Wednesday, July 17, 2019

सबसे बड़ा बौद्ध स्थल सिरपुर

                     
 छत्तीसगढ़ में  नालंदा से भी बड़ा बौद्ध स्थल सिरपुर है। क्यों कि नालंदा में चार बौद्ध विहार मिले हैं,जबकि सिरपुर में दस बौद्ध विहार पाए गए। दस हजार बौद्ध भिक्षुकों को पढ़ाने के पुख्ता प्रमाण के अलावा बौद्ध स्तूप भी हैं। पाण्डुवंशीय शासकों के काल में सिरपुर ही कोसल की राजधानी थी। यहां ब्राम्हण,बौद्ध और जैन तीनों धर्म के लोग थे,यानी सर्वधर्म समभाव की भावना थी। ईटो से बना लक्ष्मण मंदिर अद्भुत है। वहीं पश्चिममुखी विशाल शिवमंदिर के एक ही जगतपीठ पर पांच गर्भगृह निर्मित है जो कि देश में सबसे अद्वितीय और ऊंची है।

 0 रमेश कुमार ‘‘रिपु‘‘
                      सिरपुर का अतीत,सांस्कृतिक समृद्धि और वास्तुकला वक्त की कब्र में दफ्न था। इसके अतीत की परतें अनावृत हुई तो कई चैकाने वाले तथ्यों से सामना हुआ। चैकाने वाली बात यह थी कि पाण्डुवंशीय शासकों के काल में सिरपुर ही दक्षिण कोसल की राजधानी थी। यहां ब्राम्हण,बौद्ध और जैन तीनों धर्म से संबंधित मूर्तियांें का निर्माण हुआ। यानी सर्वधर्म समभाव की भावना थी। अभी तक यह माना जाता रहा है कि नालंदा,तक्षशिला और पाटिल पुत्र ही शिक्षा के स्तंभ है। नालंदा का बौद्ध विहार ही सबसे बड़ा है,लेकिन यह सच नहीं है। नालंदा में चार बौद्ध विहार मिले हैं, जबकि सिरपुर में दस बौद्ध विहार पाए गए। इनमें छह,छह फिट की बुद्ध की मूर्तियां मिली हैं। सिरपुर के बौद्ध विहार दो मंजिलें हैं जबकि,नालंदा के विहार एक मंजिला ही हैं। यहां 10000 बौद्ध भिक्षुकों को पढ़ाने के पुख्ता प्रमाण मिले हैं। सिरपुर का बौद्ध मठ नालंदा से अधिक विकसित था। चीनी यात्री व्हेनसांग के अनुसार दक्षिण दिशा में कुछ दूरी पर एक प्राचीन संघाराम था। जिसके करीब एक स्तूप था। इसे राजा अशोक ने बनवाया था। सम्राट अशोक के समय के धर्मलेख सरगुजा के रामगढ़ की सीताबोंगरा और जोगीन्मारा गुफाओं में भी पाए गए हैं। मेघदूत में कालिदास द्वारा वर्णित रामगिरि इसी रायगढ़ को माना जाता है। नागार्जुन बोधिसत्व का इस संघाराम में निवास था। वैसे बौद्ध विद्वान नागार्जुन के सिरपुर आने के संबंध में इतिहासकारों में एक मत नहीं है। व्हेनसांग के अनुसार यहां सौ संघाराम थे। खैर अभी तक खुदाई में इतने नहीं मिले हैं,लेकिन संभावना है कि खुदाई हुई तो मिल सकते हंै। सिरपुर के बौद्ध विहारों में जातक और पंचतंत्र की कथाओं का अंकन है। सिरपुर में बुद्ध के चैमासा बिताने के प्रमाण हैं। भगवान बुद्ध के समय गया से लाया गया वटवृक्ष अभी भी बाजार क्षेत्र में है।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 85 किलोमीटर दूर जंगलों के बीच बसा सिरपुर गांव को पुरातात्विक पहचान न मिलती,यदि सागर विश्वविद्यालय और मध्यप्रदेश शासन पुरातत्व विभाग की ओर से एम.जी.दीक्षित के संयुक्त निर्देशन में 1953 से 1956 तक उत्खनन ना किया गया होता तो, टीले में जो राज दबे हुए थे,वे दबे ही रहते। दो बौद्ध बिहार अनावृत हुए। जिसमें एक का नाम आनंद प्रभुकुटी विहार और दूसरे का नाम स्वस्तिक विहार रखा गया। उत्खनन में कई एतिहासिक धरोहर की चीजें मिलीं। सिलबट्टा, बर्तन, जंजीर, दीपक,पूजा के पात्र,कांच की चूड़ियां,मिट्टी की मुहरें,खिलौने, आभूषण बनाने के अनेक उपकरण आदि। तीन सिक्के भी मिले। एक सिक्का शरभपुरी शासक प्रसन्न मात्र का,दूसरा कलचुरी शासक रत्नदेव के समय का और तीसरा सिक्का चीनी राजा काई युवान(713-741 ईस्वी) के समय का है। 
पांचवी शताब्दी में बसा सिरपुर
सिरपुर की प्राचीनता का सर्वप्रथम परिचय शरभपुरीय शासक प्रवरराज और महासुदेवराज के ताम्रपत्रों से होता है। जिनमें श्रीपुर से भूमिदान दिया गया था। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि पांण्डुवंशीय शासकों के काल में सिरपुर राजनीतिक,सांस्कृतिक,अध्यात्मिक और कला केन्द्र के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। ऐतिहासिक जनश्रुति है कि भद्रावती के सोमवंशी पाण्डव नरेशों ने भद्रावती को छोड़कर सिरपुर बसाया था। ये राजा पहले बौद्ध थे,बाद में शैवमत के अनुयायी बन गए। सिरपुर को पांचवी शताब्दी में बसाया गया था। ख्ुादाई से पता चलता है कि इसके पुरातात्विक स्मारक,समृद्ध परंपरा और सांस्कृतिक विरासत बेजोड़ थी। छठवीं सदी से 10 वीं सदी तक यह बौद्ध धर्म का प्रमुख तीर्थ स्थल था। ऐसी मान्यता है कि 12 वीं सदी में आए विनाशकारी भूकम्प में कोसल तबाह हो गया था।
बौद्ध सम्प्रदाय सिरपुर पहुंचा कैसे
सवाल यह है कि यहां बौद्ध सम्प्रदाय के लोग बसे कैसे। नागार्जुन की उपस्थिति के संबंध में एक मत नहीं है। चीनी इतिहासकार व्हेनसांग के अनुसार सिरपुर में महात्मा बुद्ध के समय से बौद्ध धर्म का इतिहास मिलता था। पांण्डुवंश के प्रारंभिक शासक भवदेव रणकेसरी बौद्ध धर्म के उपासक थे। महाशिवगुप्त बालार्जुन शैवमतावलंबी थे। ऐसी मान्यता है कि महाशिवगुप्त बालार्जुन धर्म सहिष्णु राजा थे। इसलिए उनके राज्य में शैव,वैष्णव और बौद्ध धर्म अस्तित्व में थे। बालार्जुन का हर संम्प्रदाय के प्रति झुकाव था। इसलिए उन्होंने बौद्ध विहारों के प्रति अपनी उदारता दिखाते हुए ना केवल धन दान में दिए बल्कि, संरक्षण भी दिए थे। इसलिए यहां बौद्ध सम्प्रदाय विकसित और प्रचारित हुआ। उस समय यहां 100 संघाराम थे तथा महायान संप्रदाय के दस हजार भिक्षु निवास करते थे। 
तीवर देव सबसे बड़ा बौद्ध विहार
दक्षिण कोसल में अब तक के सबसे बड़े विहार के रूप में तीवर देव बौद्ध विहार है। जो कि 2002-03 के उत्खनन मे मिला। तीवर देव महाविहार विशाल और भव्य है। इसकी शिल्पकला अद्भुत है। यह बौद्ध विहार लगभग 902 वर्ग मीटर में फैला है। इसे दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम विहार के मध्य में 16 अलंकृत प्रस्तर स्तंभों वाला मंण्डप है। इन स्तंभों पर ध्यान में लीन बुद्ध,मोर,चक्र,सिंह आदि का शिल्पांकन है। यह विहार भी अन्य विहारों की तरह है। चारों ओर भिक्षुओं की कोठरियां है,मध्य में आंगन है। गर्भगृह है। गर्भगृह के सामने वाले मंण्डप के चारों ओर गलियारा है। इस विहार में जल निकासी के लिए प्रस्तर निर्मित भूमिगत नालियों के अवशेष मिले हैं। इस विहार के प्रवेश द्वार का शिल्पांकन बहुत ही अलंकृत है। हाथियों के मैथुन मुद्रा में प्रदर्शित किया गया है। जबकि अन्य बौद्ध विहारों में ऐसा नहीं है। इसके अलावा आलिंगनबद्ध प्रणय प्रदर्शित करती युगल मूर्तियां भी आकर्षण का केन्द्र है। मगरमच्छ एवं वानर की कथा को उकेरा गया है। कुम्हार द्वारा चाक पर मिट्टी के बर्तन बनाने का दृश्य व्यवसाय एवं उसके महत्व को उल्लेखित करते हैं। 
ईटों का बौद्ध विहार
सिरपुर में सभी बौद्ध विहार ईटों से निर्मित हैं। कह सकते है कि आज के एक नम्बर के ईंटे से अच्र्छे इंटे प्रयोग में लाए गए थे। विहारों की तल योजना में गुप्तकालीन मंदिर तथा आवासीय भवन का निर्माण किया गया है। विहार में भिक्षुओं के ध्यान,निवास,स्नान के अलावा अध्यापन की सुविधाएं थी। खुदाई में 43 रिहायसी कमरों के अवशेष मिले हैं। प्रत्येक विहार के सामने बरामदा और सभागृह है। पीछे की ओर भिक्षुओं के निवास स्थल है। कुछ कमरें बडे़ हैं,जिसमें तीन भिक्षु रह सकते हैं। कुछ बहुत ही छोटेे हैं,जिसमें एक ही व्यक्ति रह सकता है। महाशिवगुप्त बालार्जुन के शासन काल में आनंद प्रभु नामक बौद्ध भिक्षु ने विहार का निर्माण कराया था। आनंद प्रभु कुटी विहार में 16 स्थूल प्रस्तर स्तंभ हैं। सभा मंडल,छज्जा और प्रतिमाएं इसी पर आधारित हैं। बुद्ध की एक प्रतिमा है जो बंद कमरे में है। इस प्रतिमा के दक्षिण दिशा में पद्मपाणि की पूर्ण आकार की प्रतिमा है। देव मंदिर के दक्षिण में गंगा की और वाम में यमुना की प्रतिमा है। मठ के बरामदे में 14 कोठरियां है। सभी में आले है। एक आला दरवाजे की सांकल के लिए,दूसरा दीपक के लिए, तीसरा ताले के लिए और चैथा वहां निवास करने वाले भिक्षुओं के सामान रखने के लिए था। यह मठ दो मंजिला है। हर मठ में एक सीढ़ी है। जिससे ऊपर जाया जा सकता है। यहां एक प्रवेश द्वार है। इससे लगा कमरा कोषागार लगता है। इसलिए कि कोषागार में जाने के लिए समीप ही एक कमरे की दीवार के आधार के साथ खिड़कीनुमा पल्ला होने का संकेत मिलता है। अन्न भंडार और कोषागर की व्यवस्था हर मठ में देखने को मिलती है। सामूहिक अध्ययन के लिए एक बड़ा कमरा है। छोटे, छोटे कमरे और कुछ थोड़ा बड़े हैं। ईटों से बना मठ बाहर से देखेने पर नहीं लगता कि अंदर कई कक्ष होंगे।
एक सच ऐसा भी
खुदाई में तीन अन्य छोटे मठ भी मिले हैं। इनमें एक भिक्षुणी मठ था। इसमें बड़ी संख्या में सीपी तथा कांच की चूड़ियां मिली है। इस मठ में एक नक्काशीदार छोटे स्तूप व एक चमकता हुआ वज्र मिला है। मिली मुद्राओं पर बौद्ध धर्म से संबंधित सूक्तियां अंकित है। बुद्ध के अलावा अन्य मूर्तियांे में सातवीं शताब्दी के अक्षरों में बौद्ध बीजमंत्र उत्कीर्ण है। गंधेश्वर मंदिर में मिली बुद्ध की प्रतिमा में आठवीं शताब्दी के अक्षरों में बौद्धमंत्र उत्कीर्ण है। बताया जाता है कि आनंद प्रभु कुटि विहार का उपयोग बौद्ध भिक्षु-भिक्षुणियों द्वारा आवास हेतु किया जाता था। इसके बाद इस विहार का उपयोग शैव धर्मानुयायियों के द्वारा किया गया। इन शैव धर्मावलम्बियों ने या तो बौद्ध धर्मानुयायियों को विहार से निर्वासित कर दिया या इनकी खाली कोठरियों पर कब्जा कर लिया होगा। शैव धार्मवलम्बियों ने बौद्ध विहार में रखी बुद्ध की प्रतिमा भी नहीं हटाए, इसके पीछे मान्यता है कि बुद्ध विष्णु के दशावतारों में एक है।
गठिया पत्थर की मूर्तियां
सिरपुर की सभी मूर्तियां गठिया पत्थर की बनी हुई है। यहां सभी स्थानों के शिल्प चित्रण में हंस और मयूर   है। ज्यादातर मूर्तियों में दैहिक सौन्दर्य में लयात्मकता,केामलता और रसात्मकता की झलक दिखती है।   लेकिन एक बात चैंकाती है कि शिव पार्वती और गणेश की प्रतिमा के साथ महिषासुरमर्दिनी की मूर्तियांे के साथ गंगा की मूर्तियां है। बौद्ध विहारों से बुद्ध की प्रतिमा को हटाया नहीं गया। ऐसा माना जाता है कि बुद्ध की प्रतिमा के द्वार पर गंगा की प्रतिमा की उपस्थिति का संबंध हिन्दू धर्म के साथ साथ बौद्ध धर्म से भी है। इसलिए बौद्ध विहार के पास ही शिव की प्रतिमाएं विराजी रहीं।
चैत्य मेहराब से अलंकृत लक्ष्मण मंदिर  पुरातत्व के जानकार कौशलेश तिवारी कहते हैं,‘‘ईटों से निर्मित लक्ष्मण मंदिर देश में अद्वितीय है। इस मंदिर का निर्माण काल ईस्वी 650 के करीब का है। इसे महाशिवगुप्त बालार्जुन की माता वासटा अपने पति हर्षगुप्त जो वैष्णव धर्मानुयानी थी,हर्षगुप्त की मौत के बाद शैव धर्म अपना ली,उनकी पुण्य अभिवृद्धि के लिए लक्ष्मण मंदिर का निर्माण कराया था। लक्ष्मण मंदिर का शिखर कई ढलाव वाला है। यह शिखर चैत्य मेहराब रचना से अलंकृत है। जिनके बीच में स्तंभ के समान सीधे दंड बने हुए है। इसके ऊपर कुडु से अलंकृत कपोतों की रचना है। सभी शिखर एक के ऊपर एक बने हुए है। चैत्य मेहराबों की दो पत्तियों से सुसज्जित हैं। जो छोटे होते गए हैं। मंदिर के प्रवेश द्वार पर शेषशायी विष्णु हैं, उभयद्वार शाखा पर विष्णु के प्रमुख अवतार,कृष्णलीला के दृश्य,मिथुन दृश्य और वैष्णव द्वारपालों का अंकन है। इस मंदिर की बनावट की खासियत यह है कि शिखर को सजाने के लिए चैत्य गवाक्षों की अर्द्ध पंक्त्यिों से की गई है। इसके क्षैतिज पट्टियों पर कगूरों और लघु चैत्य पर ताखों की सजावट है। शिखर का कलश नष्ट हो गया है। खुदाई से मिली मूर्तियों को लक्ष्मण मंदिर के पास बने संग्रहालय में रखी हुई हैं। बहरहाल सिरपुर की खुदाई बंद है,यदि पुनः होती है तो कई अद्भुत और अकल्पनीय साक्ष्यों से सामना हो सकता है।











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