Thursday, August 22, 2019

तोते ने उड़ा दी नींद..


कांग्रेस के लिए पी चिंदबरम अर्श के नेता हैं। आज फर्श पर आ गये। सत्ता की फ़िल्म ऐसी ही होती हैं। आज उनकी हर सांस अमित शाह का नाम ले रही होगी। यह तो होना ही था। उन्हें हाई कोर्ट ने 22 बार अग्रिम जमानत दी। तब उन्हें यह बात समझ में नहीं आई कि वे कांग्रेस के लिए बड़े लीडर हो सकते हैं लेकिन, कानून के लिए नहीं। वे अब 26 अगस्त तक सीबीआइ की हिरासत में रहेंगे। जाहिर सी बात है कि यदि उनसे होने वाली पूछताछ से सीबीआइ संतुष्ट नहीं हुई तो उनकी हिरासत की अवधि बढ़ाने की अपील करेगी। और पूछताछ में पुख्ता साबूत मिल गये तो उन्हें जेल भी हो सकती है। वैसे उनके जेल जाने की आशंका ज्यादा है। क्यों कि इसके बाद ईडी भी उनसे सवाल करेगी। जैसा कि बताया जा रहा है कि 16 देशों में उनकी संपत्तियां है। जाहिर सी बात है यह मामला टूजी घोटाले की तरह इतनी आसानी से खत्म नहीं हो जायेगा। ताज्जुब वाली बात है कि उनकी जमानत जब हाई कोर्ट ने खारिज कर दिया तो उन्हें अपने आप को सरेंडर कर देना चाहिए था। कैसे गृहमंत्री थे। 28 घंटे तक सीबीआइ को छकाते रहे। अपनी सफाई सुप्रीम कोर्ट में देने की बजाय, प्रेस कांन्फ्रेस की। हाई कोर्ट ने उन्हें भ्रष्टाचार का सरगना कहा है। उनके मामले को मनी लाउंड्री का क्लासिकल केस कहा। बावजूद इसके कांग्रेस उनके साथ खड़ी है? क्या करें मजबूरी है।इस मामले से एक बात साफ है कि आने वाले समय में कांग्रेस के अन्य बड़े नेता जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं, उनकी मुश्किलें बढ़ सकती है। जैसा कि प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने पन्द्रह अगस्त को कहा कि देश का एक एक पैसा जिन गलत लोगों के पास है, उसे बाहर लाना जरूरी है।
पी चिदंबरम मामले पर विपक्ष की भंगिमा का बदलना स्वभाविक है। पी चिंदबरम जब गृहमंत्री थे तब उन्होंने अमित शाह को जेल भेजा था। आज चिंदबरम के होश उड़े हुए हैं। कांग्रेस इसे बदलापुर की राजनीति कह रही है। जबकि भाजपा का कहना है कि हाई कोर्ट ने बेल खारिज की तो सीबीआइ ने अपना काम किया। 26 तक चिंदबरम सीबीआइ की कस्टडी में रहेंगे लेकिन, कस्टडी की अवधि नहीं बढ़ी तो ईडी उन्हें अपनी कस्टडी में लेने के लिए अपील करेगी। यानी पी चिंदबरम की सियासी मटकी को फोड़ने के सारे इंतजाम हैं।
पी चिंदबरम की गिरफ्तारी को लेकर जो सियासी नाटक कल रात से आज शाम तक चला। उसमें एक सबसे बड़ी बात यह रही है कि चिंदबरम के वकील कपिल सिब्बल,अभिषेक,विवेक तन्खा आदि ने सीबीआइ की अदालत में बेल देने की बात कही ही नहीं। वो पूरे समय तक सीबीआइ की कस्टडी की खिलाफत करते रहे। वो यही बताते रहे कि जून के बाद, एक बार भी सीबीआइ ने चिंदबरम को बुलाया नहीं। वो हर बार सीबीआइ को पूछताछ में सहयोग किया है। ऐसी स्थिति में सीबीआइ को कस्टडी में लेने का आदेश न दिया जाये।
इस मामले में एक हैरान करने वाली बात है कि भाजपा वाशिंग पावडर बन गई है। जितने भी भ्रष्ट लोग हैं वो भाजपा में शामिल हो गये या फिर भाजपा से हाथ मिला कर धुल गये। लेकिन अन्य दल के लोग अब सरकार के निशाने में हैं।
इनका क्या होगा - जमीन घोटाले में राबर्ट वाड्रा,नेशनल हेराल्ड केस में राहुल गांधी,इसी मामले में सोनिया गांधी, फ्लोर टेस्ट जीतने के लिए विधायकों को खरीदने की कोशिश करने के मामले मे हरीशरावत,आय से अधिक संपत्ति मामले में वीरभद्र,डी.के शिवकुमार,अगस्ता वेस्टलैंड हेलीकाप्टर घोटाला में अहमद पटेल, आय से अधिक संपत्ति के मामले में मायावती आदि हैं, क्या सीबीआइ के पिंजड़े में ये भी कैद होंगे? केन्द्र सरकार भ्रष्ट लोगों के खिलाफ कार्रवाई का जो अभियान शुरू किया है, आने वाले समय में नहीं लगता कि विपक्ष एक जुट होकर सड़कों पर आने की हिम्मत दिखा सकेगा। यदि आते हैं तो फिर तिहाड़ को कई बड़े लोगों के स्वागत के लिए खुद को तैयार रखना पड़ेगा। बहरहाल तोते ने कइयों की नींद उड़ा दी है। यानी अभी तो ये झांकी है,रैली तो पूरी बाकी है।

नक्सलियों के खिलाफ फैसला कब?

  कश्मीर समस्या पर बड़ा फैसला लिया जा सकता है तो नक्सलवाद पर क्यों नहीं? क्यों कि छत्तीसगढ़ में फौज से अधिक नक्सली नहीं हैं। जिनके नेतृत्व में नक्सलवाद पल्लवित हो़ रहा है,उनकी शिनाख्त हो चुकी है। ऐसे में नक्सलियों के खिलाफ सरकार को ठोस फैसला लेने की जरूरत है,ताकि छत्तीसगढ़ नक्सलवाद के शिकंजे से मुक्त हो सके।








 0 रमेश कुमार ‘‘रिपु‘‘
                 छत्तीसगढ़ राज्य बनने की खुशी के साथ नक्सलियों के आतंक की पीड़ा भी यहां के लोगों को विरासत में मिली है। करीब दो दशक से छत्तीसगढ़ की शिराओं मंे नक्सलवाद का लहू बह रहा है। चैकाने वाली बात है कि नक्सली आतंक से पहले सरगुजा लहू लुहान हुआ, अब बस्तर इसकी जद में है। प्रदेश में पहले 14 जिलों में नक्सलियों की तूती बोलती थी, आज 18 जिलों में नक्सलियों का आतंक इस बात का प्रमाण है कि सरकार किसी भी पार्टी की हो,राज्य में इनकी हुकूमत चलती है। नक्सलियों के आतंक राज को इसी से समझा जा सकता है कि आजादी के बाद से अब तक छत्तीसगढ़ के दौ सौ से अधिक गांवों में जनगणना नहीं हुई। जाहिर सी बात है कि नक्सलियों की दहशत इस काम में सबसे बड़ी बाधा है।
लाल आतंक से जूझ रहे छत्तीसगढ़ के लोगों के मन में एक आस जगी है कि जम्मू, कश्मीर मामले पर केन्द्र सरकार एक ठोस फैसला ले सकती है तो फिर छत्तीसगढ़ के नक्सलवाद पर क्यों नहीं? चूंकि कश्मीर जैसी बड़ी समस्या नहीं है नक्सलवाद, लेकिन छत्तीसगढ़ के लोगों का दर्द भी कश्मीरी पंडितों से कम नहीं है। लोगों को अपना घर,गांव और संपत्ति छोड़ना पड़ा है। राज्य के गठन से लेकर अब तक नक्सलवाद की वजह से 1175 जवान शहीद हुए हैं तो दूसरी ओर 1700 से अधिक नागरिक मारे जा चुके हैं। वहीं 1800 नक्सली भी मारे गये। यह सिलसिला थम नहीं रहा है। जानें तो दोनों ओर से जा रही हैं। नक्सली मरें या फिर जवान शहीद हों अथवा आम नागरिक नक्सलवाद की भेंट चढ़े। सवाल यह है कि लाशों की संख्या बढ़ने से हित किसका है?इससे इंकार नहीं किया जा सकता नक्सलवाद समस्या पर भाजपा की हो या फिर कांग्रेस की सरकार, किसी ने भी गंभीरता से लिया ही नहीं। जैसा कि पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी कहते हैं,‘‘नक्सलवाद राजनीतिक पार्टियों के लिए खाद पानी है। इच्छा शक्ति की कमी के चलते ही नक्सलवाद आज भी अट्ठहास कर रहा है‘‘। डाॅ रमन सिंह ने प्रदेश की जनता से वायदा किये थे कि यदि उनकी सरकार बनी तो 2022 तक नक्सलवाद को खत्म कर देंगे। जाहिर सी बात है कि उन्हें भरोसा था कि जिस तरह पुलिस नक्सलियों के खिलाफ आॅपरेशन प्रहार अभियान को गति दे रही है,उससे नक्सली टूट जायेंगे। चूंकि पहले नक्सली एक लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले थे लेकिन, अब 60 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में सिमट गये हैं। लेकिन उनका आतंक भूपेश सरकार में भी कम नहीं हुआ है। बारिश में वैसे उनका मूवमेंट न के बराबर होता है,पर दहशहत का आलम यह है कि बस्तर के छह सौ से अधिक गांव पिछले डेढ़ दशक से खाली हैं। लोग गांव छोड़कर शहर में आकर बस गये हैं।

आर्थिक विषमता की दिक्कतः नैयर
नक्सलवाद के खात्में के लिए कोई भी सरकार आम लोगों से राय शुमारी नहीं ली। बस्तर के आदिवासियों से बातें करने के लिए सरकार अपना प्रतिनिधि भी नहीं भेजी। यह अलग बात है कि प्रदेश के हर मुख्यमंत्री यही कहते रहे कि नक्सलियों से बात करने के लिए दरवाजे खुले हुए हैं। लेकिन कभी खुद पहल नहीं की। सरकार नक्सलवाद को अपने चश्में से देखती है। यही वजह है कि नक्सली छाया घटने की बजाय बढ़ती गई। प्रदेश में नक्सलवाद की वजह के संदर्भ में दैनिक ट्रिव्यून के पूर्व संपादक  रमेश नैयर कहते हैं, कश्मीर का मामला छत्तीसगढ़ के नक्सलवाद से अलग है। वो देश की भावनाओं से जुड़ा मामला था और नक्सलवाद प्रदेश का मामला है। केन्द्र सरकार ने नक्सलियों से निपटने के लिए सुरक्षा बल तैनात किये हैं। वे अपने तरीके से काम भी कर रहे हैं। बस्तर ही नहीं उन सभी जिलों में सुरक्षा बल तैनात है,जहां नक्सलियों की पैठ है। नक्सल समस्या का निदान अब तक नहीं निकल पाने की सबसे बड़ी वजह है कि आर्थिक असमानता। जल,जंगल और जमीन के मालिक आदिवासी हैं,लेकिन वो अब उद्योगपतियों के मजदूर बनकर रह गये हैं। यहां का आदिवासी जितना गरीब होगा,नक्सलवाद उतना ही मजबूत होगा। इसलिए कि जल,जंगल और जमीन के लिए नक्सली आदिवासी के साथ खड़े होते आये हैं। जिससे वे आदिवासियों का विश्वास पात्र बन गयेे हैं। जबकि सरकार अभी तक आदिवासियों का विश्वास नहीं जीत पाई है। जब तक आदिवासियों का विश्वास सरकार नहीं जीत पायेगी, तब तक नक्सलवाद के अंत की संभावना कम है। इससे इंकार नहीं है कि पहले से नक्सली गतिवधियां कम हुई है सुरक्षा बलों की वजह से लेकिन, यह कहना गलत होगा कि नक्सलवाद की पकड़ कमजोर हो गई है। सरकार किसी भी पार्टी की हो जल,जंगल और जमीन को लेकर भ्रष्टाचार हद से अधिक हुआ है। जिस तरह से जंगल काटने का ठेका दिया जा रहा है उद्योगपतियों को,आने वाले समय में हमारी पीढ़ियां पानी को तरसेगी। इतना ही नहीं पानी को लेकर नक्सली हमले से इंकार  भी नहीं किया जा सकता’’।

नक्सलियों से ज्यादा सैनिक
नक्सली प्रभावित जिलों में केन्द्रीय सुरक्षा बलों की 45 बटालियनों को मिलाकर 60 हजार से अधिक जवान तैनात हैं। इतनी संख्या में सुरक्षा बलों की मौजूदगी से एक बात साफ है कि बस्तर नक्सलियो की वजह से असुरक्षित है। इसी के साथ विकास का पोस्टर भी फट गया है। शिक्षा व्यवस्था चैपट हो चुकी है। क्यों कि 300 स्कूलों को नक्सलियों ने खंडहर में तब्दील कर दिया। नक्सली मानते हैं कि आदिवासियों के बच्चे पढ़कर शिक्षित हो जायेंगे तो नक्सली नहीं बनेंगे। बस्तर के कई इलाके आज भी सड़क मार्ग से वंचित हैं। जहां सड़कें हैं भी, नक्सलियों ने काट दियें है या फिर सड़क मार्ग के किनारे आईडी लगा रखे है। बस्तर के किस मार्ग में आईडी लगी है,कहना मुश्किल है। बस्तर में नक्सलियों की समानांतर सरकार की वजह से 40 हजार करोड़ से अधिक के विकास काम ठप हैं। जबकि प्रदेश का कुल बजट रमन सरकार के समय करीब 85 हजार करोड़ रूपये हुआ करता था,जाहिर सी बात है कि यह प्रदेश के कुल बजट का आधा है। बस्तर सबसे अधिक नक्सल से प्रभावित है। नक्सलियों ने ढाई दशक में 1700 आंगन बाड़ी केन्द्र,219 अस्पताल,220 किलोमीटर सड़कें नहीं बनने दी। जबकि कई मार्गो की सड़कों के निर्माण में जवान शहीद हुए हैं।

दृढ़ इच्छा शक्ति चाहिएः शिव
दैनिक भास्कर के संपादक शिव दुबेे कहते हैं,‘‘जिस तरह से कश्मीर के मामले में राजनीतिक दृढ़ इच्छा शक्ति सामने आई है उसी तरह छत्तीसगढ़ के नक्सलवाद के प्रति भी राजनीतिक दृढ इच्छा शक्ति के लिए सरकार को कड़ा निर्णय लेना चाहिए। केवल फौज से समस्या का निदान नहीं हो सकता।  आॅपरेशन चलाना और दिखाना दोनों अलग अलग है। इसलिए भी कि प्रदेश में नक्सलियों से निपटने के लिए जितनी फौज है, उतने नक्सली नहीं है। जिस दिन दिल्ली से रायपुर तक नक्सलवाद को खत्म करने की राजनीतिक ताकत का इस्तेमाल किया जायेगा, उस दिन नक्सलवाद खत्म हो जायेगा। अभी तक यह होता आया है कि राज्य सरकार केन्द्र को और केन्द्र सरकार, राज्य सरकार को इस मामले में दोषी ठहराते आये हैं। दरअसल दोनों सराकारों के बीच इस मामले को लेकर तालमेल का अभाव देखा गया है। कश्मीर मामले में बाहरी आतंक का साया था लेकिन, नक्सलवाद मामले में बाहरी नहीं अंदरूनी मामला है। नक्सलवाद जिनके नेतृत्व में चल रहा है,उसमें ज्यादातर लोगों की शिनाख्त हो चुकी है। जाहिर सी बात है कि नक्सलवाद को लेकर जो आॅपरेशन अभियान चालाये जा रहे हैं,या चलाये गये हैं,वो समस्या का हल नहीं हो सकते। कश्मीर मामले को लेकर जब बड़ा फैसला लिया जा सकता है तो नक्सलवाद पर भी विचार किया जाना चाहिए। क्यों कि यह केवल बस्तर का ही नहीं, प्रदेश के 18 जिलों का मामला है’’।

 दहशत का साम्राज्य
छत्तीसगढ़ का बेरोजगार आदिवासी माओवादी बन के दहशत का साम्राज्य खड़ा कर लिया हैं। हर बरस एक हजार करोड़ रूपए की उगाही कर तेलंगाना पहुंचा रहा, लेकिन बदले में उसे मिलती है मौत की गोली। इस सच को यहां का नक्सली बना आदिवासी समझने को तैयार नहीं। उसे लगता है कि सरकार तो नौकरी देती नहीं है,आय का एक मात्र जरिया नक्सली बनना ही है। लेकिन एक सच यह भी है कि छत्तीसगढ़,उड़ीसा, झारखंड और मध्यप्रदेश में कहीं भी माओवादी मरें, उससे आंन्ध्र के नक्सली लीडरों की आॅखों गीली नहीं होती। न उन्हें कोई नुकसान होता है। छत्तीसगढ़ के माओवादी हर बरस करोड़ों रूपए आंन्ध्र के नक्सली लीडरों को विभिन्न तरीके से राशि वसूल कर पहुंचा रहे हैं। पूर्व मुख्यमंत्री डाॅ रमन सिंह ने 2009 में कहे थे कि राज्य में नक्सली वन व्यापारियों, परिवहन मालिकों और लौह अयस्क खनन कंपनियों से हर वर्ष 300 करोड़ रुपये की जबरन वसूली करते हैं‘‘। बस्तर के डी.आई.जी पी. सुन्दर राज कहते हैं कि नक्सली हर बरस यहां से एक हजार करोड़ रूपए विभिन्न मदों से एकत्र करते हैं‘‘। जाहिर है कि छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद के नाम से लड़ी जा रही लड़ाई में शामिल यहां का बेरोजगार आदिवासी नहीं जानता कि लाल गलियारे में अपनी जिन्दगी और मौत की कहानियांे का जो फतंासी वह गढ़ रहा है उसके पीछे कितने करोड़ रूपए के दहशत का साम्राज्य है। सरकार को इससे कोई सरोकार नहीं है।

बस्तर कश्मीर है छग काः सुनील
नक्सलियों की वजह से बस्तर का पर्यटन उद्योग खत्म होने के कगार पर है। बावजूद इसके नक्सलियों ने सरगुजा के बाद बस्तर को अपना वसूली का केन्द्र बना रखा है। लाल गलियारे के लावे के संदर्भ में रायपुर के सांसद और प्रदेश भाजपा उपाध्यक्ष सुनील सोनी कहते हैं,‘बस्तर छत्तीसगढ़ का कश्मीर है। निश्चय ही नक्सलियों के आतंक की वजह से हर सांसे दहशतजदा रहती है। केन्द्र सरकार नक्सलवाद के खात्मे के लिए समय समय पर कदम उठाती रही है। नक्सलवाद के खात्मे के लिए निश्चय की गृहमंत्री कुछ सोच रखे होंगे। कायदे से राज्य सरकार को चाहिए कि वो नक्सलवाद के खात्मे के लिए केन्द्र सरकार से बैठ कर बात करे। और निदान की दिशा में कदम उठाना चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं लगता है कि राज्य सरकार नक्सलवाद के खात्मे के लिए कटिबद्ध है।

मनमानी का हक नहींःसिंहदेव
पंचायत एवं स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंह देव कहते हैं,‘‘कश्मीर के मामले से एक बात साफ हो गई है कि केन्द्र सरकार अपने फायदे के लिए कुछ भी कर सकती है। भावानात्मक आधार पर निर्णय लिया गया है। एक प्रांत को खंडित करने का यह तरीका ठीक नही है। कल के दिन किसी भी राज्य में गवर्नर रूल लगाकर राज्य को केन्द्र शासित घोषित कर देंगे। छत्तीसगढ़ में कोई बड़ी नक्सली वारदात हो जाये और राष्ट्रपति शासन यह कहकर लगा दिया जाये कि राज्य सरकार नक्सलियों पर नियंत्रण करने में नाकाम हो। या फिर संवैधानिक ढांचे को खंडित कर इसे केन्द्र शासित राज्य बना दो। प्रजातंत्र में कोई भी पार्टी हो उसे मनमानी करने का हक नहीं है। रहा सवाल नक्सलवाद के खात्मे का तो निश्चय ही छत्तीसगढ़ के लिए यह समस्या कोढ़ है। सरकार अपने स्तर पर इसके खात्मे में लगी है। उम्मीद है,बहुत जल्द सफल हो जायेंगे‘‘।

छग के नक्सली हाशिए पर
तात्कालीन बस्तर आईजी एसआरपी कल्लूरी के समय भारी संख्या में माओवादी सरेंडर किए।लेकिन लाल गलियारा खाली नहीं हुआ। डीजीपी डी.एम अवस्थी कहते हैं,‘बारिश के तीन महीने माओवादी अपनी संख्या बढ़ाने के अभियान को अंजाम देते हैं। लेकिन इस बार बारिश में भी सुरक्षा बलों की सर्तकता और आॅपरेशन प्रहार को अंजाम देने की वजह से  बस्तर में नए नक्सलियों के भर्ती की खबर नहीं है। सुकमा,दंतेवाड़ा,बीजापुर और नारायणपुर में नक्सलियों के खात्मे के लिए आॅपरेशन जारी है‘‘। दरअसल सरेंडर करने वाले नक्सलियों का कहना है,ऊंचे पदों पर तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के माओवादियों के पैठ होने से निचले स्तर पर तैनात छत्तीसगढ़ के माओवादियों में असंतोष बढ़ता जा रहा है। क्यों कि माओवादी से संबंधित सभी तरह की रणनीति में छत्तीसगढ़ के नक्सलियों को शामिल नहीं किया जाता। न ही उनसे कोई राय ली जाती है। तेलंगाना के नक्सली लीडरों के आगे यहां के माओवादी हाशिए पर हैं।

नक्सलियों ने दी धमकी
नक्सली संगठन के दक्षिण बस्तर सब जोनल कमेटी ने 20 जुलाई को एक पर्चा जारी कर स्वीकारा कि पुलिस द्वारा चलाए जा रहे एंटी नक्सल ऑपरेशन जुलाई 2018 से 3 अगस्त 2019 के बीच में उनके 96 साथी मारे गए हैं। वहीं बस्तर की सरहद से लगे धमतरी जिले में 24 जुलाई को सीतानदी एरिया कमेटी ने जारी पर्चों में पुलिस की मुखबिरी करने वालों के नामों का उल्लेख करते हुए जान से मारने की धमकी दी है। लिखा है, फारेस्ट वालों को जनअदालत में सजा दिया जाएगा। जितने भी जमीन हैं, सभी में पौधा लगाना चाहिए। पैसा खाकर जंगल कटवाओगे तो जान जायेगी। दारू की भट्टी, अंग्रेजी शराब दुकान बंद करो। घर.घर में शराब बनाना बंद किया जाए। जंगल में बूटा काटने व आग लगाने वाले का हाथ काटा जाएगा। ऐसी धमकी से जाहिर है कि नक्सलवाद का पानी खतरे से ऊपर बह रहा है।