्ते का रैबीज उपलब्ध नहीं है। आम आदमी कुत्ते में आर्ट नहीं देखता,पराली का जलना भी उसके लिए आर्ट नहीं है।


पुरस्कार की उठावनी निश्चिय तौर पर राष्ट्रीय मुद्दा है। पुरस्कारों की गरीबी उतनी अपमानजनक नहीं होती,जितना अपमान मित्रों के बार-बार इस गरीबी का जिक्र करने पर होता है। वरिष्ठ लेखक उस भारतीय भाषा की तरह हैं,जिसे आठवीं अनुसूची में स्थान अभी तक नहीं मिला। साहित्य जगत में पुरस्कार के लिए तरह-तरह की टांग खिंचाई की जाती है। जितने लेखक नहीं हैं, उतने नाम के पुरस्कार हैं। कोई पुरस्कार की बात करे तो बड़ी नम्रता से मित्र कह देते हैं, कि आप तो पुरस्कार से ऊपर उठ चुके हैं। यानी उसके यहां पुरस्कार की उठावनी हो चुकी है। छोटी राशि का सम्मान पाने वाले लेखकों पर करारा कटाक्ष है। पैसे वाली पार्टी का हो गया लेखक बनने के फायदे का अच्छा विश्लेषण है। संग्रह में सात व्यंग्य रचनाएं कारोना से जुड़ी हैं,लेकिन सभी की तासीर अलग-अलग है।


समाज के विभिन्न स्याह पक्षों,और व्यवस्थाओं के अलावा रोज की जिन्दगी पर सारी रचनाएं आईना दिखाती है। कुछ रचनाओं के शीर्षक सब कुछ अंदर की कथा को बयान कर देते हैं। जैसे-साहित्य की सीबीआई और ईडी,वह खुद कोरोना कैरियर हो गए,लोकतंत्र का सूचकांक,फागुन में कल्लो भाभी की पाती,नये साल की पहली मिसकाॅल,कुंए की मुंडेर पर मेढ़कआदि अलग-अलग ऊहापोहों से गुजरती रचनाओं की कई तस्वीरें हैं।


संग्रह के शीर्षक से यही लगता है कि अरविंद तिवारी किसी पुरस्कार के हक़दार हैं,लेकिन उनके समकालीन मित्रों ने उनके पुरस्कार की उठावनी कर दिये हैं। ऐसे तिकड़मी मित्रों पर उनकी यह किताब गहरा कटाक्ष करती है। बहरहाल हास्य रहित इस व्यंग्य संग्रह की मारक क्षमता राफैल जैसी है। सामान्य व्यंग्य रचनाओं से हटकर तीखी-मसालेदार पठनीय रचना है।

किताब - पुरस्कार की उठावनी

लेखक - अरविंद तिवारी

प्रकाशक - इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड

मूल्य - 250 रुपए

@रमेश कुमार ‘रिपु’


अपनी कहानी जैसे

 ▪️अपनी कहानी जैसी


मन्नू भंडारी बिलकुल अपनी कहानी जैसी थीं। जैसे उनकी कहानियों के पात्र शोर नहीं मचाते थे,नारे बाजी के हिमायती नहीं हैं,मूल्यों के प्रति सजग हैं और एक समग्र नजरिया रखते हैं,वैसी ही मन्नू भंडारी सारी जिन्दगी रहीं। कहानियों में नये तेवर,नये स्वाद और आडम्बर से परे के लिए हमेशा मन्नू जी जानी जायेंगी। राजेन्द्र यादव ने स्त्री विमर्श का जो स्वरूप हिन्दी जगत को दिया उससे अलहदा है मन्नू भंडारी की कहानियों की दुनिया में नारी। आज हिन्दी जगत में स्त्री लेखन को लेकर नारीवाद और अस्मिता विमर्श का बोलबाला है,लेकिन मन्नू भंडारी की कहानियांें में वो ग्लैमर और शोर-शराबा नहीं है। दरअसल उन्होंने जैसा जीवन जिया वैसी ही कहानियां गढ़ी। मन्नू जी अपनी कहानियों के जरिये हिन्दी जगत के पाठकों को हमेशा याद आयेंगी।

Sunday, October 24, 2021

कांग्रेसियों के बीच छिड़ी है जंग

      









कांग्रेस की हर शाख पर कालिदास बैठे हुए हैं। यही वजह है कि कांग्रेस की सत्ताई शाख बढ़ने की वजाय कांग्रेस के कालिदास उसे काटते जा रहे हैं। जिन राज्यों में कांग्रेस की सत्ता है भी,उन राज्यों में अपने अधिकारों और राजनीतिक लाभ के लिए कांग्रेसियों में घमासन मचा हुआ है।    
 0 रमेश कुमार ‘‘रिपु’’
                 छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकार केे आधे सफर के बाद कांग्रेसी आपस में ही विरोधाभास की छवि पेश कर रहे हैं। इसकी वजह है ढाई साल बाद मुख्यमंत्री कौन? कांग्रेसी दो खेमे में बंट गए हैं। एक गुट चाहता है, कि भूपेश बघेल ही मुख्यमंत्री रहें और दूसरे गुट की मंशा है कि हाई कमान अपने वायदे के मुताबिक अब टी.एस.सिंह देव ‘बाबा’को राज्य का नया मुख्यमंत्री घोषित कर दे। कांग्रेस और कांग्रेसी दोनों दुविधा में हैं। मुख्यमंत्री के खेला में जिन कांग्रेसियों के बीच 63 का सियासी रिश्ता था, वो अब 36 में तब्दील हो रहा है। 
अंदरूनी लड़ाई में चार माह का वक्त जाया हो गया। जबकि सरकार को उन मोर्चे पर लड़ना चाहिए,जो विकास के रास्ते में रुकावट बन रहे हैं। अभी तक कांग्रेस के अंदर आल इज वेल की स्थिति थी। लेकिन जून माह से नये मुख्यमंत्री की सुगबुगाहट के साथ ही दिल्ली तक की दौड़ शुरू हो गई। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और उनके समर्थक स्वास्थ्य मंत्री टी.एस सिंह देव को बायें करने की सियासी गोटियाँ बिछाते आए हैं। जैसा कि विधायक बृहस्पती ने कुछ दिनों पूर्व यह कह कर सनसनी फैला दी थी कि टी.एस सिंह देव उन पर जान लेवा हमला कराए। इस आरोप से टी.एस सिंहदेव क्षुब्ध होकर कहा,जब तक उनके खिलाफ लगे आरोप के दाग नहीं मिट जाते,वो विधान सभा में नहीं आयेंगे।  इसके बाद से कांग्रेस के अंदर सियासी द्वंद का तंबुरावादन शुरू हो गया। अब गृहमंत्री ताम्रध्वज साहू ने भी कह दिया,कि एक बार जो मुख्यमंत्री बन जाता है,वह अंत तक रहता है। यू.पी. में लखीमपुर कांड में भूपेश बघेल का प्रियंका गांधी के साथ खड़े रहना और मृतक के परिजनों के परवारों को 50-50 लाख रुपए देने की घोंषणा करके अपने विरोधियों को संकेत दे दिये हैं,कि वे दस जनपथ के साथ हैं।  
मुख्य मंत्री भूपेश बघेल के समर्थन में दो दफा दर्जनों विधायक दिल्ली हो आए हैं। कांग्रेस हाई कमान किसी से भी नहीं मिला। वहीं टी.एस सिंह देव को अब भी भरोसा है,कि कांग्रेस हाईकमान सियासी समझौते के मुताबिक उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप देगा। मुख्यमंत्री को लेकर सियासी उठापटक के बीच कांग्रेस के अंदर आस्तीन खींचने की सियासत का शो शुरू हो गया है। विधायक बृहस्पती के नेतृत्व में प्रदेश के दर्जन भर कांग्रेसी विधायक शिक्षा मंत्री प्रेम सिंह टेकाम के खिलाफ मोर्चा खोल दिये हैं। विधायकों का आरोप है, कि शिक्षा मंत्री का स्टाफ ट्रांसफर और पोस्टिंग का धंधा चला रहे हैं। दबाव के बाद जशपुर के डीईओ. एस. एन. पंडा को निलंबित कर दिया गया है। दरअसल प्रेम सिंह टेकाम स्वास्थ्य मंत्री के समर्थक हैं। दूसरा गुट पूरी कोशिश में है कि प्रेम सिंह को मंत्री पद से हटा दिया जाए।
दो सौ कांग्रेसियों का इस्तीफा
छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले के कोपरा पंचायत के चार जिला महामंत्री दो ब्लॉक महामंत्री समेत 200 कार्यकर्ताओं ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया है। इस मामले पर जिला अध्यक्ष भाव सिंह साहू ने कहा,इस मामले में भाजपा और आरएसएस का षड्यंत्र है। राजिम के कांग्रेस विधायक अमितेश शुक्ल पर आरोप है,कि पंचायत स्तर पर भ्रष्टाचार करने वाली कोपरा पंचायत की महिला सरपंच डाली साहू का साथ विधायक दे रहे हैं। क्यों कि विधायक पर पंचायत स्तर पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। वहीं राजिम के पूर्व विधायक संतोष उपाध्याय ने कांग्रेस जिलाध्यक्ष भावसिंह साहू को अपरिपक्व बताते हुए उन्हें विधायक से स्थिति स्पष्ट करवाने की सलाह दी है। ग्रामीणों का आरोप है कि सरपंच डाली साहू ने बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार किया है। गौरतलब है कि कोपरा जिले की सबसे बड़ी ग्राम पंचायत है। इसे कांग्रेस का गढ़ माना जाता है। बड़ी संख्या में कांग्रेस कार्यकर्ताओं का इस्तीफा देना भूपेश बघेल के लिए चुनौती है।
बैठक में भूपेश को बुलावा नहीं
प्रदेश कांग्रेस की बैठक राजीव भवन में थी,लेकिन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को नहीं बुलाया गया। बैठक में वे डेढ़ घंटे बाद पहंुचे। नाराज होकर कहा,मुझे जब बुलाया ही नहीं जायेगा तो पता कैसे चलेगा कि कौन नाराज है। बैठक में प्रदेश कांग्रेस प्रभारी पी.एल पुनिया भी थे। बैठक में कार्यकत्र्ताओं की शिकायत थी, कि पदाधिकारी और सरकार के मंत्री,अधिकारी उनकी बात नहीं सुनते। एक पदाधिकारी ने यहांँ तक कह दिया कि हमें तो आप तक पहुंचने के लिए कोई जरिया ही नहीं है। एक पदाधिकारी ने ढाई-ढाई साल मुख्यमंत्री की चर्चा से जनता में कांग्रेस की इमेज खराब होने की बात की। इस पर मुख्यमंत्री ने नाराजगी जताई। बैठक से उनके बाहर निकलने पर मीडिया के सवाल पर उन्होंने कहा,इसका जवाब प्रदेश अध्यक्ष और प्रदेश प्रभारी देंगे। कांग्रेस विधायकों का मंत्रियों के खिलाफ बयान दिये जाने और बार-बार दिल्ली जाने पर संगठन ने इनके खिलाफ कार्रवाई से इंकार कर दिया है। क्यों कि संगठन भी समझ रहा हैं कि कार्रवाई किये जाने से कांग्रेस कें अंदर की लड़ाई सड़क पर आ जायेगी।
नया मुख्यमंत्री मिला तो..
सियासी सवाल ये है कि छत्तीसगढ़ को नया मुख्यमंत्री मिलने पर कांग्रेस के अंदर क्या-क्या हो सकता है? क्या भूपेश बघेल के समर्थित विधायक कांग्रेस से इस्तीफा दे देंगे? भूपेश बघेल स्वयं इस्तीफा दे देंगे? संगठन और निगम मंडल में भूपेश के समर्थित लोग क्या अपने-अपने पद से इस्तीफा देंगे। टी.एस सिंह देव संगठन से लेकर विभिन्न आयोग में क्या अपने लोगों को जगह देंगे? चर्चा है कि जिस तरह टी.एस सिंह देव को मुख्यमंत्री सत्ताई ताकत से उन्हें बायें करते गये हैं,वही तरीका टी.एस सिंह देव भी भूपेश बघेल के साथ कर सकते हैं? सवाल ये है कि ऐसा होने पर क्या कांग्रेस राज्य में बीजेपी को शिकस्त दे पाएगी? क्या हाई कमान ओबीसी की जगह सवर्ण को मुख्यमंत्री की कमान देकर श्यामा,वोरा और अर्जुन सिंह के दौर की सियासत को दोहराएगी? ऐसे कई सवाल हैं जिनके जवाब राज्य की कांग्रेस भी नहीं जानती।
कांग्रेस फंस गई..
प्ंांजाब में मुख्यमंत्री की कुर्सी से कैप्टन अमरिंदर सिंह को हटाने में नवजोत सिद्धू ने हाई वोल्टेज ड्रामा कर पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा। सिद्धू को यकीन था, कांग्रेस हाईकमान उन्हें मुख्यमंत्री बना देगा। लेकिन दांव उल्टा पड़ गया। चरणजीत सिंह चन्नी के मुख्यमंत्री बनने के बाद सिद्धू ने 28 सितम्बर को एक और गेम खेला। पंजाब कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा ट्वीट करके,कांग्रेस की मुश्किले बढ़ाई। उनके दोे समर्थक कैबिनेट मंत्री रजिया सुल्तान और परगट सिंह ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। सिद्धू नाराज थे, कि मुख्यमंत्री ने मंत्रिमंडल में विवादास्पद विधायक और शराब कारोबारी राणा गुरजीत सिंह को क्यों शामिल किया। पंजाब का मामला अभी शांत हो गया है,कहना मुश्किल है। पंजाब में फरवरी 2022 को चुनाव है। पंजाब में जिस तरह ‘पंजा’ लड़ाने का खेल चल रहा है,उससे जाहिर है कि कांग्रेस आलाकमान ने पंजाब के सत्ताई जहाज के कैप्टन को हटाकर कांग्रेसियों को दुविधा में डाल दिया है। सवाल ये है, कि सिद्धू कब तक कांग्रेस में रहंेगे? कैप्टन कब तक चुप रहेंगे? क्या वो चुनाव मंे कांग्रेस का साथ देंगे? क्या चरणजीत सिंह चन्नी पंजाब में कांग्रेस को जीता लेंगे? क्या कांग्रेस सिद्धू को आगे करके चुनाव लड़ेगी? या फिर कैप्टन अमरिंदर सिंह चुनाव से पहले कोई पार्टी बनायेंगे? पंजाब कांग्रेस में कालिदास कौन है,विपक्ष बखूबी जानता है। मगर कांग्रेस हाईकमान चुप है। बहरहाल कांग्रेस के अंदर जो सियासी द्वंद मचा हुआ है,उसका हल हाईकमान को ढूंढना होगा।
 सिद्धू और चन्नी में खटास
सीएम चन्नी और सिद्धू के बीच खटास बढ़ती जा रही है। सिद्धू लगातार उनकी सरकार पर हमले कर रहे हैं। कभी डीजीपी और एडवोकेट जनरल की नियुक्ति के बहाने तो कभी हाईकमान के एजेंडे के बहाने। माना जा रहा है कि इसी के चलते चन्नी की कैप्टन से मुलाकात की जमीन तैयार हुई। कांग्रेस को उम्मीद थी कि कैप्टन अमरिंदर को हटा देने से पंजाब में सब ठीक हो जाएगा। पंजाब प्रभारी हरीश रावत ने यह कहकर सनसनी फैला दी कि पंजाब चुनाव प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के नेतृत्व में लड़ा जाएगा। इससे चन्नी सहित अनेक लोगों के कान खड़े हो गए। पंजाब में नई कैबिनेट के शपथ लेने के बाद अब पार्टी हाईकमान का पूरा फोकस साढ़े चार महीने बाद होने वाले विधानसभा चुनाव पर है। चुनाव से पहले सिद्धू को संगठन मजबूत करने की हिदायतें दी जा सकती हैं।
कांग्रेस को अनाथ कर दिया
मध्यप्रदेश में कांग्रेस के हाथ से सत्ता जाने के पीछे कांग्रेसी दबी जुबान से कमनाथ और दिग्विजय सिंह को दोषी ठहरा रहे हैं। इन दोनों ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को कांग्रेस की सत्ताई आभा से दूर रखने जो जाल बुना, उसमें कांग्रेस सरकार फंस कर धड़ाम हो गई। ज्योतिरादित्य सिंधिया को न प्रदेश अध्यक्ष और न ही राज्य सभा भेजने के लिए दोनों नेता तैयार थे। इन्ही की वजह से वो अपनी गुना सीट हार गए। ज्योतिरादित्य सिंधिया बीजेपी से हाथ मिलाकर कांग्रेस का पंजा मरोड़ दिए। आज प्रदेश में कांग्रेस के 95 विधायक हैं,लेकिन प्रदेश में कांग्रेस की हलचल शून्य है। कमलनाथ की वजह से अरूण यादव नाराज है। खंडवा लोकसभा सीट से वे चुनाव लड़ना चाहते थे। टिकट नहीं मिलने पर उनके अंदर का विरोध छलक पड़ा,फसल मैं तैयार करता हूूँ और काटता कोई और है।’’ विंध्य क्षेत्र से यदि कांग्रेस को सीट मिलती तो कांग्रेस की सरकार न जाती,ऐसा कहकर कमलनाथ ने अजय सिंह राहुल को नाराज कर दिये हैं।
रीवा जिले का प्रभारी राकेश चैधरी को बना देने पर राहुल के नाराज होने पर राजा पटेरिया को बनाया गया। गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा के घर में राहुल का डीनर करना और उनके बर्थ डे पर कैलाश विजयवर्गीय का जाकर उन्हें बुके देने के बाद यह समझा जाने लगा कि राहुल किसी भी दिन बीजेपी में जा सकते हैं। प्रदेश में एक लोकसभा और तीन विधान सभा के लिए उपचुनाव होने जा रहे हैं। इस चुनाव के परिणाम स्पष्ट करंेगे कि कांग्रेस कितनी सक्रिय है और कमलनाथ को कितना पसंद किया जा रहा है। वैसे प्रदेश मंे कांग्रेस सत्ता जाने के बाद भी कई गुटों में बंटी हुई है।
राजस्थान में पंजाब सा झगड़ा
राजस्थान में कांग्रेस के अंदर पायलट और गहलोत खेमे में 2018 से लड़ाई चल रही है। पायलट खेमा बार-बार मुख्यमंत्री बदलने की मांग करता आया है। पिछले दिनों अशोक गहलोत के ओ.एस.डी लोकेश शर्मा ने एक ट्वीट किया था। जिसे पंजाब की राजनीतिक घटनाक्रम से जोड़ कर देखा गया था। गहलोत के ओएसडी के ट्वीट पर सचिन पायलट के कई समर्थकों ने भी प्रतिक्रिया देते हुए हमला बोला। सतपाल सिंह नाम के एक पायलट समर्थक ने कमेंट में लिखा राजस्थान में बड़े फेरबदल की जरूरत है और आलाकमान करेगा। आप के नेताजी गहलोत के नेतृत्व में हम चुनाव नहीं जीत सकते हैं, आपको भी मालूम है। गहलोत सरकार ने वादा किया था कि किसानों का सम्पूर्ण कर्जा माफ करने और युवाओं को बेरोजगारी भत्ता देंगे। सब उल्टा हो रहा है। भ्रष्टाचार से लोग परेशान हैं।  
मौजूदा पीसीसी अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा से विधायक और नेता नाराज हैं। एक गुट चाहता है,सचिन पायलट को फिर अध्यक्ष बना दिया जाए। डोटासरा राज्य सरकार में शिक्षामंत्री होने के साथ ही सी.एम के खेमे के हैं। वहीं कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य रघुवीर मीणा और राज्य के कृषि मंत्री लालचंद कटारिया के नाम की भी चर्चा है।   
गहलोत के समर्थक आकोदिया का दावा है कि सचिन पायलट के सारे विधायक गहलोत के पाले मे आ गए हैं। 2018 में उनके गुट के 21 विधायक जीतकर आए थे। अब पायलट के पास मुश्किल से सात-आठ विधायक होंगे। मंत्रियों में भी आपसी खींचतान है। गत तीन जून 2021 को कैबिनेट बैठक के दौरान शांति धारीवाल और गोविंद डोटासरा आपस मे भिड़ गए। शांति धारीवाल ने डोटासरा से यहां तक कह दिया कि जो बिगाड़ना है बिगाड़ लेना मैंने बहुत अध्यक्ष देखे हैं।  
बहरहाल पिछले पचास वर्षो से कांग्रेस तमिलनाडु की सत्ता से बाहर है। 42 वर्षो से पश्चिम बंगाल की। 30 वर्षो से उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का मुख्यमंत्री नहंी है। 29 वर्षो से वह बिहार में और 24 वर्षो से गुजरात की सत्ता से बाहर है 19 वर्षो से ओड़िसा में कांग्रेस की सरकार बनी नहीं। 15 वर्षो से मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार नहीं है। छत्तीसगढ़ में 15 वर्षो बाद उसकी सरकार बनी। महाराष्ट्र और असम उसका गढ़ माना जाता था,वो भी हाथ से निकल गया है। इन सबकी वजह है कांग्रेसियों में 36 का रिश्ता होना।
 
   

 

आदिवासियों पर नजरे इनायत

           




  
बरसों से उपक्षित आदिवासी इस समय राजनीति के केन्द्र में है। इसलिए कि विधान सभा की 47 और लोकसभा की 6 सीटें आरक्षित हैं। केन्द्र सरकार आदिवासियों को रिझाने दो सौ करोड़ रुपए से जनजातीय नायकों की स्मृतियांँ संजोने संग्राहलय बनायेगी। कांग्रेस आदिवासियों में अपना जनाधार बचाने के लिए जूझ रही है, तो भाजपा उसे झपटने के लिए जाल बुन रही है।
0 रमेश कुमार ‘रिपु’
            जबलपुर में 18 सितम्बर को केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने ऐलान किया कि केन्द्र सरकार ने आदिवासी नेताओं के सम्मान में देश भर में 200 करोड़ रुपए की लागत से नौ संग्राहलय बनवायेगी,जिनमें एक मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा में होगा। यह संग्रहालय शंकर और रघुनाथ शाह पर केन्द्रित होगा। प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष वी.डी.शर्मा कहते हंैं,हमारी सरकार आदिवासियों के उत्थान के लिए प्रतिबद्ध है। उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाना चाहते हैं। हमारी सरकार आदिवासियों के नायकों के इतिहास से सबको परिचति कराने के लिए संग्राहलय बनाने कदम उठाया है।’’ 
केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह अपनी इस घोंषिणा के जरिए मध्यप्रदेश ही नहीं, देश भर के आदिवासियों को रिझाना चाहते हैं। क्यों कि मध्यप्रदेश में करीब दो करोड़ जनजातीय आबादी है। यानी राज्य की कुल आबादी में इनकी हिस्सेदारी करीबन 21 फीसदी है। राजनीतिक नजरिये से देखें तो प्रदेश की 230 विधान सीटों में से 47 सीटें अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए आरक्षित है। वहीं लोकसभा की 29 सीटों में छह सीट अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है।
दरअसल 2013 के चुनाव में बीजेपी को 47 सीट में 30 सीटें मिली थीा। और उसकी सरकार बनी थी। लेकिन 2018 के चुनाव में कांग्रेस ने अनुसूचित जनजाति के लोगों को विश्वास दिलाया, कि उनका हित सिर्फ कांग्रेस सरकार में ही है। और कांग्रेस को 47 में 30 सीटें मिलने से बाजी पलट गई। कांग्रेस की सरकार बन गई। यह अलग बात है कि कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया की सियासी लड़ाई में कांग्रेस की सरकार धड़ाम हो गई। शिवराज सिंह पुनः मुख्यमंत्री बन गए। भविष्य की राजनीति को ध्यान में रखकर  राष्ट्रीय नेतृत्व ने आदिवासियों को साधने के लिए घोंषणा की,ताकि आदिवासी वोटर छिटकें नहीं,और बीजेपी को मिलने वाली सीटों का नुकसान न हो।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान ने एस.टी वोटरों को रिझाने की दिशा में राज्य में पेसा पंचायत अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार कानून 1996  लागू करने की घोषणा की। राज्य के आदिवासी बहुल 89 विकासखंडों के करीब 24 लाख परिवार जहाँं उचित मूल्य की दुकानें नहीं हैं,उन्हें साप्ताहिक हाटों से राशन उपलब्ध कराया जायेगा। स्थानीय लोगों से गाड़ियाँं 26000 रुपये प्रति माह की दर पर किराये पर ली जाएंगी। साथ ही छिंदवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम राजा शंकरशाह के नाम पर रखा जाएगा। बिरसा मुंडा जयंती को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाया जायेगा। यह घोंषणा पार्टी के नफे नुकसान को ध्यान मे ंरखकर किया गया है।  
प्रदेश में एस.टी की तीन सीटों पर हो रहे उपचुनाव के मद्देनजर ऐसे मुद्दे अधिक मायने रखते हैं। सरकार आदिवासियों को लुभाने ऐसी घोंषणा की है। वहीं मुख्यमंत्री शिवराज सिह चैहान ने अनुसूचित क्षेत्रों में ग्रामसभाओं को अधिक स्वायतता देने के लिए एक नई पहल की है। अब आदिवासी गैर लकड़ी वन उपज से आय का एक प्रतिशत अपने पास रख सकेंगे साथ ही छोटे मोटे विवाद का निपटारा खुद ही कर सकेंगे। अनुसूचित क्षेत्रों तक पंचायत का विस्तार सरकार करना चाहती है। गत फरवरी में राज्य सरकार ने राज्य के आदिवासी संस्थान,आदिम जाति कल्याण विभाग,पंचायत एंव ग्रामीण कल्याण विभाग और वन विभाग के सदस्यों की एक कमेटी गठित की है। ये सभी अनुसूचित क्षेत्र में रहने वालों के हितों का ध्यान रखेंगे।
पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ कहते हैं, शिवराज सिंह चैहान घोंषणा करने में माहिर हैं। अपने 16 साल के कार्यकाल में 16 हजार से भी अधिक घोंषणाएं कर चुके हैं। जमीन पर उनकी घोंषणाएं दिखती नहीं। प्रदेश की जनता को घोंषणा नहीं काम चाहिए। आदिवासियों का हित हो हम भी चाहते हैं,लेकिन मुझे नहीं लगता कि उनकी यह घोंषणा भी पूरी हो सकेगी।’’
सूत्रों का कहना है,राज्य की नौकरशाही मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान की इस घोंषणा के पक्ष में नहीं है। क्यों कि राज्य के खजाने पर सीधे बोझ पड़ेगा। राज्य मंें करीब 12000- 15000 करोड़ रुपए की गैर लकड़ी वनोपज होती है। गैर लकड़ी वनोपज में तेंदूपत्ता भी शामिल है। यदि इसे ग्राम सभा के हवाले कर दिया जायेगा तो सरकार को सीधे भारी राजस्व घाटा होगा। फिर सियासी सरंक्षण देना भी कठिन हो जाएगा। हर बरस सरकार वेतन और बोनस देती है,वो कहां से लाएगी। इस दिशा में कुछ भी नहीं सोचा गया है।   
गौरतलब है कि मध्यप्रदेश में पेसा कानून का पालन पूरी तरह नहीं किया जाता है। भूमि अधिग्रहण,जल निकायों से संबंधित प्रबंधन लागू हैं। लेकिन वन विभाग के कानून की वजह से टकराव होने पर पेसा कानून कमजोर पड़ जाता है। यानी मध्यप्रदेश में पेसा कानून को अधिक मजबूत बनाने के नियम बनाने हैं। ताकि पेसा कानून की खिलाफत करने वालों के खिलाफ कार्रवाई की जा सके। पूर्व नेता प्रतिपक्ष अजय सिह राहुल कहते हैं,‘‘प्रदेश में बीजेपी की सरकार 15 सालों तक रही फिर भी पेसा कानून लागू क्यों नहीं हुआ,जनता को बताना चाहिए। केवल घोंषणाओं से कुछ नहीं होता।’’
दरअसल 2018 के विधान सभा चुनाव में आदिवासी क्षेत्रों में बीजेपी का जनाधार खिसक गया था। आदिवासी क्षेत्रों में जनाधार वापस पाने के लिए बीजेपी का आदिवासियों के प्रति मोह जाग गया है। जय आदिवासी युवा शक्ति (जेएवाइएस) और पुनरूत्थान वादी गोंडवाना गणतंत्र पार्टी(जीजीपी) जैसी आदिवासी इकाइयांें की वजह से बीजेपी को डर है कि वह अपनी राजनीतिक जमीन खो देगी। क्यों कि जेएवाइएस पश्चिमी मध्यप्रदेश में एक शक्तिशाली राजनीतिक पार्टी के रूप में अपनी जमीन तैयार की है। बीजेपी की नजर पूर्वी मध्यप्रदेश और महाकौशल में अपनी आदिवासी राजनीतिक जमीन को वापस पाना चाहती है। बीजेपी की नजर में जेएवाइएस कांग्रेस की टीम है। जेएवाइएस के सदस्य डाॅ हीरालाल अलावा ने कांग्रेस की टिकट पर 2018 के चुनाव में धार जिले के मनावर सीट जीते थे। वहीं कांग्रेस जीजीपी को बीजेपी की बी टीम मानती है।
जय आदिवासी युवा शक्ति संगठन के नेता हीरालाल अलावा ने कहा,वोटों का खिसकना 15 साल के बीजेपी के लंबे शासन के खिलाफ आदिवासी मतदाताओं के गुस्से को दिखाता है। जिसने आदिवासियों को सिर्फ वोटों के लिए दबाया और शोषण किया। इस सरकार ने व्यापारियों को उनकी वन भूमि बेच दी।  
गौरतलब है कि 15-20 साल पहले की तुलना में आदिवासी मतदाता अब अपने अधिकारों को लेकर अधिक जागरूक हैं। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी का गठन 16 साल पहले आदिवासियों को उनकी पहचान दिलाने किया गया था। ये पार्टी गोंड मतदाताओं के बीच काफी प्रभावशाली है। पिछले विधानसभा चुनावों में मालवा क्षेत्र में भील आदिवासी नेतृत्व का उदय हुआ। जय आदिवासी युवा शक्ति जेएवाईएस का गठन हुआ। जीजीपी और जेएवाईएस के अस्तित्व में आने से पहले पारंपरिक पार्टियाँ मौजूद थीं। हाल के वर्षों में आदिवासी लोगों ने नीतिगत मतदान के विपरीत सामान्य तौर पर सामूहिक रूप से मतदान किया।
मध्य प्रदेश की कुल 29 संसदीय सीटों में से आदिवासी समूह शहडोल,मंडला, धार,रतलाम, खरगोन और बेतूल सहित कम से कम छह सीटों पर बेहद प्रभाव डालते हैं, जो अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित हैं। इन सीटों के अलावा वे कई अन्य सीटों जैसे, बालाघाट, छिंदवाड़ा और खंडवा जैसी सीटों पर भी परिणामों को प्रभावित कर सकते हैं। जीजीपी के अमन सिंह पोर्ते कहते हैं,लोग दिन प्रति दिन जागरुक होते जा रहे हैं। यह महत्वपूर्ण है कि हमारा आंदोलन रंग ला रहा है।’’
बहरहाल पिछले कुछ माह से कांग्रेस प्रदेश में आदिवासियों पर हो रहे हमलों का मुद्दा उठाती रही है। नीमच में एक आदिवासी को आठ लोगों ने मिलकर मारा, फिर गाड़ी में बांधकर उसे खींचा। जिससे उसकी मौत हो गई। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के मुताबिक आदिवासियों के खिलाफ अत्याचारों में 25 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। 2020 में 2401 मामले दर्ज हुए, जबकि 2019 में 1922 मामले दर्ज हुए। सच यह है कि राजनीतिक दलों को आदिवासियों के कल्याण और हितों की चिंता है,तो चुनावी नफा-नुकसान को नजर अंदाज करके आगे आना चाहिए।
 

 

Tuesday, October 12, 2021

अलग बुनावट की कथा..



नये दौर के मिजाज की कहानी है ‘बलम कलकत्ता’। इसलिए वैचारिक विमर्श के साथ स्त्री विमर्श की गुनगुनी धूप स्पर्श करती हैं। गीताश्री की पन्द्रह कहानियों का यह संग्रह औरत की दुनिया की हर दहलीज से ताअरूफ कराती है। कहानियों के मुताबिक आधी दुनिया में इश्क़,मुहब्बत,सेक्स,चाहत और बेवफाई की तहरीरें बदली नहीं है। यानी स्त्री की सारी समस्या का हल,सिर्फ पुरूषों के पास है। कहानी के किरदार नैतिकतावादी लिहाफ से दूर हैं। क्यों कि कहानी के किरदार महानगर के घरों से निकलते हैं। हर कथा की बुनावट अलग किस्म की है। इस वजह से कहानी के जूड़े में सवालों के बेशुमार फूल भी हैं।
संग्रह की तीन कहानियों का मजमूं एक ही है। भंगिमा और तासीर अलहदा है।‘‘अदृश्य पंखों वाली लड़की’’ में लेखिका युवा मन को शादी से पहले लीव इन रिलेशन में रहने के लिए प्रेरित करती हैं। ताकि शादी से पहले लड़का और लड़की एक दूसरे को जान लें। एक नई संस्कृति को जन्म देती है यह कहानी। लेखिका के मुताबिक औरत का वजूद रासायनिक पदार्थ है,जो पुरूष से मिलकर ही अपने को बदल सकती है। सवाल यह है, ऐसा जीवन जीने वाली औरतें फिर यह क्यों कहती हैं,कि पुरूष प्रेम नहीं,सिर्फ सेक्स चाहते हैं?
‘‘जैसे बनजारे का घर’ के मुताबिक आँखों के रास्ते से दिल तक पहुँचने के लिए लीव इन में रहना उम्दा तरीका है।‘‘मन बंधा हुआ है और जाल में नहीं हूँ’’ कहानी में एक सीख है। आॅफिस में पुरूषों के संग काम करने वाली लड़कियांँ लीव इन में रहने के दौरान अपने प्यार को बचाने के लिए शक की हवा को जिन्दगी में आने न दें। तीनों कहानियों के संवाद में कशिश है। रोमानियत है। भाषा चिरौंजी सी मुलायम और महुए सी नशीली है।
‘‘उनकी महफिल से हम उठ तो आए’भावनात्मक कहानी है। मांँ का मन बदल जाने पर घर परिवार को भी बदलना पड़ता है। तेजाब से जली एक लड़की में मांँ को अपनी बेटी का अक्स नजर आने पर वह उसे अपना बहू मान लेती है। इस कहानी का शीर्षक कुछ और होना चाहिए था।‘‘ बाबूजी का बक्सा और गुनाहों का इन बाॅक्स’’कहानी में प्रवाह है, मगर अस्पष्ट है। सातवे दशक की बेबस और वेदना से भरी औरत की कहानी है ‘बलम कलकत्ता पहुंच गए ना’। अब ऐसी औरतें कहीं नहीं दिखती।
महानगरों में औरत और मर्द के बीच बनते और बिगड़ते रिश्ते के बीच सोहानी हवा के झोके की तरह‘‘वो’’का आना एक आम बात है। कई बार जिन्दगी में बड़ें रोमांचक हादसे होते हैं,खासकर प्यार को लेकर। जो कहते हैं,मुझे कभी इश्क नहीं हो सकता। बरसों बाद जब वो अपने साथी से मिलते हैं,तो मन अनायास उसकी ओर झुकने लगता है। वक़्त और परिस्थितियांँ आदमी को बदल देती है,'सोलो ट्रेवलर’यही एहसास दिलाता है। ‘‘उदास पानी में हंँसी की परछाइयांँ’’ कथा में समझदार औरतें अपने रिश्ते से खुश नहीं होने के बाद भी जल्दी अपना रिश्ता खत्म करने की नहीं सोचतीं। कोई दूसरा हाथ बढ़ाए तो भी। किसी का साथ भले उदास पानी में हंँसी परछाई सी क्यों न हो। किसी को अपना बनाना है तो उसकी पसंद को जानें और उसे पूरा करने की कोशिश करें। देखना एक दिन वो तुम्हारा हो जाएगा,‘एक तरफ उसका घर’ कहानी यही कहती है।
औरत और पुरूषों के बीच संबंधों की नई बुनावट को जानने और समझने की चाह रखने वालों के लिए ‘बलम कलकत्ता’ कथा शिल्प के स्तर से अच्छी है। वहीं प्रूफ की गलतियांँ, खीर में कंकड़ सी हैं।
किताब - बलम कलकत्ता
लेखिका - गीताश्री
प्रकाशक - प्रलेक प्रकाशन,मुंबई
@ रमेश कुमार "रिपु"

 

Saturday, September 11, 2021

राजेन्द्र की सियासत का बी प्लान



🍙रीवा में बीजेपी ओबीसी प्रत्याशी देगी
🍙जनार्दन सेमरिया से चुनाव लड़ेंगे
🍙राजेन्द्र की टिकट फंस गई

रीवा। राजेन्द्र शुक्ला अभी से अपनी सियासत के बी प्लान को अंजाम देने में जुट गये हैं। बीजेपी चूंकि ओबीसी को तरजीह देने की सियासत में लगी है। ऐसी स्थिति में राजेन्द्र जानते हैं, अगली दफा रीवा विधान सभा से उन्हें टिकट नहीं मिलेगी। वोटर की संख्या के अनुसार रीवा में अगले विधान सभा चुनाव तक ओबीसी यानी मुस्लिम वोटरों की संख्या 27 हजार हो जाएगी। जाहिर है कि रीवा से मुस्लिम दावेदार खड़े होंगे। पटेल उम्मीदवार अभी से तैयारी कर रहे हैं। राजेन्द्र लोकसभा चुनाव लड़ने की चर्चा गत माह संघ के एक पदाधिकारी से की है।(जो कि मेरे मित्र हैं)। वे चाहते हैं कि सेमरिया विधान सभा से जनार्दन चुनाव लड़ें।

राजेन्द्र शुक्ला इस समय अपनी सुरक्षित सीट के लिए गुणा भाग करने में लगे हैं। गत माह वे सघ के एक पदाधिकारी से मिले। उन्हें अपनी सियासत का बी प्लान बताया। उनके अनुसार जनार्दन मिश्रा को सेमरिया विधान सभा से चुनाव लड़ा दिया जाए। यदि जीत गये तो ठीक। हारने पर उनका लोकसभा का दावा कट जायेगा। जो व्यक्ति विधान सभा चुनाव नहीं जीत सका, वो लोकसभा चुनाव कैसे जीत सकता है!

🍙अजय अभी से तैयारी में
रीवा में बीजेपी अध्यक्ष अजय सिंह पटेल हैं। जो कि राजेन्द्र की पसंद के नहीं है। राजेन्द्र अपनी पूरी ताकत लगा दिये थे, कि अजय सिंह पटेल बीजेपी के जिला अध्यक्ष न  बनें। वे जानते हैं अजय उनकी सियासत की राह में कंटक हैं। वे रीवा विधान सभा चुनाव लड़ने की अपनी गोटी अभी से बिछाने लगे हैं। विधान सभा नहीं तो लोकसभा की टिकट चाहिए ही। ऐसे में राजेन्द्र और जनार्दन दोनों की राह में अजय सबसे बड़े कंटक हैं। जर्नादन को हटाने सिंधियों ने राजेन्द्र को सलाह दी है। समदड़िया इस बार उनके चुनाव का सारा मैनेेजमेंट देखेगा। जनार्दन अपनी सीट कैसे बचायेंगे,उनकी सियासत भी नहीं जानती। वैसे जनार्दन अभी तक राजेन्द्र को बड़ा महत्व देते आये हैं। लेकिन राजेन्द्र कभी भी उन्हें तरजीह नहीं दिये। यानी अगले चुनाव तक राजेन्द्र और जनार्दन में 63 नहीं 36 का सियासी रिश्ता बन जायेगा।

🍙बस कुछ दिन और..
रीवा विधान सभा पर सबकी नजर है। बीजेपी के कई विधायक और नेता राजेन्द्र की राजनीति को  खत्म करने का जाल बुनने लगे हैं। नरोत्तम मिश्रा वैसे भी राजेन्द्र को पसंद नहीं करते। वे उनकी राजनीति को खत्म करने के लिए ही गिरीश गौतम को विधान सभा अध्यक्ष बनाने में अपनी हर कोशिश को अंजाम दिया। जब तक शिवराज हैं, तभी तक राजेन्द्र बिना मंत्री के मंत्री की भूमिका का शो चला रहे हैं। वैसे शिवराज का हटना सौ फीसदी तय है।

🍙प्रदीप कंटक बनेंगे राजेन्द्र के
सबसे बड़ा सवाल यह है कि राजेन्द्र रीवा छोड़ेंगे या फिर कोई दूसरा विधान सभा तलाशेंगे। मऊगंज के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं है। प्रदीप सिंह पटेल के बीजेपी छोड़ने की ज्यादा संभावना है। सूत्रों कहना है कि वे बीएसपी से लोकसभा चुनाव लड़ेंगे। बीजेपी में आने के बाद उन्हें कुछ भी नहीं मिला,जिसकी उन्हें अपेक्षा थी। जिले में उन्हें एक ट्रांसफार्मर के लिए धरना देना और अनशन करने के बाद भी उनकी नहीं सुनी जाने से वो नाराज है। उनके समर्थक कहते हैं, कि इसके पीछे राजेन्द्र का हाथ है। लोकसभा यदि राजेन्द्र चुनाव लड़ते हैं तो उन्हें शिकस्त देने प्रदीप बीएसपी से चुनाव लड़ेगे। वैसे भी प्रदीप इसके पहले बीएसपी के संभागीय संगठन मंत्री रह चुके हैं।
बहरहाल राजेन्द्र की सियासत का प्लान बी सामने आ जाने से एक नई सियासी रणनीति भी बनने लगी है। शेष अगली बार। 
@रमेश कुमार "रिपु"

 

हाथ से नहीं फिसली सत्ता’’






सियासत की जमीं पर आशंकाओं की उड़ती धूल के बैठते ही एक बात साफ हो गई, कि पाँच राज्यों के चुनाव होने तक भूपेश बघेल के हाथ में ही सत्ता की कमान रहेगी। वे राजनीति में अर्द्धविराम साबित नहीं होंगे।
0 रमेश तिवारी ‘रिपु’
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सियासी टेबल पर ढाई साल बीतते ही ‘‘पंजा’’ लड़ाने की सियासत अचानक तेज हो गई। जून में मुख्यमंत्री बदलने की हवा चली। लेकिन परिवर्तन की हवा में तब्दील नहीं हुई। फिर अगस्त-सितम्बर में टी.एस सिंह देव ने परिवर्तन की बात कहकर कांगे्रस में खलबली मचा दिये। दस जनपथ इसके लिए तैयार नहीं हुआ। और इसी के साथ मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की सत्ताई सियासत अल्पविराम साबित नहीं हुई। यह अलग बात है कि उनके हाथ से सत्ता की डोर खींचने की सियासत रायपुर से दिल्ली तक दौड़ धूप करने वालों की भारी भद्द हुई।
टी.एस सिंह देव के सलाहकार उन्हें यह बात नहीं समझा सके, कि राजनीति में कोई भी वायदा वक्त के साथ बदल जाता है। राजनीति कोई बीजगणित का सवाल नहीं है, कि सूत्र से हल होता है। छत्तीसगढ़ कांग्रेस की राजनीति राजस्थान और पंजाब के सांचे में नहीं ढलेगी। इसकी वजह यह है, कि भूपेश बघेल के साथ 70 में 52 विधायक हैं। टी.एस सिंह देव अब ज्योतिरादित्य सिंधिया की भूमिका चाहकर भी नहीं निभा सकते। यह बात भूपेश के समर्थन में दिल्ली जाने वाले विधायकों की संख्या बल ने स्पष्ट कर दिया। छत्तीसगढ़ प्रभारी पी.एल पुनिया की पहली पसंद पहले से भूपेश बघेल रहे हैं। दस जनपथ भी छत्तीसगढ़ की राजनीति पर कोई फैसला लेने से पहले पीएल पुनिया की राय को नजर अंदाज नहीं कर सका। ढाई साल की सत्ताई राजनीति में भूपेश बघेल ने संगठन से लेकर दस जनपथ और मीडिया के बीच अपनी ऐसी छाप बना ली कि उस फ्रेम में दूसरा कोई फिट होता दस जनपथ को भी नहीं दिखा।
पाँंच अन्य राज्यों में गोवा,मणिपुर,पंजाब,यूपी और उत्तराखंड होने वाले चुनाव से पहले छत्तीसगढ़ की राजनीतिक नेतृत्च को दस जनपथ के बदल देने से विपक्ष को मुद्दा मिल जाता और  चुनावी औजार भी। चूंकि केन्द्र सरकार इस समय ओबीसी की राजनीति को हवा दिये हुए है। भूपेश बघेल ओबीसी नेता हैं। जाहिर सी बात है कि दस जनपथ ओबीसी नेता भूपेश बघेल के हाथ से सत्ता का हस्तांतरण सवर्ण के हाथ में करने की भूल नहीं करेगा। वैसे भी संगठन में निगम मंडल में सारे लोग भूपेश के समर्थक हैं। ऐसे में बाबा ये सोच कैसे लिए कि दस जनपथ और विधायक उन्हें मुख्यमंत्री बनाने की वकालत करेंगे!

ढाई साल में भूपेश बघेल ने न केवल राज्य में काम किये बल्कि कांग्रेस के संगठन और निगम मंडल पर अपने लोगों को बिठाकर अपनी ताकत बढ़ाई। बाबा बीच- बीच में सरकार पर चोट करने वाले बयान देकर भूपेश बघेल को परेशान करने की कोशिश किए। उसके बदले में उन्हें राजनीतिक नुकसान भी उठाना पड़ा। जिसकी सत्ता होती है,उसके आईने में पत्थर फेकने वालों को आईने की खरोच तो मिलेगी ही। बाबा काग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं लेकिन, ढाई साल की सत्ता में वो विधायकों को अपना नहीं बना सके।

सबसे बड़ा सवाल यह है कि अब बाबा क्या करेंगे? उनकी राजनीति का स्वास्थ्य ठीक रहेगा कि नहीं? मुख्य मंत्री क्या उन्हें और बाएं करेंगे? बाबा कब तक चुप रहेंगे? क्या पांच राज्यों के चुनाव के बाद बाबा फिर दस जनपथ की दौड़ लगायेंगे? हर राजनीतिक व्यक्ति की महत्वाकांक्षा होती है। बाबा भी अपने नाम के साथ मुख्यमंत्री नाम की चाह रखते हैं। हो सकता है कि पांच राज्यों के चुनाव के बाद बाबा को राष्ट्रीय महासचिव या फिर किसी राज्य का प्रभारी बना दिया जाये। बहरहाल,भूपेश की सत्ताई राजनीति की शाम नहीं हुई।



 

 

Tuesday, August 31, 2021

भूपेश की सत्ताई राजनीति की शाम नहीं हुई..



रायपुर। सत्ताई सियासत में भूपेश बघेल अल्पविराम साबित नहीं हुए। लेकिन उनके हाथ से सत्ता की डोर खींचने की सियासत रायपुर से दिल्ली तक दौड़ धूप करने वालों की भारी भद्द हुई। राजनीति में कोई भी वायदा वक्त के साथ बदलता रहता। राजनीति कोई बीजगणित का सवाल नहीं है, कि सूत्र से हल होता है। छत्तीसगढ़ कांग्रेस की राजनीति राजस्थान और पंजाब के सांचे में नहीं ढलेगी। इसकी वजह यह है, कि भूपेश बघेल के साथ 70 में 52 विधायक हैं। टी.एस सिंह देव अब ज्योतिरादित्य सिंधिया की भूमिका चाहकर भी, नहीं निभा सकते। यह बात भूपेश के समर्थन में दिल्ली जाने वाले विधायकों की संख्या बल ने स्पष्ट कर दिया। छत्तीसगढ़ प्रभारी पीएल पुनिया की पहली पसंद पहले से भूपेश बघेल रहे हैं। दस जनपथ भी छत्तीसगढ़ की राजनीति पर कोई फैसला लेने से पहले पीएल पुनिया की राय को नजर अंदाज नहीं कर सकता। ढाई साल की सत्ताई राजनीति में भूपेश बघेल ने संगठन से लेकर दस जनपथ और मीडिया के बीच अपनी ऐसी छाप बना ली, कि उस फ्रेम में दूसरा कोई फिट होता ,दस जनपथ को भी नहीं दिखा।

पांच अन्य राज्यों में गोवा,मणिपुर,पंजाब,यूपी और उत्तराखंड होने वाले चुनाव से पहले छत्तीसगढ़ की राजनीतिक नेतृत्च को दस जनपथ के बदल देने से विपक्ष को मुद्दा मिल जाता और  चुनावी औजार भी। चूंकि केन्द्र सरकार इस समय ओबीसी की राजनीति को हवा दिये हुए है। भूपेश बघेल ओबीसी नेता हैं। जाहिर सी बात है कि दस जनपथ ओबीसी नेता भूपेश बघेल के  हाथ से सत्ता का हस्तांतरण सवर्ण के हाथ में करने की भूल नहीं करेगा। वैसे भी संगठन में,निगम मंडल में सारे लोग भूपेश के समर्थक हैं। ऐसे में बाबा ये सोच कैसे लिए, कि दस जनपथ और विधायक उन्हें मुख्यमंत्री बनाने की वकालत करेंगे!

ढाई साल में भूपेश बघेल ने न केवल राज्य में काम किये बल्कि कांग्रेस के संगठन और निगम मंडल पर अपने लोगों को बिठाकर अपनी ताकत बढ़ाई। बाबा बीच- बीच में सरकार पर चोट करने वाले बयान देकर भूपेश बघेल को परेशान करने की कोशिश किए। उसके बदले में उन्हें राजनीतिक नुकसान भी उठाना पड़ा। जिसकी सत्ता होती है,उसके आईने में पत्थर फेकने वालों को आईने की खरोच तो मिलेगी ही।बाबा काग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं, लेकिन ढाई साल की सत्ता में वो विधायकों को अपना नहीं बना सके।

सबसे बड़ा सवाल यह है, कि अब बाबा क्या करेंगे? उनकी राजनीति का स्वास्थ्य ठीक रहेगा कि नहीं? मुख्य मंत्री क्या उन्हें और बाएं करेंगे? बाबा कब तक चुप रहेंगे? क्या पांच राज्यों के चुनाव के बाद बाबा फिर दस जनपथ की दौड़ लगायेंगे? हर राजनीतिक व्यक्ति की महत्वाकांक्षा होती है। बाबा भी अपने नाम के साथ मुख्यमंत्री नाम की चाह रखते हैं। लेकिन एक बात साफ है, कि ढाई साल का फार्मूला अब लागू नहीं हुआ, तो बाद में इसके लागू होने की संभावना कम ही बनती है। बहरहाल,भूपेश की सत्ताई राजनीति की शाम नहीं हुई।
@रमेश कुमार "रिपु"


‘बहेलिए’ के पंजे में आधी दुनिया



कथाकार अंकिता जैन रूढ़ नैतिकता की दीवार गिराने की कोशिश की है कहानी संग्रह बहेलिए के जरिए । ‘बहेलिए’ संग्रह में नौ कहानियांँ है। कहानी में समाज के वो बहेलिए हैं,जिनसे औरत के वजूद पर चोट पहुंँचती है। ये बहेलिए सिर्फ पुरुष ही नहीं,समाज की पुरानी मान्यताएं, परंपराएं,परिवार की महिलाएँं आदि हैं। ऐसे बहेलियों की चंगुल से बचने या फिर कैद से निकलने स्त्रियां चौकाने वाली राह चुनती हैं। वहीं हर कहानी सामाजिक परिवेश की दहलीज पर एक निशान छोड़ते हुए स्त्री की सोच को भी टटोलती है।

संग्रह की कुछ कहानियों से सवाल उठता है,कि आधी दुनिया की बौद्धिक और समझदार महिलाएंँ जानते हुए भी उस रास्ते पर क्यों चलती हैं,जिसकी कोई मंजिल नहीं है। लेखिका की स्त्रियांँ जानते हुए भी ऐसे प्रेम में पड़ती हैं,जो कभी मुकम्मल नहीं हो सकता। यानी गैर वाजिब है। स्त्री विमर्श का यह आधुनिक स्वरूप नैतिकता से परे है। क्यों कि ‘मजहब’ और ‘रैना बीती जाए’ की स्त्रियांँ एक विवादित प्रेम पथ को अंगीकार करती हैं।‘मजहब’ कहानी की नायिका मनोज चौरसिया की बेटी जूली घर में विरोध के बावजूद मुस्लिम लड़के के प्यार में पड़कर उसके बच्चे की माँं बन जाती है। रूढ़ नैतिकता के खिलाफ जाकर जूली बच्चे को जन्म देने का फैसला करती है। दूसरे शहर में अपनी पहचान छिपाकर नर्स की नौकरी करती है। मगर मजहबी दंगे में जूली की बेटी गंभीर रूप से घायल हो जाती है। हिन्दू-मुस्लिम की लड़ाई जूली का पीछा नहीं छोड़ते। उसकी बेटी दंगे में गंभीर रूप से घायल हो जाती है। और वह अपनी बेटी को बचाने आॅपरेशन थियेटर में चली जाती है। सवाल यह है कि जातीय वैमनस्यता के बहेलिए सिर्फ स्त्री के लिए ही क्यों?

अंकिताजैन की स्त्रियांँ क्या रूढ़ नैतिकता की विरोधी हैं, इसलिए घर,समाज के मूल्यों के खिलाफ चलती है अपनी नई रेखा खींचने के लिए? जैसा कि ‘रैना बीती जाए’ कहानी में मीरा अपने बाॅय फ्रेंड आकाश से सम्पूर्ण समर्पण चाहती है। लीव इन रिलेशन शिप में रहते हुए उसके माँ बनने पर आकाश अपनी परेशानी बताकर शादी से इंकार कर देता है। बिन ब्याही माँ मीरा दूसरे शहर में अपने प्रेम को,अपनी माता-पिता की लाज रखते हुए विधवा,अनाथ और ससुराल वालों की परित्यकता मां बताकर नौकरी कर लेती है। एक दिन बेटा मां से अपने पिता के बारे में पूछता है। वह पिता के प्यार से उसे वंचित नहीं रखने का फैसला करती है। दरअसल दाम्पत्य संबंध आपसी समझ और आत्मीयता पर आधारित होना चाहिए। मूड के हिसाब से जो प्रेमी समर्पण और देह का इस्तेमाल करता हो, उससे समय रहते अलग हो जाना ही स्त्रियों के लिए ठीक है।

प्रायश्चित और कन्यादान’दोनों भावनात्मक कहानी है। प्रायश्चित’ में एक बिगड़ैल पिता अपनी पत्नी की मौत के बाद बेटी के लिए बदल जाता है। क्यों कि, उसकी पत्नी चाहती थी,कि उसकी बेटी खूब पढ़ लिख कर अपने पैरों पर खड़ी हो। जबकि पत्नी की मौत के पहले तक पिता बेटी की उपेक्षा करता आया था। इंटर में बेटी के टाॅप करने पर उसे उसके स्टाॅफ में जो सम्मान मिला,उस एक पल की खुशी ने उसे बदल दिया। यानी जो पिता अपनी बेटी और पत्नी के सपनों का बहेलिया था,वह ग्लानी के सागर में डूब कर अच्छा पिता बन जाता है। घर वालों के समक्ष कहता है,उसकी बेटी जहां तक पढ़ेगी उसे पढ़ाएगा,अभी शादी नहीं करेगा।

कन्यादान कहानी में परिस्थिति वश मजदूर तेली जाति का बुजुर्ग पिता अपनी जवान बेटी की शादी अधेड़ विदुर ब्राम्हण भोला से नहीं करना चाहता। दुविधा में रहता है,कैसे अपनी बेटी को सारी बात बताए। बेटी उनकी परेशानी का सच उगलवा लेती है। लाचार पिता को खुशी देने बेटी अपनी बोली लगा आती है। वहीं एक पागल की मौत’ आज की घिनौनी राजनीति के सच का आईना है। ‘बंद खिड़कियां‘ गहरे जीवन के अनुभव की कहानी है। पढ़ी लिखी बहू पुरानी मान्यताओं को ढोने वाली सास के बंधन को विवेक से तोड़ती है। बहरहाल अकिता जैन की स्त्रियों में जीवन जीने की भरपूर चाह है। हर कहानी सामाजिक परिवेश की दहलीज पर एक सवालिया निशान छोड़ते हुए स्त्री की सोच को भी टटोलती है।
लेखक - अंकिता जैन
प्रकाशक - राजपाल
कीमत - 176 रुपए
@रमेश कुमार "रिपु"

स्त्री विमर्श की तीसरी आँख.


चन्द्रकांता जी की संकलित कहानियां में ,नूराबाई और गीताश्री की बलम कलकत्ता में औरत की बेबसी,सामाजिक चिंता,उसके मन के तहखाने के अंधेरे और उसकी दर्द की तहरीर कैसी है,देख रहा था। इन दोनों लेखिकाओं की स्त्री विमर्श की नब्ज को टटोलने पर उम्र और समय की धड़कन में भारी अंतर है। चन्द्रकांता जी की यह कहानी 2000 के पहले की जान पड़ती है और गीताश्री की बलम कलकत्ता साल दो साल पहले की। कहानी की भाषा चन्द्रकांता जी की ज्यादा सधी और पठनीय है। वहीं गीताश्री की कहानी की भाषा, आम बोलचाल की है। इनकी कहानी में पत्रकारिता की भाषा का पुट झलकता है।
इन दो लेखिकाओं की कहानी में एक आम औरत है। गरीब है। दूसरों के घरों में झाडू- पोंछा करती है। दोनों कहानी की नायिका की एक बेटी है। आदमी शराबी है। चन्द्रकांता जी की कहानी की नायिका अपनी बेटी को गंदी करने पर अपने देवर की हत्या कर देती है। गीताश्री की कहानी की नायिका भी अपने पति की पीड़ा सहती है,मगर वो नये जमाने की गरीब है। फिर भी नूराबाई और उसमें बहुत अंतर नहीं है। चूंकि नये जमाने की गरीब महिला है, इसलिए उसमें अपना भला किसमें है,उस पथ को चुनने की समझ है। अपने शराबी पति को छोड़ कर अपनी बेटी के होेने वाले पति के साथ कलकत्ता चले जाना बेहतर समझती है।
सवाल यह है,कि अजादी के बाद पढ़ी- लिखी फर्राटेदार अंग्रेेजी बोलने वाली लेखिकाओं ने महिलाओं को कहानी में इतना कमजोर क्यों बताती आ रही हैं? प्रेम चंद के दौर की महिलायें कब की मर गई हैं। हर गरीब महिला का पति शराबी ही क्यों है? वो दूसरों के यहां झाड़ू -पोछा करेगी,और उसका पति शराब पीने के लिए अपनी पत्नी का पैसा छीन लेगा। उस पर बुरी नजर कईयों की रहेगी। क्या ऐसी ही कहानियों से स्त्री विमर्श का पक्ष मजबूत होगा?
ऐसी कहानियाँ क्यों नहीं लिखती,जैसा मंच पर लेखिकायें बोलती हैं। झाडू- पोछा करने वाली गरीब महिला को अपने जैसा क्यों नहीं बताती। शराबी पति को छोड़ क्यों नहीं देती। एक तरफ पितृसत्ता को गरियाती हैं। लेकिन अपनी कहानी की नायिकाओं की सोच नहीं बदलती? सोच बदलें, तो देश बदले। आधी दुनिया का ढांचा बदले। ऐसा लगता है, कि गरीबी की बेबसी पर लिखने से ज्यादा प्रशंसा मिलती है। वहीं सरकार मानती है, कि गरीबी अब वैसी नहीं है,जैसे प्रेमचंद के जमाने में थी।
आखिर कब तक कहानियों में गरीब महिला की बेबेसी,को ओर उसे दोयम दर्जे का दिखाया जायेगा! यह चलन बंद होना चाहिए। सलीम-जावेद की कहानियों में एक मुस्लिम पात्र जरूर होगा। वह बहुत ही इनायत मन का होगा। ब्राम्हण और बनिया कमीने होंगे। जबकि वास्तविक जीवन में इसके विपरीत है।
अखबार की खबरें बताती हैं, कि गरीब महिला जिससे इश्क करती है,उसका पति शराबी और निकम्मा होने पर वह किसी और से प्यार करके उसके साथ भाग जाती है या फिर अपने पति को प्रेमी के साथ मिलकर रास्ते से हटा देती है। इश्क के रंगों के साथ गरीबी का भी रंग बदला है। महिलायें रूढ़ नैतिकता की दीवार गिराने में अब आगे-आगे हैं। लक्ष्मण रेखा को पार करके अपनी एक अलग पहचान बनाना चाहती हैं। गीताश्री के जैसी कहानियांँ स्त्री को पुरुष के साथ खड़ा होने से रोकती हैं। स्त्री-पुरुष के दाम्पत्य जीवन की आकांक्षाओं के विपरीत तस्वीर बनाती हैं, ऐसी कहानियां। गरीबी में भी स्त्री और पुरुष के बीच प्रेम का सम्पूर्ण प्रतिदान एक दूसरे के प्रति होना ही स्त्री विमर्श की सार्थकता है। स्त्री जाति की पूरी अस्मिता के बारे में नई लेखिकाओं को सोचना चाहिए। स्त्री विमर्श की तीसरी आँख


से आधी दुनिया को देखने का आगाज कब होगा..!
@रमेश कुमार "रिपु"

 

नैतिकता की सघंनता.


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भावुकता और नैतिकता से गुजरती गिरीश पंकज की कहानियांँ को पढ़ना गहन अनुभूति से गुजरने जैसा है। कहानी संग्रह ‘काॅल गर्ल की बेटी’ पाठक के अंतर्मन को झकझोर देती है। इस किताब का नाम ‘काॅल गर्ल की बेटी’ होने से आम पाठक के मन में किताब को लेकर कई संदेह हो सकते हैं। लेकिन ‘काॅल गर्ल की बैटी‘ में एक माॅ के संघर्ष की कथा है। 'काॅल गर्ल'न केवल अपना सपना पूरा करती है बल्कि, अपनी बेटी को ऊॅचे मुकाम तक पहुँचाती है। कहानी बताती है, कि इच्छा शक्ति से बड़ी, कोई दूसरी ताकत नहीं होती।

सग्रह में 25 कहानियाॅं है। सभी कहानियों में नैतिकता, इंसानियत, अपनत्व, सांस्कृतिक मूल्य और मर्यादा का संदेश है। जो आदमी को इंसान बनाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। कहानियों की भाषा घुमावदार नहीं है। हर कहानी अपनी बात सहज और सीधे तरीके से कहती है। इन कहानियों में 21 वीं सदी के छल,प्रपंच और अपने स्वार्थ के लिए नैतिक मूल्यों को दरकिनार करने की भयावहता का अक्स कई परतों में देखने को मिलता है। नये दौर में आज की पीढ़ी की मनोवृति पर चोट करते हुए और समाज में नैतिकता की क्षीण होती भूमिका पर कई कहानियों में रोष देखा गया है। ‘ज्ञान का पिटारा’ से पता चलता है, कि नेताओं के कथनी और करनी में कितना अंतर होता है। समाज में सांस्कृतिक पतन के लिए यही दोषी हैं। बच्चों को शिक्षा प्रद फिल्म बनाने की बात संस्कृति विभाग करता है। मगर रिश्वत के वह किसी को बजट नहीं देता।

‘स्वप्न भंग’ व्यंग्य शैली में है। सियासी व्यक्ति को कुर्सी मिलने पर सेवाराम से मिठाई लाल बनने की कथा है। यह लोकतंत्रीय व्यवस्था पर कटाक्ष है। ‘मै यही रहूॅंगा’ एक भावनात्मक कहानी है। खुदगर्ज बेटों की कभी बुराई पिता नहीं करते। वहीं बड़ा पैकेज पाने वाले बेटे कभी पलट कर नहीं देखते, कि उनके माता-पिता किस हाल में हैं। बुजुर्ग अभिभावकों के मन की पीड़ा और उनके भाव को कहानी में चित्रित किया गया है।

गिरीश पंकज की कहानियांँ संवेदनाओं की भट्टी में तपी हुई हैं। इसीलिए विविध भावबोध हैं। ‘देवता’ कहानी में इंसानियत के लय और ताल की भावनाएं है। दोस्ती में खटास हमेशा पैसे से आती है। यदि दो लोगों में एक का मन साफ हो, तो किसी न किसी मोड़ पर सामने वाले का मन भी बदल जाता है।

बूढ़ों का गाँव’ संग्रह की यह कहानी मन को छू लेती है। गाँव को नजर लगती नहीं,बल्कि लगाने वाले आते हैं। विकास के सपने दिखाना और जमीन के बदले मुआवजा का लालच देकर रिश्ते में अलगाववाद का बीज हर गांँव में बोया जा रहा है। नई और पुरानी पीढ़ी के बीच कैसे तनाव की सड़कें बनती है, बताती है कहानी।

बेटी मेरा अभिमान है,कहना बड़ा सहज है। लेकिन टी.वी में रेप की घटनायें किसी भी मांँ की मनोदशा पर विपरीत असर डालते हैं। बेटी होने का डर, क्या होता है सिर्फ माॅ समझती है। एक माॅं क्यों नहीं चाहती बेटी, उसके डर को उकेरा गया है ‘नहीं चाहिए बेटी में’।
सेवा आश्रम’ में एक संदेश है। पढ़ाई-लिखाई का तभी महत्व है जब उसका सदुपयोग समाज की भलाई में किया जाये। एक कुष्ठ रोगी स्वयं ठीक होने के बाद अपने गाॅव में दूसरों के उपचार के लिए सेवाश्रम खोलता है।

‘नया बनवारी,सबला,बुराई का अंत,असली वारिस,कानून का कमाल,आजादी आदि कहानियाँ लोगों की भावनाओं को जाहिर करते हुए एक दूसरे से जोड़ती हैं। सभी कहानियों में अलग-अलग पृष्ठभूमि के पात्र हैं। गिरीश पंकज की कहानियों के केन्द्र में समाज में फैली विसंगतियों की वजह के साथ ही,उसके निदान की ओर इशारा भी करती हैं। कहानियों में मनुष्य की प्रवृतियों के हर पहलू पर चिंता जताई गई है। कहानियों के पात्र और उनकी परिस्थितियांँ सहज और सरल है,उनकी भीतरी जटिलताओं को उभारने का ईमानदार प्रयत्न किया गया है। यह कहानी संग्रह समाज में नकारात्मक सोच और विचार के वे लोग,जो नैतिकता और इंसानियत को नहीं मानते, उन्हें सचेत करती है, कि समाज के नैतिक मूल्यों की अनदेखी करेंगे तो उसका अंजाम विस्फोटक होगा। किताब में प्रूफ की गलतियांँ खटकती है। नैतिकता और सामाजिक मूल्यों को तरजीह देने वाले पाठकों को यह किताब पसन्द आएगी।
लेखक- गिरीश पंकज
प्रकाशक-इंडिया नेट बुक्स
कीमत -250 रुपये
@रमेश कुमार "रिपु"

एक उदास कहानी



बनारस कभी सोता नहीं। लेकिन, अक्टूबर जंक्शन में कथा का नायक सदा के लिए सो जाता है। नये जमाने में ‘गुनाहों का देवता’ की कथा कैसी होगी,उसकी कार्बन काॅपी है ‘‘अक्टूबर जंक्शन’’। लेकिन कथा में मुहब्बत की वो तासीर नहीं है,जो गुनाहों का देवता में है। कहीं भी मुहब्बत का दर्द नहीं छलकता। अलबता कामूकता के लिबास में लिपटे कई पन्ने हैं। पूरी कथा में लेखक ने न कथा के नायक के मन में और न ही नायिका के मन में, मुहब्बत का नर्म एहसास कराया। लेकिन 150 पेज की कथा में नायक की जिन्दगी के ऐसे पन्ने है,जो पाठक को बेचैन करते हैं। गुस्सा दिलाते है। उसका मन करता है कि दिव्य प्रकाश को फोन लगाकर बोले कि, कौन सी फिलासफी लिखी है। बहुत सारे पाठक इस किताब को अधा पढ़कर छोड़ भी सकते हैं। जो पढ़ लेंगे, वो दिव्य प्रकाश को बहुत अच्छा बोलने की गुस्ताखी नहीं करेंगे।

दिव्य प्रकाश स्वयं कहानी के अंत में स्वीकारते हैं कि, लेखक नहीं चाहता कि कुछ कहानियां पूरी हो। इसलिए कि कहानियां पूरी होने पर दिल दिमाग उंगलियों से हट जाती है। वे मानते हैं कि, अधूरी कहानियांँ होने से पाठक और लेखक की उंगलियाँं उसे बार बार छूती हैं। उदासियों के लिहाफ को कौन छूता है भाई? उदास कर देने वाली यह एक ऐसी किताब है जिसमें, 80 पेज पढ़ने के बाद पाठक यह समझता है कि, इस कहानी का अंत ऐसा कुछ होगा। लेकिन जबरिया कहानी को धर्मवीर भारती के गुनाहों का देवता की कार्बन काॅपी बना देने से हैरानी होती है।

धर्मवीर भारती में सुधा और चंदर नहीं मिल पाते। सुधा मर जाती है। अक्टूबर जंक्शन में कथा का नायक सुदीप मर जाता है और चित्रा उसकी पत्नी बनते बनते रह जाती है। दोनों के बीच मुहब्बत की खुशबू नहीं है, मन की चाहत भी नहीं है। फकत देह का आकर्षण है। चूंकि कहानी नये जमाने की है, जाहिर सी बात है कि, कथा का नायक सुदीप और नायिक चित्रा पाठक दोनों को देह कीे मुहब्बत से इतराज नहीं है। क्यों कि, चित्रा नये जमाने की लड़की है। उसके भी शरीर की अपनी जरूरतें है,जो किसी के भी साथ सोकर पूरा कर लेती है। और सफलता की सीढ़ी पर चढ़ने के लिए सब कुछ करने में माहिर है। चित्रा तलाकशुदा है। चित्रा की मुलाकात बनारस में सुदीप से होती है। दोनों एक दूसरे से अपरिचित हैं। सुदीप पैसे वाला है। एक कंपनी में उसका अपना शेयर है। अखबारों के लिए लिखता भी है। आज कल के लड़के जैसे होते हैं,उससे जुदा नहीं है। सुदीप से मुलाकात के दौरान चित्रा बताती है कि वो एक कहानी की तलाश में है।

अक्टूबर जंक्शन को पढ़ने से यही लगता है कि, लेखक इसका नाम दिल्ली जंक्शन,बनारस घाट या फिर मुंबई जक्शन भी रख देते, तो कोई फर्क न पड़ता। इसमें हर बात एक साल बाद अक्टूबर में ही होती है। इस कहानी को पढ़ते पढ़ते यही लगता है कि, लेखक जिन जिन शहरों में गए, जिनसे मिले,उनसे बातें क्या हुई,उसे कहानी में उतार दिया हैं। लेखन में प्रवाह है। टूटन नहीं है। भाषा शैली कई जगह मोहक है। जिस तरह चित्रा कहानी तलाश रही है,उसी तरह पाठक भी पढ़ते वक्त तलाशेगा कि इस किताब की कहानी क्या है? इस किताब में खुली कामुकता और सौन्दर्य है।

नये जमाने के कथाकार अपने तरीके से अफसाने गढ़ते हैं। लेकिन ऐसा बहुत कम होता है कि, उनकी कथा नई हो। पुरानी बोतल में नई शराब की परिपाटी से आज के कई कथाकार निकलना ही नहीं चाहते। चोरी चोरी फिल्म और दिल है कि, मानता नहीं,दोनों की पटकथा एक सी है। सिर्फ फिल्मांकन नए तरीके से किया गया है। दिव्य प्रकाश दुबे की अक्टूबर जंक्शन की कथा डाॅ धर्म भारतीय की गुनाहों का देवता का बदला स्वरूप है। कहानी बनारस से शुरू होती है, और बनारस में ही खत्म हो जाती है।

चित्रा कहानी तलाश रही है बनारस में। सुदीप से मुलाकात होती है। मुलाकात दोस्ती में बदल जाती है। सुदीप से प्यार करती है भी, और नहीं भी। सुदीप उसे बताता है कि, उसकी एक गर्ल फ्रेंड है सुनयना। वो उसी से शादी करेगा। बावजूद इसके सुदीप और चित्रा दोनों दैहिक प्यार पति पत्नी की तरह करते हैं। सुदीप की चित्रा के प्रति दिलचस्पी क्यों है,लेखक यह कहीं भी नहीं बताया। फिर भी उसके लिए वो हवाई जहाज की टिकट बुक कराते रहता है। उसकी इच्छा होती है, उससे मिलने की या फिर चाहता है कि, वो उससे मिले, तो उसके लिए हवाई जहाज का टिकट बुक करा देता है। चित्रा आर्थिक रूप से कमजोर है, यह बताने के बाद भी सुदीप उसकी मदद नहीं करता। वो दूसरों के लिए घोस्ट राइटिंग करती है। सुदीप उससे साल दर साल पूछता है तुम्हारी किताब जब आए तो मुझे जरूर देना। जब उसकी किताब आती है,तब सुदीप दुनिया से जा चुका होता है।
@रमेश कुमार "रिपु"

अक्टूबर जंक्शन - दिव्य प्रकाश दुबे
प्रकाशक - हिन्द युग्म
कीमत - 125 रूपये

व्यवस्था की कड़ियों पर चोट



विचाराधीन कैदियों को तिल तिल गलाकर मार देने वाली व्यवस्था के बारे में बारीकी से बात करती है ‘‘खोई हुई कड़ियाँ’’। अंधा कानून में विचारधीन कैदी की मनः स्थिति का व्यापक चित्रण है। कहने की बात है कि, मानवाधिकार आयोग कैदियों के हक के लिए तत्पर है। कहने की बात है कि, अपराधी भले छूट जाएं लेकिन, किसी निर्दोष को सजा न हो। कहने की बात है कि, जेल यातना गृह नहीं,सुधार गृह है। पत्रकार दीपांकर के मन में संवेदना के साथ जिज्ञासा है ,यह जानने की,स्कूल के मास्टर अवनीश चन्द्र अपनी पत्नी मानसी देवी की हत्या क्यों और कैसे की। वाकय में वे अपनी पत्नी के हत्यारे हैं या फिर उन्हें फंसाया गया है?

अवनीश चन्द्र जैसे देश में लाखों विचारधीन कैदी हैं,जो बेवजह जुर्म की तय सजा से, अधिक सजा काटते हुए जेल में हैं। अपराधी बाहर मजे से हैं और निर्दोष जेल में यातना सह रहे हैं। पुलिस अब, पुलिस नहीं है। यही वजह है कि, अवनी जैसे कई निर्दोष पुलिस व्यवस्था का शिकार होकर,नक्सली का मुखबिर और साथी के आरोप में जेल में सड़ रहे हैं। बस्तर, झारखंड और बिहार में आम बात है।

बालूघाट का सामान्य मास्टर अवनीश उर्फ अवनी,कैदी नम्बर 2001 बन गया है। पत्रकार दीपांकर विचाराधीन कैदी अवनी के जरिये देश की न्यायपालिका,कार्यपालिका,पत्रकारिता और पुलिस प्रशासन को कटघरे में खड़े करतेकई सवाल करते हैं। अवनी की कथा,सत्य घटना है भी, और नहीं भी। इसलिए कि, आज हर जेल में कई अवनी हैं। हर जेलर को यही लगता है कि, सारे कैदी जेल को अपनी ससुराल समझते हैं। भरपेट मुफ्त की रोटी,टांगे फैलाकर चैन की नींद, लिबास, रिहाइश और महफूज रहने की गारंटी।

इस किताब में व्यवस्था के छल को ईमानदारी से उकेरा गया है। ऐसा लगता है कि, लेखक स्वयं सड़ी व्यवस्था के शिकार हुए हैं। यह किताब व्यवस्था की खामियोंं की एक चलती फिरती पटकथा है। कैसे किसी को अपराधी बनाया जाता है। कैदी की बीमारी पर पर्दा डालकर डाॅक्टर, कैसे उसे मरने की हालत में पहुंँचा देते हैं। पुलिस की बेईमानी भले आदमी को, कैसे गंभीर अपराधी बनाकर उसका जीवन नरक बना देती है, उस भक्षक व्यवस्था के सच को निचोड़ दिया है। देश में किसी भी हत्या की न्यायिक जांँच का नतीजा सुखद नहीं निकला। जेल में वे हैं,जिसके पास कोई राजनीतिक पाॅवर नहीं है। सत्ता से संपर्क नहीं है। गरीब हैं। ऐसे लोगों के प्रति सरकारी वकील भी कोई दिलचस्पी नहीं लेते। क्यों कि, ऐसे विचाराधीन कैदी से उन्हें कुछ भी मिलने की उम्मीद नहीं होती।

पत्रकार दीपांकर विचाराधीन कैदी नम्बर 2001 के पत्नी हंता होने का सच जानने डाल्टन गंज मंडल कारावास और आरा जेल तक सफर करते हैं। अवनी बाबू को देखकर और उनकी बातें सुनकर उनकी रूह काँंप जाती है। विचाराधीन कैदी अवनी के मन में सड़ी व्यवस्था के प्रति इतना गुस्सा है कि, वह जज से लेकर दीपांकर पर भी भरोसा नहीं करते। दीपांकर अवनी से कई सच चतुराई से उगलवा लेते हैं। अवनी भी नहीं जानते कि, उनकी पत्नी को किसने मारा। मगर, दरोगा जानता है। फिर भी, वह अवनी के खिलाफ झूठा और मजबूत केस बनाता है।
अवनी कहते हैं,’’मैं जेल में तब तक सड़ता रहूंँगा,जब तक निर्दोष न सिद्ध हो लूँ। मैं निर्दोष तभी साबित हो सकता हॅू,जब मुझ पर मुकदमा चले। बहस हो। फिर कोर्ट का निर्णय मेरे पक्ष में हो। लेकिन, मानसिक संतुलन खो चुके आदमी पर मुकदमा आज तक नहीं चल सका। जबकि मैं स्वस्थ हूूॅ। क्या, मैं अब भी पागल हॅू ,दीपांकर! अवनी झूठे हत्या के आरोप में तीस साल से जेल में हैं। दीपांकर उनके बारे में सिलसिलेवार बहुत कुछ लिखना चाहते हैं,लेकिन उसके पहले एक रात जेल में अवनी के साथ एक घटना घट जाती है।इस पर दीपांकर की जेलर कुरैशी से बहस हो जाती है। दीपांकर कहते हैं,मैं दावे से कह सकता हॅू कि,अवनी बाबू को टी.बी. थी। उन्हें जुकाम की दवा डाॅक्टर जान बुझकर देता था। अब आप कुछ मत करिये। अब जो कुछ करेगा प्रेस करेगा। जेलर बड़े ताव से कहता है,वो दिन चले गये, जब किसी पत्रकार का लिखा एक जुमला देश की तक़दीर बदल देता था।’’आज की पत्रकारिता पर यह तीखा व्यंग्य है।
एक सामान्य सी घटना को लेखक ने खोजी पत्रकारिता की शैली में लिखा है। कई जगह भावानात्मक पीड़ा को खुद भी महसूस किया है।‘‘खोई हुई कड़ियां’’ में अंधा कानून की ऐसी जागती तहरीर है, जो पाठक को हिला देती हैं। कई जानकारियों से आवगत कराती यह कथा अंत तक पठनीयता के गुणो से भरपूर है। और यही इस उपन्यास की सार्थकता है।
लेखक - राकेश कुमार सिंह
कीमत- 200 रूपये
प्रकाशक - प्रलेक प्रकाशन मुंबई

@रमेश कुमार "रिपु" 

दर्द की नई तहरीर..



मयंक पांडेय की ‘पलायन पीड़ा प्रेरणा’आम आदमी के दर्द को नए तरीके से रेखांकित करती है। इसमें कोरोना काल की पचास जीवंत कथाएं हैं। किताब की कथा पाठक को झकझोर देती है। हर कथा के दर्द में एक सवाल है। जो कहते हैं 70 साल में कुछ नहीं हुआ। उन्होंने छह साल में आम आदमी को ऐसा दर्द क्यों दे दिया, जो 70 साल के दर्द से भी बहुत ज्यादा है। लोग घरों में कैद थे, मगर सरकार चल रही थी। लोग भूखे प्यासे थे। पैरों में जिन्दगी का दर्द लेकर सड़कों पर चल रहे थे। मगर, सरकार एसी कमरे में थी। आदमी के दर्द की व्याख्या बहुत मुश्किल है।

हर दर्द और छटपटाहट की वजह सिर्फ गरीबी नहीं होती। कंधो पर पुत्र की लाश ढोने वाले आज के हरिश्चन्द्र से सरकार ने कभी नहीं पूछा कि,उसके पेट की भूख कैसी है। आज भी अस्पतालों में पैसा दिये बगैर अपने परिजनों का शव नहीं मिलता। जिस बेटी के लिए माॅ अपनी कई रातों की नींद उढ़ा कर बड़ी की हो और जब उसकी शादी की बारी आए तो उसे कन्यादान करने का सौभाग्य न मिले। ऐसी ही एक माॅ सोनिया की ममता का दर्द कितना बड़ा है,सरकार की व्यवस्था नहीं जानती। सोनिया की बेटी का कन्यादान साजिद ने किया।ऐसी कई भावनात्मक कथाओं का हलफनामा है पलायन,पीड़ा प्रेरणा।

जिन्दगी को जीने के लिए कई दर्दो को संभाल कर रखना पड़ता है। लेकिन उन दर्दो को कैसे संभाल के रखेंगे, जो असंवेदनशील सरकार से मिले हैं। व्यवस्था से मिले हैं। कोरोना काल की पचास जीवंत कथाएं पिछले साल की हैं,लेकिन इस साल भी वो दर्द हमारी पलकों पर हैं। आॅसू सूखे नहीं हैं। कोई भी सरकार नहीं जानती आम आदमी के दर्द के आॅसू कैसे होते हैं।

अपने पिता को गुरूग्राम से 13 वर्षीय ज्योति दरभंगा तक साइकिल से लेकर आई। मात्र एक हजार रूपये उसके पास थे। लेकिन उसके मैनेजमेंट की तारीफ करनी पड़ेगी। उसने सेंकेड हैंड की साइकिल 12 सौ रूपये में ली। पाँंच सौ रूपये दी और शेष राशि उधारी कर दी। सात सौ रूपये में घर तक सफर की। महिलाएं गहने को बहुत मानती है। लेकिन संकट से निपटने में उनका योगदान हमेशा सराहनीय रहे हैं। पुर्णे में सात मजदूरों का परिवार था। पैसे खत्म हो गए। घर लौटने के लिए सबकी महिलाओं ने अपने गहने बेचकर बाइक खरीदने की सलाह दी। इसके बाद सात मोटर साइकिल पर 18 लोगों ने सफर शुरू किया।

देश में कोरोना ने कई सांसों को दर्द से जीतना सीखाया। लाॅकडाउन की वजह से दर्द और परेशानियां सिर्फ मजदूरों की पलकों पर ही आकार नहीं ली। बल्कि, घर में रहने वाले भी विषम परिस्थियों का सामना किये। सरकार ने किसी के पास विकल्प नहीं छोड़ा। आज भी स्थिति वही है। सिर्फ राजनीतिक तस्वीरें बदली है। चुनाव होने के बाद, एक बार फिर देश लाॅकडाउन की गिरफ्त हो जाए, तो कैसी हैरानी?

मयंक ने कोरोना की कोख से जन्मी कथाओं को जीवंत कर दिया है। साथ ही कहानियों से जुड़ी कई जानकारियों का भी समावेश किया है। इसलिए किताब उबाऊ नहीं है।। किताब में मजदूरों के पलायन के दर्दो को तरजीह ज्यादा दी गई है। दरअसल मजदूर वर्ग ही लाॅकडाउन के वक्त मीडिया के केन्द्र में था। सरकार थाली और घंटी बजवाती रही। आपदा से कैसे संघर्ष करें,इसके उपाय नहीं बताई। मजदूर इस देश की रीढ़ हैं। उद्योग धंधो की शिराओं में बहने वाला लहू है। किताब तीन खंडों में है। एक पलायन दूसरा पीड़ा और तीसरा प्रेरणा।

इस किताब से पता चलता है कि देश में परेशानियों से लड़ने की हिम्मत किस तरह लोगों ने दिखाई। तकलीफ और परेशानी की गठरी ढोने वालों की मदद किस तरह लोगों ने की। जीवन का मूल्य तभी है, जब हम किसी की मदद कर सकें। यह किताब हर किसी को पढ़नी चाहिए। इससे आम आदमी को विषम परिस्थितियों में जीने का हौसला और हिम्मत मिलती है। साथ ही मन में इंसानियत की भावनाएं किस तरह आकार लेती है उससे रूबरू होने को मिलता है। किताब की कथा वस्तु बांधे रहती है। यह किताब इस कोराना के दूसरे कहर में भी अपनी पहचान बनाये रखेगा,ऐसी उम्मीद है।

किताब - पलायन पीड़ा प्रेरणा
लेखक - मयंक पांण्डेय
कीमत - 250 रूपये
प्रकाशक - प्रलेक प्रकाशन,मुंबई
@ रमेश कुमार "रिपु"
 

मन से हर कोई है मंटो..



सआदत हसन मंटो का अंदाजे बयां सबसे जुदा था। वे इंसानी कमजोरियों से वाकिफ़ थे। उनके अफ़साने के क़िरदार समाज के हैं। यही वजह है कि अवार्गियां, शरारतें, बदमाशियांँ, हरामीपन और निर्लजता से जुदा नहीं हैं उनके किरदार। जिस जमाने में उन्होंने ठंडा गोश्त लिखा था, उस समय समाज इतना बेशर्म नहीं था। काली सलवार या कहे बू’ और खोल दे’ जैसी कहानियों से आज का साहित्य भरा हुआ है। इंडिया टुडे पत्रिका,जो अपने आप को देश की धड़कन कहती है, बकायदा हर साल सेक्स अंक निकालता है। स्त्री और पुरूष के संबंधों को मंटो ने जो देखा वही लिखा। उन दिनों भी स्त्री-पुरूष की फैंटेसी आज से अलग नहीं थी। बस,बेपर्दा नहीं थी।
आज के इराॅटिक ‘ठंडा गोश्त’ और बू" से जुदा नहीं हैं। हैरानी वाली बात है कि इस कहानी को अश्लील कहा गया। जबकि कहानी के नायक को इंसान बनने की बहुत बड़ी सजा से गुजरना पड़ता है। इसर सिंह और कुलवंत के शारीरिक संबंध का जिक्र जिस तरह किया गया है,वह कहानी की जरूरत है। यह कहानी पुरानी मान्यताओं से पर्दा हटाती है। उसके पौरूष का प्रभावशाली बताने के लिए यह तो बताना ही पड़ेगा कि वो पहले कैसेे था। मंटो कहते हैं, इस कहानी का मामला अदालत पहुंँच कर मेरा भुरकस निकाल दिया।
‘खोल दो’ कहानी झकझोर देती है। बेटी के दुपट्टे को बड़ी हिफाजत से रखने वाला पिता स्ट्रेचर में लाश सी पड़ी बेटी को देखकर कहता है कि मैं इसका पिता हूँ। डाॅक्टर कहता है कि खिड़कियाँ खोल दो। दंगाइयों ने इतनी बार बलात्कार करते हैं कि बेजान सकीना 'खोल दो’ सुनती है तो वह अपनी सलवार नीचे कर देती है। बावजूद इसके पिता के मन में खुशी की इक लहर है कि उसकी बेटी जिंदा है। दरअसल यह कहानी बताती है कि बलात्कार के बाद भी जीवन समाप्त नहीं होता। अवसाद में जाने की बजाय फिर से जीने की हिम्मत करें।
सच तो यह है कि आज भी हर लेखक मन से थोड़ा थोड़ा मंटो हैं। उनकी कहानी में काली सलवार,बू और धुंआ किसी न किसी रूप में मौजूद हैं। ’बू‘ कहानी जैसी तन्हाई से केवल मर्द ही नहीं, महिलाएं भी उकताती हैं। यह अलग बात है कि कहानी बू 'पर तो डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स के तहत भी मुकदमा चला।
मेरा मानना है कि मंटो को बदनाम करने वालों की लाॅबी दरअसल मंटो को बदनाम नहीं, बल्कि मशहूर करने के लिए उन्हें कोर्ट तक घसीटा।
बहरहाल ‘काली सलवार’ और ‘बू’ पर चलाये गये मुकदमों में जहां मंटो को बरी किया गया वहीं ‘धुआं’ को लेकर उनकी पहले गिरफ्तारी और जमानत फिर बाद में मुकदमे के फैसले के दौरान दो सौ रुपये जुर्माने की सजा सुनाई गई। मंटो होना इतना आसान नहीं है।
@ रमेश कुमार "रिपु"