Thursday, November 25, 2021

रहस्य के लिफ़ाफे़ में झीरम कांड

  







जस्टिस प्रशांत मिश्रा आयोग की रिपोर्ट को देखे बगैर आख़िर वो कौन सी वजह है,जिसके चलते भूपेश सरकार ने दो सदस्यीय न्यायिक आयोग का गठन कर दिया। क्या भूपेश सरकार किसी को बचाना चाहती है? एनआइए की रिपोर्ट को कांग्रेस पहले ही नकार चुकी है। ऐसे में सवाल यह है कि एक ही मामले की तीन जांच से झीरम कांड का सच क्या है,कैसे पता चलेगा?
0 रमेश कुमार ‘रिपु’
झीरम कांड की जांच का मामला एक बार फिर सुर्खियों में है। जस्टिस प्रशांत मिश्रा आयोग की रिपोर्ट को भूपेश सरकार देखे बगैर दो सदस्यीय न्यायिक आयोग का गठन कर विपक्ष को हमला करने का मौका दे दिया। एनआइए की रिपोर्ट को भूपेश सरकार पहले ही नकार चुकी है। भूपेश सरकार का आरोप है, कि रमन सरकार के समय के नोडल अधिकारी जांँच में रोड़ा अटकाने का काम किया था। एनआइए झीरम कांड के राजनीतिक षडयंत्र के पहलू की जांच नहीं कर रही थी। इसलिए आई.जी. विवेकानंद सिन्हा के नेतृत्व में 10 सदस्यों वाली एसआइटी टीम बनाई गई। टीम में विषय विशेषज्ञों को भी शामिल किया गया और पहली बैठक पीएचक्यू रायपुर में हुई। इसके बाद कोई बैठक या जाँच अब तक नहीं हुई है।  
झीरम कांड के आठ बरस बाद जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा की अगुवाई वाले आयोग ने छः नवम्बर को राज्यपाल अनुसूईया उइके को जांच आयोग के सचिव और छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार संतोष कुमार तिवारी ने सौंपी। यह रिपोर्ट 10 खंडों में है। रिपोर्ट के अंदर क्या बातें लिखी है,कोई नहीं जानता। जैसा कि राज्यपाल सुश्री अनुसुइया उइके कहती हैं, चीफ जस्टिस प्रशांत मिश्रा की ओर से उन्हें दी गई रिपोर्ट पर कानूनी राय लेने के बाद राज्य शासन को भेज दिया है। रिपोर्ट में क्या है, यह तो जस्टिस मिश्रा ही बता सकते हैं।’’  
गौरतलब है,कि 28 मई 2013 को जस्टिस प्रशांत मिश्रा की अगुवाई में जांच कमेटी बनी। उस दौरान 3 महीने में रिपोर्ट देने कहा गया, लेकिन तय सीमा में जांच नहीं हो पाई। बीस बार तारीख बढ़ाई गई। जांच आयोग ने 23 सितंबर 2021 को राज्य सरकार को पत्र लिखकर मांग की आयोग का कार्यकाल बढ़ाया जाए। अचानक 6 नवंबर 2021 को आयोग ने अपनी रिपोर्ट राज्यपाल को दी।  
झीरम कांड मामले में एनआइए ने कहा था,‘‘नक्सली अपना आतंक फैलाने के लिए, इस तरह की वारदातें करते रहते हैं।़ राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) ने अपनी रिपोर्ट में हमले के लिए कांग्रेस नेताओं को ही जिम्मेदार ठहराया है। कांग्रेस ने रिपोर्ट को झूठ का पुलंदा करार देते हुए कहा,जब तक मामले की जांच सीबीआइ से नहीं होगी, मामले का पर्दाफाश नहीं होगा। सरकार के दबाव में एनआइए जांँच डायरी की रिपोर्ट बदलती रही है। एनआइए की रिपोर्ट में कहा गया है कि परिवर्तन यात्रा के दौरान कांग्रेस नेताओं पर हमला,सरकार को दहशत में डालने और सरकार को उखाड़ फेंकने की साजिश का हिस्सा था।
एनआइए ने सच छिपाया
स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंह देव ने कहा,एनआइए ने विशेष अदालत में दायर आरोप पत्र में विवादस्पद मुद्दों को शामिल नहीं किया है। खासकर कंाग्रेस की परिवर्तन यात्रा के ठीक पहले मुख्यमंत्री डाॅ रमन सिंह की विकास यात्रा बस्तर से गुजरी थी। माओवादी यदि सरकार को अस्थिर करना चाहते थे, तो हमला विकास यात्रा पर करते। एनआइए ने इस मामले मे केवल 9 लोगों की ही गिरफ्तार क्यों कर पाई? शेष 25 फरार क्यों हैं? किसने नक्सलियों को सूचना दी थी कि परिवर्तन यात्रा में महेन्द्र कर्मा शामिल हैं। गिरफ्तार व्यक्तियों के हमले का उल्लेख क्यों नहीं है। झीरम मामले में इतनी बड़ी चूक कैसे हो गई एनआइए की रिपोर्ट में इसका उल्लेख नहीं है।
गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में सन् 25 मई 2013 में झीरम घाटी में नक्सली हमला हुआ था। जिसमें 27 कांग्रेसियों समेत 31 लोगों की नक्सलियों ने हत्या कर दी थी। कांग्रेस को शक है कि, इस हमले के पीछे कोई राजनैतिक कनेक्शन जरूर है। झीरम कांड की जाँंच केंद्रीय गृह मंत्रालय ने 27 मई 2013 को एनआइए को सौंप दी थी। एनआइए ने अपनी जाँंच में 88 नक्सलियों के कैडर को संलिप्त पाया था। एनआइए ने 24 सितंबर 2014 को इस मामले में 9 लोगों के खिलाफ़ चार्जशीट दाखि़ल की। 28 सितंबर 2015 को सप्लीमेंट्री चार्जशीट में 30 लोगों को शामिल किया गया था।
प्रदेश के गृहमंत्री ताम्रध्वज साहू और कृषि मंत्री रविंद्र चैबे ने 13 नवम्बर 2021 को मीडिया से कहा,प्रदेश के सबसे बड़े नक्सल हमले की जांच के टॉप सीक्रेट दस्तावेजों को लेकर अफ़सरों ने लापरवाही बरती है। जांच रिपोर्ट जब राज्यपाल के दफ़्तर से मुख्यमंत्री कार्यालय पहुंची तो लिफाफ़ा खुला हुआ था। इससे रिपोर्ट के लीक होने की आशंका को बल मिलता है। खुले लिफाफ़े की रिपोर्ट को लौटा दिया गया। बाद में सीलबंद लिफाफ़े में दस्तावेज़ भेजे गए।
तो क्या मंत्री का नाम है..
हाई कोर्ट के अधिवक्ता राजेन्द्र तिवारी राजू कहते हैं,न्यायिक जांच आयोग की रिपोर्ट सरकार को कायदे से देखना था। उसके बाद जांच अधूरी है,कहते हुए दो सदस्यीय जांच आयोग का गठन करती तो विपक्ष भी आरोप लगाने की हिम्मत न दिखाता। अब इससे ऐसा लगता है,कि कांग्रेस सरकार अपने किसी मंत्री को बचाना चाहती है।
झीरम कांड की नये सिरे से जांच अब आयोग के अध्यक्ष माननीय न्यायमूर्ति सतीश के.अग्निहोत्री और सदस्य माननीय जी.मिनहाजुद्दीन पूर्व न्यायाधीश उच्च न्यायालय बिलासपुर करेंगे। आयोग झीरम कांड की जांच कर 6 महीने में राज्य सरकार को रिपोर्ट देगा। यह रिपोर्ट कांग्रेस सरकार के रहते आने के बाद प्रदेश की सियासत में एक बार फिर हंगामा होने से इंकार नहीं किया जा सकता।
जस्टिस प्रशांत मिश्रा अपनी रिपोर्ट राज्यपाल को तभी दिये होंगे,जब उनकी जांच में किसी मंत्री का नाम सामने आया होगा। जैसा कि बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष विष्णुदेव साय ने कहा, नए जांच आयोग के गठन की घोषणा से स्पष्ट है,कि प्रदेश सरकार अपने एक मंत्री की संलिप्तता को लेकर विचलित है। वह मंत्री और उनके नक्सली कनेक्शन के बेनकाब होने से डरी हुई है। अब प्रदेश सरकार और मुख्यमंत्री को बताना चाहिए, कि झीरम हत्याकांड का सर्वाधिक लाभ किस राजनीतिक नेता को होना था और हुआ। यह भी स्पष्ट होना चाहिए, कि इस मामले पर एक पुलिस के चश्मदीद मुखबिर से मिलने बिलासपुर कौन गया था? क्यों गया था? और किसने भेजा था? यह मुखबिर बाद में बागी क्यों हो गया था? कांग्रेस झीरम मामले में एक नए आयोग की चर्चा कर सियासी शोशेबाजी का प्रदर्शन कर रही हैं।’’  
नक्सलियों ने किसे जाने दिया
आठ बरसो में झीरम कांड पर कई तरह के सियासी बयान आए।  सियासी दलों के दाँंव-पेंच के चलते झीरम कांँड की जांँच एक सियासी टी.वी.शो बन कर रह गया है। सवाल यह है,परिवर्तन यात्रा का रूट किसने बदला और किसकी वजह से परिवर्तन यात्रा निकाली गई? उस परिवर्तन यात्रा में कौन बीच में ही,यात्रा छोड़कर चला गया। नक्सलियों ने किसे जाने दिया। इंटेलिजेंस बार-बार कह रहा था झीरम में नक्सली एकत्र हो रहे हैं। उधर जाना ठीक नहीं है। फिर भी उस रूट पर परिवर्तन यात्रा किसके कहने पर निकाली गई? ऐसे कई सवालों का जवाब भी प्रदेश की जनता जानना चाहती है। लेकिन जिस तरह सियासी द्वंद मचा हुआ है,उससे सही तथ्य सामने आने में संदेह है।
भाजपा प्रवक्ता सच्चिदानंद उपासने कहते हैं,‘‘ झीरम के मामले में जेब में सबूत लिए घूमने की बात प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के नाते मौजूदा मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कही थी। सालों बीत जाने के बाद भी, अब तक सबूत पेश नहीं करने वाले प्रदेश के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल पर साक्ष्य छिपाने का मुकदमा चलाया जाना चाहिए। कांग्रेस के नेता कभी अपने मुख्यमंत्री पर भी तो दबाव बनाते कि,वे सबूत पेश करके झीरम की जाँच को अंजाम तक पहुँचने में सहयोग करते। इस मामले की जांच का जिम्मा कांग्रेस नीत यूपीए की केंद्र सरकार ने सन् 2013 में सौंपा था।’’।’’
जांच से भूपेश नाखुश
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का आरोप है,कि आखिर भारत सरकार किस तथ्य को छिपाना चाहती हैं। न्यायिक जांँच आयोग ने षड्यंत्र की जांँच नहीं की। इसके अलावा कांग्रेस ने जो आठ बिन्दु तय किये थे,उसे जस्टिस प्रशांत मिश्रा आयोग ने अपनी जांँच में शामिल नहीं किये। गवाही के लिए कुछ लोगों को बुलाया गया कुछ ने गवाही नहीं दी। साथ ही उन्होंने सवाल किया, कि क्या नाम पूछ-पूछ कर मारा गया? क्या ये राजनीतिक षड्यंत्र हैं? हमने आयोग को कई बिंदुओं पर पत्र लिखा,   कि नंद कुमार पटेल, महेंद्र कर्मा को सुरक्षा व्यवस्था क्यों नहीं दी गई?’’  
मुख्यमंत्री एनआइए की कार्यप्रणाली से संतुष्ट नहीं होकर उस पर सवालिया निशान लगाते हुए 21 नवम्बर 2020 को कहा,‘‘ एनआइए ने झीरम घाटी में जो षंडयंत्र हुआ है,उसके बारे में कोई जांँच नहीं की। पकड़े गये नक्सलियों से और आत्मसमर्पित नक्सलियों से बयान नहीं लिया। रमन्ना, गुडसा उसेंडी, गजराला, अशोक और दूसरे नक्सलियों के बारे में, बाद में कई सबूत मिले। फिर भी एनआइए ने किसी भी चार्जशीट में,इनको शामिल नहीं किया।   फूलदेवी नेताम सहित झीरम में घटना स्थल पर उपस्थित साथियों के भी बयान एनआइए ने नहीं लिया।   
एफआईआर दर्ज हुआ
उदय मुदलियार के पुत्र जितेन्द्र मुदलियार का आरोप है,कि एनआइए ने किसी भी पीड़ित पक्ष से चर्चा नहीं की है। झीरम से सुकमा जाने वाला रास्ता स्टेट हाईवे है। स्टेट हाइवे में दोनों तरफ इतनी बड़ी संख्या में नक्सली तभी एकत्र हो सकते हैं,जब सुरक्षा व्यवस्था को नज़र अंदाज किया जाएगा। हैरानी वाली बात यह है कि,कार्यक्रम की सूचना सभी को थी। ऐसे में सुरक्षा व्यवस्था नहीं किया जाना,सबसे बड़ा सवाल है।’’
बहरहाल झीरम कांड का 25 लाख का इनामी नक्सली विनोद की कोरोना की वजह से 13 जुलाई 2021 को मौत हो गई है। नक्सलियों की बर्बरता ख़बर बनी लेकिन, बनी क्यों, इस सच पर सियासी धूल की परत इतनी मोटी हो गई है कि,शायद ही कभी हटेगी। झीरम कांड का राज रहस्य बनकर रह जायेगा।
 
    
 

 

सियासी हेंगर में टंगे आदिवासी



सवाल यह है कि क्या बीजेपी आदिवासियों की शुभ चिंतक हैं या फिर शिवराज आदिवासियों को सिर्फ खुश करने वाली भाषा का इस्तेमाल करते हैं। क्यों कि उनके राज्य में आदिवासियों और दलितों पर होने वाले अपराध कम होने की बजाय बढ़ते जा रहे हैं। आज प्रदेश का आदिवासी सियासी हेंगर में टंगा हुआ है।
0  रमेश कुमार ‘‘रिपु’’
मध्यप्रदेश में रैगावं विधान सभा चुनाव हारने के बाद बीजेपी को यह बात समझ में आ गई कि पंचायत चुनाव जीतना है तो आदिवासी और दलित वोट बैंक पर ध्यान देना जरूरी है। आदिवासियों को लुभाने वह बीरसा मुडा जंयती को प्रदेश में अवकाश घोंषित कर दिया। सवाल यह है कि क्या बीजेपी आदिवासियों की शुभ चिंतक हैं या फिर शिवराज आदिवासियों को सिर्फ खुश करने वाली भाषा का इस्तेमाल करते हैं। क्यों कि उनके राज्य में आदिवासियों और दलितों पर होने वाले अपराध कम होने की बजाय बढ़ते जा रहे हैं। आज प्रदेश का आदिवासी सियासी हेंगर में टंगा हुआ है।
पिछले कुछ माह से कांग्रेस प्रदेश में आदिवासियों पर हो रहे हमलों का मुद्दा उठाती रही है। नीमच में एक आदिवासी को आठ लोगों ने मिलकर मारा, फिर गाड़ी में बांधकर उसे खींचा। जिससे उसकी मौत हो गई। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के मुताबिक आदिवासियों के खिलाफ अत्याचारों में 25 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। 2020 में 2401 मामले दर्ज हुए, जबकि 2019 में 1922 मामले दर्ज हुए।
अमितशाह का ट्रंप कार्ड
केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने आदिवासियों को रिझाने जबलपुर में 18 सितम्बर को ऐलान किया कि केन्द्र सरकार ने आदिवासी नेताओं के सम्मान में देश भर में 200 करोड़ रुपए की लागत से नौ संग्राहलय बनवायेगी,जिनमें एक मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा में होगा। यह संग्रहालय शंकर और रघुनाथ शाह पर केन्द्रित होगा। प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष वी.डी.शर्मा कहते हंैं,हमारी सरकार आदिवासियों के उत्थान के लिए प्रतिबद्ध है। उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाना चाहते हैं। हमारी सरकार आदिवासियों के नायकों के इतिहास से सबको परिचति कराने के लिए संग्राहलय बनाने कदम उठाया है।’’
प्रदेश में दो करोड़ जनजातीय
केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह अपनी इस घोंषिणा के जरिए मध्यप्रदेश ही नहीं, देश भर के आदिवासियों को रिझाना चाहते हैं। क्यों कि मध्यप्रदेश में करीब दो करोड़ जनजातीय आबादी है। यानी राज्य की कुल आबादी में इनकी हिस्सेदारी करीबन 21 फीसदी है। राजनीतिक नजरिये से देखें तो प्रदेश की 230 विधान सीटों में से 47 सीटें अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए आरक्षित है। वहीं लोकसभा की 29 सीटों में छह सीट अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है।
सीटों का गणित समझें
दरअसल 2013 के चुनाव में बीजेपी को 47 सीट में 30 सीटें मिली थीा। और उसकी सरकार बनी थी। लेकिन 2018 के चुनाव में कांग्रेस ने अनुसूचित जनजाति के लोगों को विश्वास दिलाया, कि उनका हित सिर्फ कांग्रेस सरकार में ही है। और कांग्रेस को 47 में 30 सीटें मिलने से बाजी पलट गई। कांग्रेस की सरकार बन गई। यह अलग बात है कि कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया की सियासी लड़ाई में कांग्रेस की सरकार धड़ाम हो गई। शिवराज सिंह पुनः मुख्यमंत्री बन गए।
शिवराज सिंह ने अब तक 16 हजार घोंषणा कर चुके हैं। जमीन पर सब नदारद हैं। उन्हों ने कहा,आदिवासी गैर लकड़ी वन उपज से आय का एक प्रतिशत अपने पास रख सकेंगे साथ ही छोटे मोटे विवाद का निपटारा खुद ही कर सकेंगे। अनुसूचित क्षेत्रों तक पंचायत का विस्तार सरकार करना चाहती है।
नौकरशाही नाराज
राज्य की नौकरशाही मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान की इस घोंषणा के पक्ष में नहीं है। क्यों कि राज्य के खजाने पर सीधे बोझ पड़ेगा। राज्य मंें करीब 12000- 15000 करोड़ रुपए की गैर लकड़ी वनोपज होती है। गैर लकड़ी वनोपज में तेंदूपत्ता भी शामिल है। यदि इसे ग्राम सभा के हवाले कर दिया जायेगा तो सरकार को सीधे भारी राजस्व घाटा होगा। फिर सियासी सरंक्षण देना भी कठिन हो जाएगा। हर बरस सरकार वेतन और बोनस देती है,वो कहां से लाएगी। इस दिशा में कुछ भी नहीं सोचा गया है।
बहरहाल राजनीतिक दलों को आदिवासियों के कल्याण और हितों की चिंता नहीं है,वो केवल चुनावी नफा-नुकसान को देखकर बाते करते हैं। जैसा  विधायक संजय पाठक कहते हैं घोषणाओं और योजनाओ से वोट नहीं मिलते। आदिवासी अब समझदार हो गये हैं।





 

Monday, November 15, 2021

तिकड़म बाजों पर कटाक्ष

 ▪️तिकड़म बाजों पर कटाक्ष..

हिन्दी के अखबारों और पत्रिकाओं में व्यंग्य आज की ज़रूरत बन गए हैं। इसलिए इन्हें नज़र अंदाज़ करना या फिर हाशिए पर रखना घाटे का सौदा है। "पुरस्कार की उठावनी" व्यंग्य संग्रह की रचनाएं विभिन्न कालों में क्षेत्रीय और राष्ट्रीय अख़बारों में लिखे गए हैं। रचनाएं हास्य व्यंग्य शैली में स्थान,घटना और परिस्थिति के सापेक्ष हैं। बावजूद इसके कई रचनाओं को पढ़ने पर ध्यान घटना की ओर चला जाता है। कोरोना काॅल में लिखी गई रचना हो या  राजनीतिक,मानवीय संवेदनाएं और नैतिक मूल्यों के तिकड़म बाजों पर, हास्य अंदाज़ में तीखा कटाक्ष है।


'पुरस्कार की उठावनी' अरविंद तिवारी की चालीस रचनाओं का नया संग्रह है। ब्रिटिश जमाने के अच्छे पुलों को भ्रष्टाचार के लिए जर्जर बताने की जिस भाषा का इस्तेमाल इंजीनियर करते हैं,वो नेताओं को भी मात देते हैं। विधायक निधी की वाट कैसे लगती है पुल की तीन कथाएं बताती है। फिसड्डी होना बेहद अपमान जनक है, मगर एक पायदान ऊपर चढ़ जाने पर सुशासन के गदगद होने का सुख है ‘लास्ट बट वन‘। बेसिर पैर की कविता लिखने वाले कवियों पर कटाक्ष है ‘कवि की छत का पेड़’। आने वाले समय में बिजली उपभोक्ताओं की ज़्यादती से इंजीनियर अपने आप को कैसे बचाएंगे, उसे जान सकते हैं, बिजली विभाग का इंटरव्यूह रचना से।


रचनाओं में सहज टिपपणियों के बीच कई सूक्ति वाक्य उभरे हैं,‘‘जैसे वर्चुअल कार्यक्रम और इंस्पेक्टर मातादीन में, लोग आन लाइन का जिक्र ऐसे करते हैं, मानो लोक सेवा आयोग के चयन में पहले स्थान पर आये हैं। कोरोना काल की लव स्टोरी में, पचास हजार रुपए तोला वाला सोना खो जाए, तो नींद वाला सोना भी हराम हो जाता है। प्राइवेट रिजाॅर्ट के सरकारी मच्छर-जब पत्नी को पता चला कि मच्छर तक ब्लैकमेल के काम आ सकते हैं, तो उसे अपने पति पर गर्व हुआ। उसे उम्मीद हो गई कि किसी न किसी दिन उसके भरतार मंत्री जरूर बनेंगे। सरकार भी बड़े हवाई अड्डे को खलिस पब्लिक को लीज पर दे देती है और खुद जालू काका की तरह छोटे-छोटे अड्डो के विकास में जुट जाती है। एनसीआर का कटखना कुत्ता में मोहल्ला क्लीनिक को छोड़ों बड़े-बड़े कारपोरेट अस्पतालों में भी कुत्ते का रैबीज उपलब्ध नहीं है। आम आदमी कुत्ते में आर्ट नहीं देखता,पराली का जलना भी उसके लिए आर्ट नहीं है।


पुरस्कार की उठावनी निश्चिय तौर पर राष्ट्रीय मुद्दा है। पुरस्कारों की गरीबी उतनी अपमानजनक नहीं होती,जितना अपमान मित्रों के बार-बार इस गरीबी का जिक्र करने पर होता है। वरिष्ठ लेखक उस भारतीय भाषा की तरह हैं,जिसे आठवीं अनुसूची में स्थान अभी तक नहीं मिला। साहित्य जगत में पुरस्कार के लिए तरह-तरह की टांग खिंचाई की जाती है। जितने लेखक नहीं हैं, उतने नाम के पुरस्कार हैं। कोई पुरस्कार की बात करे तो बड़ी नम्रता से मित्र कह देते हैं, कि आप तो पुरस्कार से ऊपर उठ चुके हैं। यानी उसके यहां पुरस्कार की उठावनी हो चुकी है। छोटी राशि का सम्मान पाने वाले लेखकों पर करारा कटाक्ष है। पैसे वाली पार्टी का हो गया लेखक बनने के फायदे का अच्छा विश्लेषण है। संग्रह में सात व्यंग्य रचनाएं कारोना से जुड़ी हैं,लेकिन सभी की तासीर अलग-अलग है।


समाज के विभिन्न स्याह पक्षों,और व्यवस्थाओं के अलावा रोज की जिन्दगी पर सारी रचनाएं आईना दिखाती है। कुछ रचनाओं के शीर्षक सब कुछ अंदर की कथा को बयान कर देते हैं। जैसे-साहित्य की सीबीआई और ईडी,वह खुद कोरोना कैरियर हो गए,लोकतंत्र का सूचकांक,फागुन में कल्लो भाभी की पाती,नये साल की पहली मिसकाॅल,कुंए की मुंडेर पर मेढ़कआदि अलग-अलग ऊहापोहों से गुजरती रचनाओं की कई तस्वीरें हैं।


संग्रह के शीर्षक से यही लगता है कि अरविंद तिवारी किसी पुरस्कार के हक़दार हैं,लेकिन उनके समकालीन मित्रों ने उनके पुरस्कार की उठावनी कर दिये हैं। ऐसे तिकड़मी मित्रों पर उनकी यह किताब गहरा कटाक्ष करती है। बहरहाल हास्य रहित इस व्यंग्य संग्रह की मारक क्षमता राफैल जैसी है। सामान्य व्यंग्य रचनाओं से हटकर तीखी-मसालेदार पठनीय रचना है।

किताब - पुरस्कार की उठावनी

लेखक - अरविंद तिवारी

प्रकाशक - इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड

मूल्य - 250 रुपए

@रमेश कुमार ‘रिपु’


अपनी कहानी जैसे

 ▪️अपनी कहानी जैसी


मन्नू भंडारी बिलकुल अपनी कहानी जैसी थीं। जैसे उनकी कहानियों के पात्र शोर नहीं मचाते थे,नारे बाजी के हिमायती नहीं हैं,मूल्यों के प्रति सजग हैं और एक समग्र नजरिया रखते हैं,वैसी ही मन्नू भंडारी सारी जिन्दगी रहीं। कहानियों में नये तेवर,नये स्वाद और आडम्बर से परे के लिए हमेशा मन्नू जी जानी जायेंगी। राजेन्द्र यादव ने स्त्री विमर्श का जो स्वरूप हिन्दी जगत को दिया उससे अलहदा है मन्नू भंडारी की कहानियों की दुनिया में नारी। आज हिन्दी जगत में स्त्री लेखन को लेकर नारीवाद और अस्मिता विमर्श का बोलबाला है,लेकिन मन्नू भंडारी की कहानियांें में वो ग्लैमर और शोर-शराबा नहीं है। दरअसल उन्होंने जैसा जीवन जिया वैसी ही कहानियां गढ़ी। मन्नू जी अपनी कहानियों के जरिये हिन्दी जगत के पाठकों को हमेशा याद आयेंगी।