Sunday, June 16, 2019

अमीर धरती,गरीब लोग

 
       अमीर धरती,गरीब लोग
छत्तीसगढ़ की धरती में कीमती रत्नों का भंडार है। बावजूद इसके यहां का अदिवासी गरीब और बेहाल है। सरकार आदिवासियों को उजाड़कर उनकी जमीन पर कब्जा कर ली। लेकिन रत्नों से लदी इस धरती की हिफाजत नहीं कर पा रही है। पायलीखंड की हीरा खदान और बेहराडीह,कोदोमाली से सरकार की तिजोरी तो नहीं भरी लेकिन,तस्करों की चांदी है।

0 रमेश कुमार ‘‘रिपु‘‘
                                
प्यारे सिंह बताते हैं अलेक्जेन्ड्राइट उनकी जिन्दगी के लिए अभिशाप बन गया। जमीन का पट्टा होने के बाद भी खेती नहीं कर सकते थे। एक दिन कुछ अफसर आए और बोले तुम्हारे जमीन में अरबों रूपए का पत्थर है,जमीन सरकार को दे दो। तुम दोनों भाइयों को खदान की रखवाली के लिए चैकीदार बना देंगे। जमीन तुम्हें अब नहंीं मिलेगी, इसलिए 12 हजार रूपए रख लो। कुछ दिनों तक खदान का गार्ड बनाने के बाद हटा दिए। एक फूटी कौड़ी भी नहीं दिए। अरबों की जमीन से प्यारे सिंह खदेड़ दिए गए और अब फिर रहे हैं मारे मारे। जमीन भी गई और दो वक्त की रोटी भी छिन गई।
हीरा ले लो,रहने को जमीन दे दो
नैन सिंह नेताम के खेत में हीरे तो निकले लेकिन इनकी जिन्दगी मंे केवल दर्द ही दर्द हंै। कुरेदने पर बताते हैं, बचपन में एक दिन दादी ने कहा था कि अपने खेत में सोना नहीं, हीरा है। यह हीरा हमें हर लिया। कहीं का नहीं छोड़ा। हमारी खड़ी फसल को बड़ी बेरहमी से काट दिया गया। अफसर बोले,यहां फिर दिखे तो तुम्हारी टांगे तोड़ देंगे। बाहरी लोगांे का तो बाल बांका तक नहीं हुआ। हमारे खेत की मिट्टी  भर कर ट्रकों से ले गए। वे ऐश कर रहे हैं। नैन सिंह नेताम घने जंगल के बीच पायलीखंड के उस हीरे की भंडार की मालिक है जिसे तस्कर लूट कर ले गए। नैन सिंह के साथ ज्यादती करने वाली सरकार को हीरा का एक टुकड़ा भी नहीं मिला। नैन सिंह अब बड़े किसानों के यहां मजदूरी करते हैं। आज भी छोटी सी झोपड़ी में रहती हैं। नैन सिंह की मां कहती हैं कि खेत को ऐसा खोदा कि किसी काम का नहीं रह गया है। हमें पैसा नहीं चाहिए,बस जमीन का कहीं टुकड़ा दे दें ताकि बेटा,बहू को कहीं आसरा मिल जाए सिर छुपाने को।
प्यारे सिंह और नैन सिंह की इस कहानी में छत्तीसगढ़ के मैनपुर-देवभोग इलाके के लोगों के दर्द के साथ  विडंबना छिपी है। इस इलाके के लोगों की जिन्दगी में खुशियों की बहार नहीं आ सकी क्यों कि सरकार ने इस दिशा में कोई स्पष्ट योजना नहीं बना सकी। यही वजह है कि इस संपदा पर तस्करों की गिद्ध नजर गड़ी हुई है। जमीनों की अवैध खुदाई कर भारी मुनाफा अपनी जेबों भर रहे हैं और गांव वालों को नाम मात्र की मजूदरी देते आ रहे हैं। इसके चलते उपेक्षा,हताशा और शोषण की तस्वीर से निजात इस क्षेत्र को नहीं मिल पा रहा है।
ऐसे हुई तस्करी की दस्तक
देवभोग के गांव लाटापारा जहां रक्तमणि(गारनेट) का भंडार है। यहां के लोग अजनबी चेहरोें को शक की निगाहों से देखते हैं। इस गांव के देवानंद कश्यप,रामधनी और भानुमति,दुलारी कहती हैं,‘‘सरकार ठीक से काम करती तो गांव के बहुत से लोग सिर्फ गारनेट बेचकर ही अपनी गरीबी दूर कर लेते। लोगों को जंगल के कंद मूल खाने की नौबत नहीं आती। यहां के लोगों से मिलने के बाद पायलीखंड गांव की ओर रवाना हुआ। गौरतलब है कि कौटिल्य के अर्थशास्त्र के आधार पर भूगर्भ शास्त्री टी.एल.वाकर ने 1900 में एक सर्वे किया था। उनके अनुसार यहां हीरे के अलावा अन्य रत्नों के भंडार की संभावना है। वाकर के बाद ओड़िसा राज्य के प्रसिद्ध भूवैज्ञानिक विश्वनाथ ने भी इन्द्रावन क्षेत्र में फैले रत्न भंडार पर एक रिपोर्ट तैयार की थी। ऐसा कहा जाता है कि 1986-89 के बीच उनकी रिपोर्ट की नकल कीमती पत्थरों के सौदागरों ने हासिल कर ली थी। उसके बाद ही इलाके में तस्करी क शुरूआत हुई। पायलीखंड ऐसा इलाका है जहां हीरे की चाह में दूर से लोग खींचे चले आते हैं। जांगड़ा गांव से होकर पायलीखंड पहुंचना पड़ता है। इन्द्रावन यहां की प्रमुख नदी है। इसे पार करने के बाद खदान तक पहुंचा जा सकता है।
सुरक्षा भगवान भरोसे
हीरा खदान की सुरक्षा सन् 2009 तक पुलिस के जवानों ने की। एक दिन यह खबर फैली कि नक्सली इधर आ रहे हैं। पुलिस बल इसलिए हटा लिया गया कि कहीं वे हथियार न लूट लें। गांव के लोगों का कहना है कि यह सब साजिश थी,ताकि अवैध खनन किया जा सके। छह वर्ष पहले हीरा खदान में 50 हेक्टेयर क्षेत्र को कटीले तारों से घेरा गया था। अब कटीले तार नहीं दिखते। संरक्षित क्षेत्र में कोई भी आ जा सकता है। खनिज विभाग के पास फंड नहीं होने की वजह से कटीले तार दोबार नहीं लगाया गया।     गरियाबंद जिले में पायलीखंड के अलावा बेहराडीह,कोदोमाली में भी हीरे मिलने की वजह से जगह जगह सैकड़ों की तादाद में गड्ढे बन गए है। 
इस तरह हुआ सर्वे
गरियाबंद और देवभोग में रत्न भंडार के सर्वे के लिए वैज्ञानिकों की एक टीम बनी। भौमिक एवं खनिज कर्म संचालनालय के भू वैज्ञानिक दत्ता माईणकर, जयंत कुमार पसीने,दिनेश वर्मा,विजय कुमार सक्सेना,संजय खरे, पी.के.पदमवार, हरविंदर पाल और आर.आर.विसेन ने दो वर्षो में सर्वे कर पता लगाया कि किन किन क्षेत्रों मंे कीमती रत्न हैं। इन वैज्ञानिकों ने मैनपुर ब्लाक के बेहराडीह, कोसममुरा, कोदोमाली, पायलीखंड, जांगड़ा, बाजीघाट और बस्तर क्षेत्र में तोकापाल,भेजीपदर में किंबरलाइट मिलने की पुष्टि की। ज्यादातर पहले हीरा मिलता है,उसके बाद किंबरलाइट चट्टान लेकिन, कभी कभी पहले किंबरलाइट चट्टान उसके बाद हीरा मिलता है।
हीरे की निविदा पर राजनीतिक ग्रहण    (फोटो दिग्गी राजा और अजीत जोगी की बाॅक्स में मैटर)
छत्तीसगढ़ में हीरा मिलने की पुष्टि होने के बाद मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्गविजय सिंह ने 1992  में निविदा आमंत्रित की। दिग्गी राजा ने डी-बियर्स कंपनी को मंजूरी दे दी। प्रोस्पेक्टिंग लायसेंस (पीएल)   के लिए केन्द्र की देवगौड़ा सरकार को पत्र भेज दिया गया। इस बीच कांग्रेस नेता अजीत जोगी ने मुख्यमंत्री दिग्गी राजा पर 50 करोड़ की रिश्वत लेने का आरोप लगाया और इसकी शिकायत सोनिया गांधी से की। आरोपों के साक्ष्य के बतौर अजीत जोगी ने कहा,‘‘डी बियर्स के निमंत्रण पर दिग्विजय सिंह,प्रदेश के तत्कालीन सचिव शरदचंन्द्र बेहार, खनिज सचिव एस. लक्ष्मीकृष्णन के साथ दक्षिण अफ्रीका के प्रवास पर गए हुए थे। इस प्रवास का पूरा खर्चा कंपनी ने उठाया है। हीरा खनन पर राजनीति होने से अनुबंध समाप्त कर दिया गया। 12 मार्च 1998 को एक बार फिर निविदा निकाली गई। जिसमें चार कंपनियां नेशनल मिनरल डेवलमेंट कार्पोरेशन,डी बियर्स, रियो टिंटो और बी विजय कुमार ने मैनपुर ब्लाक के  डी-7 ब्लाक के लिए निविदा भरी। बी विजय कुमार की निविदा मंजूर होने पर भाजपा सांसद रमेश बैस का अरोप था कि बगैर सर्वेक्षण के हीरों की कटिंग-पालिश का काम करने वाले ट्रेडर्स को काम दिया गया है। इसके अलावा यह भी आरोप लगा कि जिन खदानों का ठेका मंजूर किया गया है वहां सिर्फ हीरा ही नहीं अन्य कीमती धातुएं जैसे कोरडंम,गारनेट,स्पाटिक आदि मिलती हैं। इस मामले पर सरकार और बी विजय कुमार के बीच कोई अनुबंध नहीं हुआ कि आखिर इसका लाभ किसे मिलेगा। केन्द्र से सन् 2000 में प्रोस्पेक्ंिटग लायसेंस बी. विजय कुमार को मिल गया। छत्तीसगढ़ राज्य इसी वर्ष बनने पर अजीत जोगी मुख्यमंत्री बने। कंपनी को प्रदेश के खनिज विभाग ने क्षेत्र के सर्वे में गफलतबाजी करने आरोप लगाकर नोटिस थमा दिया। बी.विजय कुमार को लगा कि हाथ से काम छिन जाएगा तो उन्होंने बिलासपुर हाई कोर्ट में मामला दायर किया। 2008 से यह मामला दिल्ली ट्रिब्यूनल मिनिस्ट्री आफ माइंस के पास विचाराधीन है। वहीं मुख्यमंत्री डाॅ रमन सिंह कहते हैं,खदान के बारे में किसी भी तरह का निर्णय लेने के पहले फैसला तो देखना ही पड़ेगा‘‘।
तस्करों को खुली आजादी
पायलीखंड अब भी लोग आते हैं हीरे की तलाश में। चैकाने वाली बात है कि खदान में सुरक्षा के नाम पर सीमेंट की दो जर्जर खंभे हैं,जबकि दूसरा गेट टूटा हुआ है। हीरा निकालने के लिए कोई भी तस्कर खदान में आ जा सकता है। उसकी किस्मत में हीरा है तो आसनी से मिल जाएगा। बारिश में इन्द्रावती नदी में बाढ़ आ जाने से गांव कट जाता है। जिससे पुलिस की पहुंच से यह गांव दूर हो जाता है। जिला खनिज अधिकारी एस.के.मारवा कहते हैं,‘‘1991 के सर्वेक्षण में यहां 3 हजार कैरेट के हीरे की संभावना जताई गई थी। कुछ प्रशासनिक कारणों की वजह से खुदाई का मामला आगे नहीं बढ़ सका। ओड़िसा सीमा पर बसा वन ग्राम पायलखंडी और सेदमुड़ा दोनों स्थानों पर दुलर्भ कीमती रत्न अलेक्जेंड्राइट मिलता है। यह क्षेत्र पर्वतों से घिरा हुआ है। रेल मार्ग यहां नहीं है। मैनपुर ब्लाक में पायलखंडी और सेंदमूड़ा देवभोग ब्लाॅक में आता है। मैनपुर में उच्च कोटि के सागौन के जंगल हैं,जबकि देवभोग चावल के लिए प्रसिद्ध है।
गांव की तस्वीर नहीं बदली
सेंदमुड़ा की धरती में अलेक्टजेंड्राइट पत्थर होने की जानकारी मिली तो तस्करों का काफिला आने लगा। सरकार ने भी लोगों की जमीन छीन ली लेकिन इस गांव की तकदीर नहंीं बदली। खनिज विभाग के सेवा निवृत क्षेत्रीय अधिकारी एन.के चद्राकर कहते हैं,1987 में यहां कीमती पत्थर अलेक्टजेंड्राइट के होने की पुष्टि हुई थी। 1992 मंे इस पूरे क्षेत्र को पुलिस कस्टडी में लेकर मध्यप्रदेश खनिज विभाग को सौंप दिया गया। देवभोग जनपद उपाध्यक्ष देशबंधु नायक कहते हैं,‘‘खनिज विभाग के अधीन होने की वजह से पहले पांच साल तक यहां अवैध खनन होता रहा। 1992 में विभाग की देख रेख में उत्खनन का काम शुरू हुआ। कितने पत्थर निकाले और कितना बताए, कोई नहीं जानता। गांव वाले नहीं जानते कि इस पत्थर की क्या उपयोगिता है,कितना कीमती है। इसलिए गांव वालों को इसका कोई फायदा नहीं हुआ।
खनन पर रोक लगी
केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के निर्देश पर 20 फरवरी 2009 को उदंती-सीतानदी अभ्यारण्य को टाइगर रिजर्व का दर्जा दिया गया है। 851 वर्ग किलोमीटर कोर जोन है। पायलीखंड की हीरा खदान भी इसी जोन के तहत आती है। वन्य जीव कानून के तहत टाइगर की सुरक्षा को देखते हुए मंत्रालय ने खनन पर रोक लगा दी है। जबकि यहां का हीरा पन्ना की तरह है। बावजूद इसके तस्कर यहां आते हैं। पायलखंडी में नैन सिंह के खेत की तस्वीर सब कुछ कह देती है कि तस्कर जमीन को पोला अब भी हीरे की तलाश में कर रहे हैं। हीरे के लिए पानी की जरूरत अधिक पड़ती है। तस्कर स्थानीय मजदूरों के जरिए मिट्टी खुदवाते हैं। उसके बाद उसे बोरे में भरकर साइकिल के जरिए नदी तक ले जाते हैं। मजदूर घनी जाली में मिट्टी को डालकर उसे धोते हैं। मिट्टी बह जाती है। जाली में कंकर रह जाता है। जिसे सूखाकर या फिर प्लास्टिक की चादर में फैलाकर उसे चावल की तरह बीना जाता है। सूरज की रोशनी में चमकने वाला पत्थर हीरा होता है। मजदूरों को एक हीरा तलाशने में दो से तीन सौ रूपए मिलता है।
रत्नों का अकूत भंडार
गरियाबंद के देवभोग,सरगुजा के सफा, बीजापुर के भोपालपट्टनम और जशपुर के कुनकुरी, वनखेता एवं दीवानपुर में पारदर्शी हीरा पाया जाता है। गरियाबंद जिले के पायलीखंड,जागड़ा,बेहराडीह,कोदेमाली और बाजाघाटी में हीरे की किबंरलाइट है। बस्तर के तोकापालव, भेजरीपदर और जशपुर के फरसबहार, मैनी नदी, सारंगगढ़, पिथौरा, बेहराडीह, कंाकेर-केशकाल,नारायणपुर,छोटा डोंगर,तोकापाल में भी हीरा पाया जाता है। उथली खदान होने की वजह से तस्कर इसका फायदा उठा रहे हैं। इसके अलावा प्रदेश के कई अन्य जिलों में भी रत्नों के भंडार है। बीजापुर जिले के भोपालपट्टनम में कोरन्डम (माणिक और नीलम) दबे हैं। सुकमा जिले के सोन कुकानार और गरियाबंद के केदूबाय गांव में माणिक पाए गए हैं। गरियाबंद के गोहेकला,धूप कोट,लाटापारा और केदूबाय में रक्तमणि के भंडार मिले हैं। इसके अलावा बीजापुर के कुचनुर और सरगुजा के बिशनपुर में भी इसके भंडार मिले हैं।
पांचवी सबसे बड़ी खदान!
दुनिया भर में हीरे की 22 खदाने हैं। यदि मैनपुर ब्लाक के तहत पायलीखंड की खदान शुरू होती है तो यह विश्व की पांचवा सबसे बड़ा खदान होगी। इस खदान से छत्तीसगढ़ सरकार को सालाना करीब 10 हजार करोड़ का मुनाफा हो सकता है। यह खदान 50 हेक्टेयर क्षेत्र में फैली है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि यहां साउथ आफ्रिका की खदानों जैसे ही हीरे हैं। नई राजधानी में जेम्स एंड ज्वेलरी पार्क शुरू होने से हर व्यक्ति के लाभान्वित होने की उम्मीद है। रोजगार बढ़ने से लोगों की आमदनी और लाइफस्टाइल तो बेहतर होगी हीए भारी.भरकम राजस्व से प्रदेश में डेवलपमेंट की नई तस्वीर भी उभर सकती है। दरसअल छत्तीसगढ़ सरकार पिछले वर्ष सोनाखान की नीलामी की है। इससे संभावना है कि अब जल्द ही यहां माइनिंग शुरू हो जाएगी। सोनाखान के शुरू होने पर मैनपुर के हीरा खदान को भी हरी झंडी मिलने की उम्मीद बढ़ गई है। यदि ऐसा होता है तो मैनपुर देश का इकलौता हीरा खदान बन जाएगा। यहां करीब 1 लाख कैरेट हीरा मिलने का अनुमान है।
नए बाजार की संभावनाएं
सोनाखान में सोने और पायलीखंड में हीरा खदानों की पुष्टि होने के बाद सूरत और मुंबई की तर्ज पर ही सराफा की नई इंडस्ट्रीज के लिए छत्तीसगढ़ सरकार ने नई कवायद शुरू कर दी है। छत्तीसगढ़ राज्य औद्योगिक विकास निगम सीएसआईडीसी और एक निजी कंपनी रामकी समूह के बीच एक एमओयू हुआ है। इसके तहत कंपनी 3 हजार करोड़ रुपए का निवेश कर नया रायपुर में रत्न एवं आभूषण उद्योग, हर्बल और औषधीय पार्क तथा खाद्य प्रसंस्करण पार्क बनाएगी। इसमें सबसे महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट जेम्स एंड ज्वेलरी पार्क का है। इसके लिए नया रायपुर में जमीन आवंटित कर दी गई थी लेकिन मामला अब तक ठंडा ही था। सोने के खान की नीलामी ने इस पार्क की संभावनाओं में नई जान फूंकी है।







  छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 230 किलोमीटर दूर एक गांव सेंदमुड़ा है। आज से तीस साल पहले इस गांव में प्यारे सिंह और प्यारेलाल नाम के दो भाई रहते थे। इनके पास दो एकड़ खेत था। जिसमें धान उगाया करते थे। प्यारे सिंह को हल चलाते वक्त एक चमकीला पत्थर मिला। उसे  उलट पलट कर देखा। कुछ समझ में नहीं आया तो घर ले आए। बच्चों को खेलने के लिए दे दिया। गांव के बच्चे इसे कंचा बनाकर खेलने लगे। प्यारे सिंह को यह पता नहीं था कि जिस पत्थर को वे बच्चों को खेलने के लिए दिए हैं वह कीमती पत्थर अलेक्जेन्ड्राइट है। जो कृत्रिम रोशनी में रंग बदलता है। धीरे,धीरे इस क्षेत्र में दूसरे गांव के खेतों में भी यह पत्थर निकलने लगा। बात गांव से बाहर शहर तक पहुंची तो जौहरी आने लगे। जौहरी बच्चों को चाकलेट,बिस्कुट देकर पत्थर ले लेते थे। फिर कुछ रूपए दिए जाने लगे। धीरे,धीरे गांव वालों को भी यह बात समझ में आने लगी कि पत्थर असाधारण नहीं है। धीरे,धीरे इस पत्थर की कीमत मिलने लगी।

काठ के घोड़े पर छाॅलीवुड

            काठ के घोड़े पर छाॅलीवुड
छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद से अब तक करीब दो से अधिक फिल्में बनीं लेकिन, बाॅक्स आफिस पर गिनती की ही फिल्में धमाल मचा सकीं। सवाल यह है कि 50 करोड़ से अधिक खर्च होने के बाद भी छत्तीसगढ़ी फिल्में अन्य भाषाओं की फिल्मों की तरह क्यों नहीं चमकीं। जबकि छत्तीसगढ़ के कई कलाकर बड़े पर्दे पर जौहर बिखेर रहे हैं।

0 रमेश कुमार ‘‘रिपु‘‘





    छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद से अब तक डेढ़ सौ से अधिक फिल्में बनीं लेकिन, बाॅक्स आफिस पर गिनती की ही फिल्में धमाल मचा सकीं। सवाल यह है कि आखिर छत्तीसगढ़ी बोली की फिल्में लगातार पिट क्यों रही हैं। जबकि भोजपुरी,बंगाली और मराठी फिल्में ना केवल जल्वा बिखेर रही हैं बल्कि बाॅक्स आॅफिस पर रिकार्ड भी बना रही हैं। छत्तीसगढ़ी फिल्म निर्माता और निर्देशकों की शिकायत है कि सरकार नहीं चाहती है कि छाॅलीवुड भी चमके। यहां के कलाकार रंगीन पर्दे पर अपनी कला का जौहर बिखरते हुए छत्तीसगढ़ का नाम रौशन करें। देखा जाए तो छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद से अब तक डेढ़ सौ से भी अधिक फिल्में बन चुकी हैं। इन दिनों छाॅलीवुड बचाओ‘ की आवाज तेज हुई है। माना जा रहा है कि मल्टीप्लेक्स आने की वजह से यह उद्योग दम तोड़ने लगा है। हालांकि भाजपा और कांग्रेस दोनों ने पिछले चुनाव में अपने घोषणा पत्र में दावा किया था कि सरकार बनी तो छत्तीसगढ़ी फिल्म विकास बोर्ड का गठन किया जाएगा। छत्तीसगढ़ राज्य बने डेढ़ दशक के बाद भी इस दिशा में सरकार ने सार्थक पहल नहीं की। निर्माता निर्देशक सतीश जैन कहते हैं,‘‘ सरकार को लगता है कि फिल्म विकास बोर्ड का गठन होने के बाद लोकप्रिय कलाकारों के राजनीति में आने से वे चुनौती बन सकते हैं‘‘।
छत्तीसगढ़ी फिल्मों के प्रमुख कलाकार पद्म श्री अनुज शर्मा कहते हैं,‘‘राज्य में अब मात्र 50-60 थियेटर बचे हैं। राजधानी में कई थियेटर टूट गए। मल्टीप्लेक्स का दौर आ गया हे। मध्य छत्तीसगढ़ में ही छत्तीसगढ़ी बोली बोली जाती है। ऐसा नहीं है कि छत्तीसगढ़ी फिल्में बाॅलीवुड की फिल्मों की तरह नहीं बनती। ग्लैमर का तड़का,आइटम साॅंग,मारधाड़,ड्रामा,मधुर धुन और सुन्दर दृश्यों से छत्तीसगढ़ी फिल्में भी लदी होती हैं बावजूद इसके, निर्माता निर्देशकांे की यह शिकायत है कि छत्तीसगढ़ के लोग ही फिल्में देखने छविगृह नहीं जाते। इस वजह से छत्तीसगढ़ी फिल्में बेबस हैं बाॅक्स आॅफिस पर रिकार्ड बनाने के लिए‘‘।़ बावजूद इसके छत्तीसगढ़ बोली की कई फिल्मों ने रिकार्ड भी बनाया है। मोर छइंया भुइंया,टूरा रिक्शा वाला,बीए फस्ट ईयर, मितान 420, महूं दिवाना, तहूं दीवानी, राजा छत्तीसगढ़िया, दूलाफा डू कुछ ऐसी फिल्में हैं जिन्हें दर्शक मिले और लोगों के बीच चर्चा में भी रहीं। ऐसी स्थिति में यह कहना गलत होगा कि छत्तीसगढ़ी फिल्में लोग देखने नहीं जाते। वहीं इससे इंकार भी नहीं है कि फिल्मों को लेकर दर्शकों का नजरिया बदला है। राजधानी रायपुर में पांच दशक पहले 14 छविगृह थे आज गिनती के ही बचे हैं। छविगृह टूट कर काम्पलेक्स में तब्दील हो गए हैं। फिल्मी दर्शक कौशलेश तिवारी कहते हैं,‘‘ छत्तीसगढ़ी भाषा में फिल्में बन रही हैं,बंद नहीं होंगी। दिक्कत यह है कि छत्तीसगढ़ी फिल्मों को टाॅकीज नहीं मिल रहे हैं। श्याम,अमरदीप और प्रभात टाॅकीज में से किसी एक छविग्रृह में छत्तीसगढ़ फिल्में लगती है। जबकि सभी छविगृहों में लगनी चाहिए‘‘।
सरकार सब्सिडी देः योगेश
छत्तीसगढ़ फिल्म एसोसियेशन के पूर्व अध्यक्ष योगेश अग्रवाल कहते हैं,‘‘दरअसल ग्रामीण इलाके में छविगृह नहीं है,जबकि साउथ के हर गांव में टाॅकीजें हैं। सिनेमा हाल जिला से पंचायत स्तर तक खुलना चाहिए। सरकार से हमारा आग्रह है कि वे हमें सब्सिडी दे और टैक्स में छूट दे ताकि हमारे लोग टाॅकीज खोल सकें। फिल्म विकास बोर्ड अब बन जाने की उम्मीद है। कलाकारों से सुझाव मांगा गया है। कलाकार चाहते हैं कि उनका बीमा होना चाहिए। छत्तीसगढ़ फिल्म उद्योग में करीब पांच हजार लोगों को रोजगार मिला हुआ है। सरकार से मदद मिलने के बाद रोजगार के और रास्ते इजाद होंगे। प्रदेश छोटा है। ढाई करोड़ की आबादी है। ज्यादातर लोग हिन्दी बोलते हैं। बावजूद इसके हमारे यहां अब पहले से अच्छी फिल्में बनने लगी हैं,मुंबई के कलाकार भी छत्तीसगढ़ी फिल्में में काम करने लगे हैं। इससे इंकार नहीं है कि   छत्तीसगढ़ी फिल्मों का भविष्य उज्जवल है‘‘।
ज्यादा फिल्मीकरण ठीक नहीं
हिट फिल्म मेकर सतीष जैन कहते हैं,फिल्में ऐसी होनी चाहिए जो लोगों का मनोरंजन करे। दर्शकों को पसंद आए। ज्यादा फिल्मीकरण कर देने से फिल्में पिट जाती हैं। भोजपुरी और मराठी फिल्मों को ओपनिंग मिलती है लेकिन छत्तीसगढ़ी फिल्मों को नहीं। छत्तीसगढ़ी फिल्मों के सबसे बड़ा स्टार अनुज हैं लेकिन, उनकी भी फिल्मों को ओपनिंग नहीं मिलती। कोई अपनी टाॅकीज में छत्तीसगढ़ी फिल्म तभी लगायेगा जब फिल्म अच्छी हो। अच्छी फिल्में बनाने वालों की कमी है। फिल्म विकास निगम बना देने से छत्तीसगढ़ी फिल्मों को कोई लाभ नहीं मिलने वाला। सरकार के प्रभाव वाले और आयोग के लोगों का ही भला होगा। 
करोड़ों रूपए दांव पर
छत्तीसगढ़ी फिल्में ‘‘कहि देबे संदेश‘‘ और ‘घर द्वार‘ को छोड़ दें तो राज्य बनने के बाद ‘‘मोर छइंया भुइंया के बाद से लगातार फिल्में बनती आ रही हैं। छाॅलीवुड जिंदा रहे इसलिए लोग फिल्में बना रहे हैं। 16 साल बाद भी छत्तीसगढ़ी फिल्म इंडस्ट्री मजबूती से खड़ी नहीं हो पाई है। जबकि बाॅलीवुड और टीवी धारावाहिक के कई स्थापित कलाकारों को लेकर फिल्में बनाई गईं और बन भी रही हैं। बावजूद इसके कामयाब फिल्में गिनती की हैं। अब तक छाॅलीवुड में 50 करोड़ से अधिक पूंजी लग चुकी हैं और करोड़ों रूपए अभी भी दांव पर हैं।
कम बजट का प्रयोग फेल
छत्तीसगढ़ के फिल्म मेकर्स को लगता है कि फिल्मों का ग्लैमर लोगों को अपनी ओर खींचता है। इसलिए नए कलाकारों को लेकर कम बजट में आसानी से फिल्म बनाई जा सकती हैं। लेकिन यह प्रयोग लगातर फेल हो रहा है। अच्छे कलाकार और अच्छी पटकथा नहीं होने की वजह से फिल्में अपनी लागत नहीं निकाल पा रही हैं। आम दर्शकों का कहना है कि जब फिल्म ही देखना है तो फिर बाॅलीवुड की फिल्में क्यों न देखें। टिकट का पैसा तो उतना ही लगना है। दरअसल फिल्म निर्माता बनने की चाह में लोग अपना पैसा छाॅलीवुड में लगा तो रहे हैं, लेकिन दर्शकों को पर्दे तक खींचने वाली फिल्में नहीं बना पा रहे हैं।   छत्तीसगढ़ी फिल्म बनाने वाले अब भोजपुरी या फिर हिन्दी फिल्मों की ओर रूख कर लिए हैं। जाहिर सी बात है कि छत्तीसगढ़ी फिल्मों को विकसित होने में अभी वक्त लगेगा।
सरकार का सहयोग जरूरी
छत्तीसगढ़ी फिल्म के निर्माता और निर्देशक मनोज वर्मा भी छत्तीसगढ़ी फिल्म की जगह स्थानीय कलाकारों को लेकर ‘पिपली लाइव’ तर्ज पर एक हिन्दी फिल्म बना रहे हैं। इनका कहना है छत्तीसगढ़ी फिल्म से ही मै पैदा हुआ हॅू, इसलिए इसे नहीं छोड़ सकता। दरअसल बाहर निकलना जरूरी था। आखिर कब तक कुंए में रहोगे। छत्तीसगढ़ी फिल्मों को सरकार का सहयोग नहीं मिल रहा है। जहां दर्शक हैं, वहां टाॅकीज नहीं हैं,जहां टाॅकीज है, वहां दर्शक नहीं है। निर्माता आखिर कब तक अपने घर का पैसा लगायेगा। दीगर भाषाओं की फिल्मों के लिए 20 सेंटर एक साथ मिला जाते हैं लेकिन छत्तीसगढ़ी फिल्मों के साथ ऐसा नहीं है। बुद्धिजीवी वर्ग छत्तीसगढ़ी फिल्म देखता नहीं और दूसरों को भी देखने से मना करता है। 50 दिन छत्तीसगढ़ी फिल्म के चलने पर ही पैसा वसूल होगा। लेकिन मुश्किल से 10 थियेटर में चलती हैं, वह भी एक सप्ताह चल जाए बहुत है। सरकार का जब तक सहयोग और सब्सिडी नहीं मिलेगी छाॅलीवुड डायलसिस पर रहेगा। यहां के कलाकारों मंे समर्पण की भावना है जिसकी वजह से छत्तीसगढ़ी फिल्में बन रही हैं। मेरी अगली फिल्म बक्शी जी के उपन्यास पर आधारित है। ’’भूलन कांदा‘‘। जिसमें चार गाने छत्तीसगढ़ी में और अन्य गाने हिन्दी में है। फिल्म में गांव का व्यक्ति शहर में आकर भीा छत्तीसगढ़ी भाषा बोलता है। गांव की मिट्टी का आदमी हूं,अपनी मिट्टी को कैसे भूल सकता हॅूं। ‘‘महूं दिवाना,तहूं दिवानी‘‘ फिल्म को यू ट्यूब पर दो लाख लोग देख चुके हैं। हर रोज मुझे 50 फोन आते हैं और फिल्म की बड़ी तारीफ करते हैं। इंटरनेट पर फिल्म देखी जाएगी तो उससे निर्माता निर्देशक को कुछ नहीं मिलेगा। लोग छविगृह जाएं और मनोरंजन करें‘‘।
फिल्म को दर्शक चाहिए
फिल्म निर्माता चन्द्रशेखर चैहान कहते हैं,‘‘ फिल्में बनाने मात्र से छाॅलीवुड का कल्याण नहीं होगा। जरूरी है कि उसे दर्शक मिलें। 16 साल से फिल्में बन रही हैं। जाहिर सी बात है कि फिल्में बनना बंद नहीं होगा, इसलिए कि लोगों में जुनून है। फिर भी छत्तीसगढ़ी भाषा के प्रति लोगों में लगाव होना जरूरी है। दर्शकों के मनांेरजंन को ध्यान में रखकर जब तक फिल्में नहंीं बनेंगी वो टाॅकीज में ज्यादा दिन नहीं चलेंगी।   भोजपुरी,मराठी और बंगाली आदि भाषाओं में फिल्में बन रहीं हैं और चल भी रही हैं,इसलिए कि सरकार का उन्हें सहयोग मिल रहा है।
छत्तीसगढ़ी फिल्में माॅल में भी चलें
फिल्म अभिनेत्री तान्या तिवारी कहती हैं,छत्तीसगढ़ी फिल्मों के लिए दर्शक के साथ सेंटर का अभाव है। पटकथा और निर्देशन अच्छा होने पर ही फिल्में चलती हैं। छत्तीसगढ़ी फिल्मों के प्रचार प्रसार से अधिक जरूरी है इस भाषा का प्रचार। सरकार को चाहिए कि माॅल में चलने वाली फिल्मों के लिए ऐसी व्यवस्था करे कि चार शो में एक शो छत्तीसगढ़ी फिल्म का हो। फिल्में लगातार फ्लाप होती हैं तो माहौल पर असर पड़ता है। फिर भी लगातार फिल्में बनती रहेंगी तो सुधार होगा। छत्तीसगढ़ी फिल्मों में सबसे बड़ी खामी यह है कि भूमिका के अनुसार कलाकारों का चयन नहीं किया जाता। रूपए बचाने के चक्कर में नए कलाकारों को ले लिया जाता है। नए कलाकारों को यदि अवसर ही देना है तो उन्हें ऐसे कलाकारों के साथ काम करने का अवसर दें जिनके साथ वे अपने आप को समायोजित कर सकें और पात्र को पर्दे पर जीवंत बना सकें। नए कलाकारों को उम्दा तरीके से लाॅच किया जाना चाहिए। चैकानी वाली बात यह भी है कि जो निर्माता हैं वहीं फिल्म का हीरो भी बन जाता है। वह ही तय करता है कि फिल्म में कौन नायिका होगी और कौन कौन कलाकार। जबकि फिल्म की पटकथा के अनुसार कलाकारों का चयन होना चाहिए‘‘।

संस्कृति विभाग के निदेशक आशुतोष मिश्रा कहते हैं,‘‘छत्तीसगढ़ी फिल्में चलें और छाॅलीवुड ंिजंदा रहे, ऐसी सरकार की भी मंशा है। छत्तीसगढ़ी फिल्म विकास बोर्ड के लिए काफी काम हो चुके हैं। ड्राफ्ट आदि तैयार हो गया है। संस्कृति विभाग कलाकारों को प्रोत्साहन देते आया है। उम्मीद है आने वाले समय में और भी अच्छे काम इस दिशा में होेंगे और छाॅलीवुड से जुड़े कालाकारों को लाभ मिलेगा। हाल ही में सलहाकार समिति की बैठक बुलाई गई थी। विचार किया जा रहा है कि बोर्ड क्या काम करेगा। अगली बैठक में संभवतः कुछ ठोस नतीजे आने की उम्मीद है‘‘।
फिल्मों की सफलता के लिए आज बड़े बजट की फिल्म का टेंªड चल निकला है। ऐसा भी नहीं है कि छत्तीसगढ़ी फिल्म के निर्माताओं ने भव्य फिल्में नहीं बनाई। लेकिन भव्य फिल्मों का टेंªंड ‘झन भूलो मां बाप ला‘‘ फिल्म से खत्म हो गया। छोटे बजट की फिल्मों का दौर आया। इस दौर में कुछ फिल्में चली तो फिर छोटे बजट की फिल्मों की बाढ़ आ गई। नतीजा दर्शकों ने नकारना शुरू कर दिया। फिल्म राजा छत्तीसगढ़िया,और मया को दर्शकांे का अच्छा प्यार मिला। लेकिन कम बजट की फिल्मों में उम्दा कलाकार और पटकथा लेखक अच्छे नहीं होने से फिल्में दम तोड़ने लगीं। जाहिर है कि छत्तीसगढ़ी फिल्मों के लिए आगे, अभी और कठिन डगर है।